शनि जो कि नैसर्गिक रूप से पाप ग्रह है वह दुःख, दरिद्रता, अपवित्रता, पतन, विकृति, दासत्व, बन्धन, षिथिलता, निम्न वर्ग-जाति, कठिन परिश्रम की बाध्यता प्रदान करने का कारण बनता है तो वहीं आसक्ति का त्याग, दुःख का सामना करने का सामथ्र्य प्रदान करता है; आवष्यकता को सीमित रखने की प्रवृत्ति, दरिद्रता के कष्ट का अनुभव नहीं होने देती है; वैराग्य, सम्मान हानि व धन, पुत्र अथवा स्त्री हानि के क्षोभ से मुक्ति प्रदान करता है;
सेवा करने की भावना व प्रवृत्ति, बंधन में रहने व नौकर बनने की प्रक्रिया को सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान कर देती है, कठिन परिश्रम, जीवन में आने वाली सफलता का मार्ग प्रषस्त करता है; दीर्घता चाहे जीवन की हो या परिश्रम की, आवष्यक परिस्थति में लाभकारी सिद्ध होती है। इनके अतिरिक्त शनि काल पुरुष की कुंडली में दषमेष व एकादषेष होकर जन-प्रतिनिधि, कार्य-कौषल व उपलब्धियाँ प्रदान करने का कार्य भी संचालित करते हैं।
किसी भी ग्रह की दषा के फलों का मुख्य आधार उस दषानाथ ग्रह के स्वामित्व भावों, दषेष की स्थिति व उन पर पड़ने वाले शुभ व अषुभ ग्रहों का प्रभाव ही होता है। इनके द्वारा कुण्डली में बनने वाले विभिन्न योग ही ग्रह की दषा आने पर फलीभूत होते हैं एवं अनुकूल गोचर की स्थिति द्वारा जातक को प्राप्त होते हैं। अब यदि कुण्डली में अषुभ दषेष द्वारा अषुभ योगों का अभाव हो अन्यथा योगों व दषा के प्रतिकूल गोचर हांे तब भी उस अषुभ ग्रह की दषा में अषुभ फल प्राप्त नहीं होंगे।
सर्वप्रथम हम यहाँ लग्न के आधार पर जानेंगे कि शनि की दषा हमारे जीवन में किस प्रकार के फल लेकर आयेगी। शनि के स्वामित्व के आधार पर फल: योगकारक शनि: वृष व तुला लग्न के लिए शनि योगकारक होकर अतिषुभ फलदायी होते हैं। लग्नेष शनि: मकर व कुम्भ लग्न के लिए शनि शुभ फलदायी होते है त्रिकोणेष शनि: मिथुन व कन्या लग्न के लिए शनि मिश्रित फलदायी होते हैं क्योंकि इन्हें त्रिकोण स्थान के साथ एक-एक अषुभ भाव का भी स्वामित्व प्राप्त होता है। अतः यहाँ शनि की शुभ अथवा अषुभ स्थिति, कुण्डली में शनि के फलों की शुभता निर्धारित करने में निर्णायक होती है।
अषुभ शनि: कर्क व सिंह राषि के लिए शनि अति अषुभ फलदायी होते हैं। अन्य सभी स्थितियों में शनि सामान्य फल देने वाले होते हैं। शनि की स्थिति के आधार पर फलः अब शनि की लग्न कुण्डली में स्थिति उपरोक्त फलों की शुभता व अषुभता में वृद्धि अथवा कमी कर देती है, यहाँ शनि यदि त्रिकोण भावों में स्थित हों तो शुभता में वृद्धि जबकि दुः स्थानों 6, 8, 12 में हों तो शुभता में कमी अथवा अषुभता में वृद्धि कर देते हैं, वहीं केन्द्र स्थानगत होने पर वहाँ स्थित ग्रहों अथवा दृष्टि करने वाले ग्रहों के आधार पर शुभता व अषुभता में वृद्धि अथवा कमी करते हैं जबकि मारक स्थानगत होने पर धन, स्त्री व लोकछवि के माध्यम से कष्टकारी सिद्ध होते हैं।
अतः यदि आप वृष या तुला लग्न के जातक हैं और शनि यदि पंचम या नवम में स्थित है तो आपको तनिक भी भयभीत होने की आवष्यता नहीं है क्योंकि आने वाली शनि की दषा आपके जीवन में उपलब्धियां, सम्मान, उच्च पद और समृद्धि प्रदान करने वाली होगी। यदि मेष लग्न हो और शनि किसी भी त्रिकोण स्थान में स्थित हों तो भी शनि की दषा कार्य व उपलब्धियों की दृष्टि से लाभकारी ही रहेगी जबकि वैवाहिक सुख के दृष्टिकोण से कुछ संघर्षों का सामना अवष्य करना पड़ सकता है।
