संग्रहणी : पेट का गंभीर रोग आचार्य अविनाश सिंह संग्रहणी रोग के मुखय कारणों का पता अभी नहीं चल पाया है। बैक्टीरिया, कुपोषण, भोजन में मौजूद कुछ विशेष प्रोटीन इसका कारण हो सकते हैं। पाचन तंत्र संबंधी ऐसा रोग जिससे ग्रस्त रोगियों के मुंह तथा आमाशय में पाचक रस का स्त्राव तो समुचित रूप में होता है और भोजन का पाचन भी काफी हद तक ठीक होता है।
परंतु उसकी आंतों में पचे हुए भोजन के प्रमुख अंश जैसे वसा, ग्लूकोज, कैल्शियम, कई प्रकार के विटामिन आदि का अवशोषण नहीं हो पाता है। इस रोग में अक्सर पाचन संस्थान से संबंधित सारे अंग (यकृत, अग्नाशय, पित्ताशय आदि) सामान्य ही मिलते हैं। साथ ही रोगी रोग के आक्रमण से पूर्व अथवा बाद में भी सामान्य प्रकृति का हो सकता है। किंतु रोग के आक्रमण के दौरान उसकी आंत्र आहार का अवशोषण किसी अज्ञात कारण के प्रभाव में आकर छोड़ देती है। इस रोग के निश्चित कारणों का अभी तक पता नहीं चल पाया है। कुछ विद्वान संग्रहणी रोग के लिए रोग से पूर्व मौजूद कुपोषण को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं। फिर भी कुछ रोगियों में गंभीर अवस्था के दौरान विटामिन 'बी' समूह का घटक इस रोग की शुरूआत करते देखा गया है।
इसलिए कह सकते हैं कि सभी रोगियों के लिए कोई एक निश्चित और स्पष्ट सिद्धांत अभी तक मान्य नहीं है। रोग के लक्षण : जो संग्रहणी रोग के पुराने मरीज हैं, उनमें कुछ लक्षण मिलते हैं जैसे अत्यधिक थकान, मानसिक उदासीनता, अवसाद, वजन का कम होना, भूख की कमी, अफारा आदि। रोग की शांति और पुनरावृत्ति का चक्र चलता रहता है। रोग की गंभीर अवस्था में रोगी को रोजाना 10 या अधिक बार मल त्याग हो सकता है। मल विसर्जन की इच्छा एकाएक तीव्र हो जाती है। उसे रोक पाना मुश्किल हो जाता है। मल की मात्रा सदैव ही ज्यादा रहती है। मल सदैव ही तरल रूप में पीले रंग का, झाग और दुर्गंध युक्त होता है और उसमें वसा की मात्रा बहुत अधिक होती है। मल शौचालय में चिपक जाता है तथा उसे साफ करना मुश्किल होता है।
मितली के साथ वमन तथा पेट का फूलना आदि लक्षण भी उत्पन्न हो सकते हैं। रोगी की जीभ भी लाल रंग की घाव युक्त हो सकती है और उसमें दर्द रहता है। रोगी को भोजन निगलने में भी कठिनाई होने लगती है। जैसे जैसे रोग बढ़ता जाता है, रोगी का वजन कम होता जाता है। संग्रहणी रोग के कारण रोगी के शरीर में वसा भंडार बहुत कम रह जाता है। इसके कारण शरीर के सारे आंतरिक अंग सिकुड़कर छोटे होने लग जाते है। संग्रहणी रोग को लक्षणों के आधार पर दो भागों में बांटा गया है। उष्ण कटिबंधीय संग्रहणी और कोथलिक संग्रहणी। उष्ण कटिबंधीय : इस संग्रहणी का मुखय लक्षण दस्त हैं, जो रोग के प्रारंभ में अति तीव्र संखया में अधिक तथा पानी के सामान होते हैं। इसके बाद दस्तों की संखया घटने लग जाती है। किंतु उनका पीला रंग झाग युक्त और मात्रा बढ़ जाती है। दस्तों की तीव्रता के कारण शीघ्र ही विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव उत्पन्न हो जाता है। कोथलिक संग्रहणी : इस का प्रमुख लक्षण है कि रोग के आरंभ में ही आंत्र में वसा, प्रोटीन, विटामिन 'बी'12, कार्बोहाइड्रेट और पानी आदि अपर्याप्त अवशोषण होने से ये मल के साथ जाने लगते हैं।
मल प्रारंभ में भी अधिक मात्रा में पीला, झाग और दुर्गंध युक्त चिकनाहट वाला होता है। शरीर में वसा में घुलनशील विटामिन ए, बी, के आदि का अवशोषण न हो पाने से इनकी अल्पता होने लग जाती है। कोथलिक संग्रहणी के आधे से अधिक रोगी छोटे बच्चे ही होते हैं। रोग का उपचार : आयुर्वेदिक चिकित्सा में संग्रहणी रोग के लिए कई योगों का उल्लेख है।
कुछ अनुभूत आयुर्वेदिक योग इस प्रकार हैं :
1. कुटकी, चिरायता, पटोलपत्र, नीम मूल, छाल और पित्त पापड़ा। सभी बराबर मात्रा में ले कर उन का चूर्ण बना लें और फिर 1 से 2 ग्राम की मात्रा दिन में तीन बार गौ-मूत्र के साथ सेवन करें तो संग्रहणी रोग में आराम आने लग जाता है।
2. जायफल, शुद्ध सिंगरफ, कौड़ी, भस्म, सौंठ, सेंधा नमक, शुद्ध अफीम, शुद्ध धतूरे के बीज और पीपल बराबर मात्रा में ले कर चूर्ण बना लें। फिर नींबू के रस, धतूरे के बीज के क्वाथ और भांग के स्वरस की एक-2 भावना दे कर नींबू के रस में घोंट कर 50-50 ग्राम की गोलियां बना कर सुखा लें और एक-2 गोली दिन में तीन बार मक्खन निकली हुई दही की पतली लस्सी या ताजे पानी के साथ सेवन करें।
