मुहूर्त का महत्व क्यों, और कैसे बसंत कुमार सोनी कार्य के सुखांत के लिए और मार्ग में आने वाली बाधाओं के परिहार के लिए शुभ मुहूर्त का चयन किया जाता है जिसमें दिन, तिथि, नक्षत्र, करण आदि के शुभाशुभ की जानकारी का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। आइए, जानते हैं मुहूर्त के इन सभी घटक तत्वों की शुभ और अशुभता का स्वरूप क्या है और उससे कार्य को क्या दिशा और दशा प्राप्त होती है। लोक परंपरानुसार किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने के लिये शुभ समय का चयन करना ही मुहूर्त चयन कहलाता है। कार्य की सिद्धि सुनिश्चित करने के लिए शुभ मुहूर्त में अपने कार्य को आरंभ करने का अरमान सभी के दिलों में रहता है। मुहूर्त देखने की प्रथा हजारों वर्षों से चली आ रही है।
एक हिंदु सनातन धर्मी ही नहीं अपितु अन्य धर्मों के अनुयायी भी अपनी धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कार्यारंभ के पूर्व शुभ समय का विचार करना जरूरी समझते हैं ताकि उनका कार्य बिना किसी विघ्न-बाधा के सफलता के साथ पूर्ण हो जाए। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि जब कोई कार्य बिगड़ जाता है, निरर्थक साबित हो जाता है या लाभ के बजाय हानिप्रद सिद्ध होता है तब व्यक्ति सोचने लगता है कि हमने किस मनहूस घड़ी में कार्य शुरू किया था जिसका दुखांत हुआ सुखांत के बदले में। कहने का तात्पर्य यह है कि कार्य-नाश होने के उपरांत ऐसे लोगों को मुहूर्त की महत्ता समझ में आने लगती है और उन्हें शुभ मुहूर्त में कार्यारंभ न करने की गलती का एहसास होने लगता है।
ऐसे लोग फिर दोबारा भविष्य में कोई शुभ कार्य करते वक्त शुभ मुहूर्त देखने की चेष्टा अवश्य करने लग जाते हैं। ज्योतिष का मुहूर्त खंड, विभिन्न समयावधि में जातकों के द्वारा आरंभ किये गये कार्यों के शुभाशुभ परिणामों का दिग्दर्शन कराता है। अतः मुहूर्त संबंधी तथ्यों की जानकारी हासिल करने के लिये पंचांग अवलोकन करना अति आवश्यक हो जाता है जिसके आधार पर किस दिन, कौन सी तिथि, नक्षत्र, योग, करणादि कितने बजे से कितने बजे तक हैं, इस बात की जानकारी प्राप्त हो जाती है। इन्हें जान लेने के उपरांत मुहूर्त की गणना की जा सकती है। तिथियां : 1, 6, 11 तिथियों को नंदा कहते हैं। 2, 7, 12 को भद्रा, 3, 8, 13 को जया 4,9, 14 को रिक्ता और 5, 10, 15 को पूर्णा तिथियां कहते हैं। नंदा शुक्रवार को, भद्रा बुधवार को, जया मंगलवार को, रिक्ता शनिवार को शुभ फल तथा विजय दिलाने वाली होती है। इसी तरह पूर्णा तिथियां गुरुवार को पूर्णरूपेण सिद्धिप्रद मानी जाती हैं।
करण : तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। करण ग्यारह होते हैं। मुहूर्त की दृष्टि से इन सबका शुभाशुभ फल निम्नानुसार होता है। ''बव'' करण में प्रस्थान करना, ग्राम-नगर आदि में प्रवेश करना शुभ होता है। ''बालव'' करण में विप्र जाति के यज्ञ विवाहादि, चूड़ाकर्म, यज्ञोपवीत जैसे कार्य शुभ होते हैं। शेष तीन वर्णों के लिये यह करण निषिद्ध रहता है। ''तैतिल'' करण में सुंदर आभूषणों का निर्माण एवं राजद्वार संबंधी कार्य शुभ होते हैं। ''कौलव'' करण मित्रता संबंधी कार्यों के लिये प्रसिद्धि एवं सफलता देने वाला होता है। 