परन्तु यदि कर्क अथवा सिंह लग्न के जातक की कुण्डली में शनि, मारक स्थान 7, 2 अथवा 6, 8, 12 में स्थित हों व इनके स्वामियों द्वारा पीड़ित हों तो शनि की दषा अत्यन्त कष्टकारी हो सकती है, वहीं शनि की त्रिकोण स्थान में स्थिति अषुभ फलों में कमी कर देगी। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब अषुभ भावों से सम्बन्ध होने के साथ-साथ मंगल, मारक भाव अथवा मारकेष से भी सम्बन्ध हो जाये तब अरिष्ट की पुष्टि माननी चाहिए।
अब प्रष्न ये उठता है कि यदि शनि हमारी कुण्डली में अषुभ फलदायी हों तब शनि की दषा के 19 वर्षों का हमारा जीवन क्या दुःख, पीड़ा में ही व्यतीत होगा? हम जानते हैं कि प्रत्येक ग्रह की महादषा के फलों के प्राप्त होने में उनकी अन्तर्दषाओं का विषेष योगदान होता है अथवा यह कहें कि अन्तर्दषेष ग्रह ही महादषा के फलों को क्रियाषीलता प्रदान करते हैं व उन फलों को अधिक शक्ति अथवा दुर्बलता के साथ आगे बढ़ाते हैं, कभी-कभी तो अन्तर्दषेष का प्रभाव महादषानाथ की अपेक्षा इतना प्रबल होता है कि महादषेष के स्वयं के फल भी क्षीण हो जाते हैं और अपेक्षा के विपरीत फल प्राप्त होने लगते हैं।
ऐसा ही कुछ शनि की दषा में भी होता है। आइये, शनि दषा की ऐसी ही कुछ परिस्थितियों पर एक नजर डालते हैं- स्वयं की अन्तर्दषा: ष्शनि यदि आपकी जन्म कुण्डली में स्वक्षेत्री, मूलत्रिकोणी, उच्च राषि के अथवा शुभ स्थानगत हों तो सामाजिक, भूमि व विभिन्न क्षेत्रों में अधिकारों की प्राप्ति होती है वहीं यदि शनि कुण्डली में अषुभ अवस्था व स्थिति में हो तो बृहद्पाराषर के अनुसार अन्तर्दषा का प्रारम्भिक दो तिहाई भाग भय, कष्ट, रोग के कारण अषुभ होता है परन्तु अन्तिम भाग अप्रत्याषित रूप से शुभ परिस्थितयाँ प्रदान करने वाला होता है।
बुध अन्तर्दषा: बली व शुभ बुध; विद्या लाभ, सम्मान, यष, कीर्ति, तीर्थ व व्यापार लाभ प्रदान करती है वहीं अगोचरस्थ, अषुभ ग्रहों द्वारा प्रभावित व अषुभ स्थानगत (6,8,12 भावों) बुध की अन्तर्दषा प्रारम्भ में पद, धन व अधिकार लाभ प्रदान कर देती है जबकि मध्य व अन्तिम भाग पीड़ादायी व सर्वनाषकारी सिद्ध हो जाती है। शुक्र अन्तर्दषा: ये अन्तर्दषा अत्यधिक विस्मयकारी प्रभाव लेकर आती है।
यदि यह कुण्डली में निर्बली है तो उसी स्थिति में ये शनि के फलों को उनकी शुभता व अषुभता के आधार पर अन्तर्दषा में प्रदान करता है परन्तु बली शुक्र की स्थिति में विपरीततः शुक्र के फल प्राप्त होने लगते हैं वहीं यदि शनि व शुक्र दोनों ही बली हों तब विरोधी प्रकृति व क्रियाषीलता के कारण एक-दूसरे के फलों का दमन करने लगते हैं। ऐसी स्थिति अप्रत्याषित व विपरीत वातावरण पैदा कर, जीवन में उथल-पुथल की स्थिति उत्पन्न कर देती है। राहु अन्तर्दषा: अषुभ ग्रहों द्वारा प्रभावित व अषुभ स्थानगत राहु भय, विरोध, ग्रह त्याग व हानि प्रदान करता है
परन्तु यदि राहु कुण्डली में योगकारक अथवा त्रिकोण स्थानगत हो या मेष, वृष, कर्क, सिंह, कन्या या धनु राषि का हो तो ऐसी अन्तर्दषा ऐष्वर्य, सम्मान, वस्त्र-आभूषण व अनेक लाभ प्रदान करने वाली हो जाती है। गुरु की अन्तर्दषा: यह अन्तर्दषा सामान्यतयः शुभफलदायी ही होती है जो सम्मान, धन, प्रसिद्धि, ज्ञान, वैराग्य व आध्यात्मिक लाभ देने वाली होती है।
जब गुरु पाप ग्रहों द्वारा प्रभावित व 6, 8, 12 स्थानगत हो तथा महादषेष शनि से 3, 6, 8, 12 स्थित हो तब यह अन्तर्दषा कष्टप्रद व हानिकर हो जाती है अन्यथा महादषेष से गुरू की शुभ स्थिति वैभव, सुख, दयालुता, वैदिक ज्ञान लाभ व महान कीर्ति भी प्राप्त करा देती है।