3. जायफल, अफीम, कलमी शोरा और लौंग सभी बराबर मात्रा में ले कर चूर्ण कर लें और फिर शहद में मिलाकर 60 मिलिग्राम की गोलियां बना लें। भयंकर से भयंकर संग्रहणी और अतिसार रोग में निःसंदेह लाभ होगा।
4. सूखा आंवला और काला नमक समान मात्रा में ले लें। सूखे आंवलों को भिगो कर नर्म कर लें और काला नमक मिलाकर पीस कर 60 मिलिग्राम की गोलियां बना कर सुखा लें। भोजन के आधे घंटे बाद पानी के साथ लें, विशेष लाभ होगा। ज्योतिषीय दृष्टिकोण : संग्रहणी रोग का मुखय कारण पेट की आंतें हैं। आंत में आहार का अवशोषण किसी जीव विष के कारण होता है। काल पुरुष की कुंडली में षष्ठ भाव पेट की आंतों का होता है, जिसका कारक ग्रह मंगल है। क्योंकि आहार का अवशोषण जीव विष से होता है और विष के कारक ग्रह राहु और केतू हैं, इसलिए यदि कुंडली में लग्नेश, लग्न, षष्ठ भाव, षष्ठेश मंगल, राहु के अशुभ प्रभावों में हों, तो संग्रहणी जैसा रोग जातक को हो जाता है। विभिन्न लग्नों में संग्रहणी रोग : मेष लग्न : शनि युक्त लग्नेश द्वितीय भाव में हो। बुध षष्ठ भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो, तो संग्रहणी रोग होता है। वृष लग्न : गुरु लग्नेश और षष्ठ भाव पर दृष्टि रखे। राहु धनु या मीन राशि में हो कर षष्ठेश पर दृष्टि रखे। लग्नेश पर मंगल की दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है।
मिथुन लग्न : राहु की षष्ठ में स्थिति या षष्ठ भाव पर दृष्टि होना और मंगल का लग्नेश या लग्न को देखना। गुरु का षष्ठ भाव में होना, शनि के द्वितीय भाव में होने से संग्रहणी रोग हो सकता है। वृष लग्न में गुरु लग्नेश और षष्ठ भाव पर दृष्टि रखे। राहु धनु या मीन राशि में हो कर षष्ठेश पर दृष्टि रखे। लग्नेश पर मंगल की दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र राहु से युक्त या दृष्ट हो, बुध द्वितीय भाव में या षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त न हो। मंगल अष्टम में, शनि 3, 6, 8 भावों में शुक्र से युक्त हो, तो संग्रहणी रोग होता है। सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य राहु से दृष्ट या युक्त हो। लग्न में बुध अस्त हो, मंगल 6 या 8 भाव में हो कर शनि से दृष्ट या युक्त हो। चंद्र शुक्र द्वितीय भाव में हों तो संग्रहणी रोग होने की संभावनाएं होती हैं। कन्या लग्न : लग्नेश बुध मंगल से युक्त या दृष्ट हो।
राहु षष्ठ या अष्टम भाव में हो, शेष सभी ग्रह 10, 11, 12, 1, 2, 3 भाव में स्थित हों, जिनमें चंद्र शनि से युक्त या दृष्ट हो, तो संग्रहणी रोग होता है। तुला लग्न : गुरु षष्ठ भाव में राहु से युक्त हो। लग्नेश शुक्र शनि से सप्तम भाव में हो, और राहु से दृष्ट हो। चंद्र भी राहु या गुरु के प्रभाव में हो तो संग्रहणी रोग होता है। वृश्चिक लग्न : बुध द्वितीय भाव में, षष्ठ या अष्टम में हो और राहु से युक्त हो। शनि की लग्न या लग्नेश पर दृष्टि हो और चंद्र लग्न में हो, तो संग्रहणी रोग होता है। धनु लग्न : लग्नेश गुरु चंद्र से युक्त हो कर तृतीय, षष्ठ या अष्टम भाव में हो कर राहु से युक्त हो। शनि लग्न को देखता हो और बुध द्वितीय भाव या पंचम भाव में हो तो संग्रहणी रोग होता है। मकर लग्न : शनि त्रिक भावों में, राहु धनु या मीन राशि में हो और गुरु से दृष्ट हो। गुरु सप्तम या अष्टम भाव में हो कर चंद्र से युक्त हो। लग्नेश शनि पर मंगल की सातवीं या आठवीं दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। कुंभ लग्न : राहु षष्ठ भाव में हो। चंद्र शनि से युक्त हो कर पंचम, सप्तम या अष्टम भाव में हो। मंगल सप्तम भाव में, अष्टम भाव में या एकादश भाव में हो, तो संग्रहणी रोग हो सकता है। मीन लग्न : शुक्र षष्ठ भाव, सूर्य अष्टम भाव में, शनि लग्न में या लग्न को देखे, लग्नेश अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो। राहु लग्न में या षष्ठ भाव पर दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा और गोचर के प्रतिकूल होने पर ही रोग होता है।