'गर' करण में गृहारंभ, गृहप्रवेश, वास्तुकर्म, पशुपालन, पशुओं का क्रय-विक्रय शुभ होता है। ''वणिज'' करण व्यवसायियों को व्यापार आरंभ करने के लिये शुभ तथा विक्रेताओं को लाभप्रद होता है। ''विष्टि'' करण को भद्रा कहते हैं। इसमें न तो स्वयं कोई शुभ कार्य करें और और न ही किसी दूसरों से करवायें। विष्टि के लगते ही कार्यारंभ करने से अर्थहानि होती है, विष्टि के आरंभ हो चुकने पर कार्यारंभ किये जाने पर कार्यनाश होता है।
विष्टि के मध्यकाल में कार्यारंभ किया जायेगा तो जीवन की हानि होगी यानि यजमान को यमराज का बुलावा आ सकता है। किंतु विष्टि के अंत में जो भी शुभ कार्य आरंभ किया जायेगा उसमें अवश्यमेव सिद्धि और विजय मिलेगी। विष्टि की अंतिम तीन घड़ी शुभ होती हैं। ''शकुनि'' नामक करण जब कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हो, उस रात्रि में शूरवीर योद्धाओं एवं दुश्मनों को भाग जाने के लिये प्रेरित करना, औषधियां ग्रहण करना, कोई वस्तु धारण करना, पक्षियों को पालना और युद्ध संबंधी सभी कार्य करना श्रेयस्कर होता है। ''चतुष्पद'' नामक करण यदि अमावस्या को दिन के समय हो तो तंत्रशास्त्रवेत्ता तांत्रिक विधि से अपने शत्रुनाश के लिये इसे उपयोगी मानते हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है।
चतुष्पद नामक करण में चतुष्पदों (चौपायों या पशुओं) से संबंधित हर प्रकार के कार्य करना हितकारी होता है। यदि श्राद्ध यानी तर्पणादि जलदान के सभी कार्य इस करण में किये जायें तो ज्यादा पुण्य मिलता है। ''नाग'' करण के देवता सर्प होते हैं। गारुड़ी विद्या जानने वालों के लिये यह करण सफलीभूत हो सकता है। लेकिन जन साधारण के लिये यह अशुभ ही है। इसमें कोई भी शुभ कार्य टालना चाहिये। ''कौस्तुभ''करण को किंस्तुघ्न नाम से पुकारते हैं। इसकी महत्ता वैश्वदेव नामक शुभ योगो से बहुत बढ़ जाती है। शुक्ल पक्ष की पहली तिथि प्रतिपदा को जब दिन के समय कौस्तुभ यानि किंस्तुघ्न करण हो तब यह योग बनता है जो सभी प्रकार के शुभ कार्यों को करने के लिये सर्वोत्तम माना जाता है।
दुष्कर से भी दुष्कर कार्य इस करण/शुभ योग में शीघ्र सफल होते हैं। वार : आदित्यः सोमो भौमश्च तथा बुध बृहस्पतिः। भार्गवः शनैश्चरश्चैव एते सप्तदिनाधिपः॥ सूर्य, चंद्र, भौम, बुध, बुहस्पति, शुक्र और शनि ये क्रमशः रविवार आदि दिनों के स्वामी हैं। मुहूर्त के आधार पर सप्तवारों में कौन-कौन से विशिष्ट शुभ कार्य करना चाहिए जो लाभदायक एवम् सिद्धिदायक हों। संक्षिप्त रूप में उनका विवरण निम्नलिखित है। रविवार : दिनों का राजा सूर्य है। यदि प्रजा अपने राजा के दर्शन की इच्छुक हो तो उसे अपने रक्षक/ पालक प्रियराजा के दर्शन रविवार को करना चाहिए। हवनादि से संबंधित कार्य रविवार को करना शुभ होता है।
सोमवार : उबटन लगाना, शृंगार की वस्तुएं खरीदना और उनका प्रयोग आरंभ करना, फलों का रस-पान या मधुर रसों का पान करना (रस पीना) मधुपान, बीज-वपन, वृक्षारोपण आदि कार्य शुभ होता है। मंगलवार : भेद नीति के कार्य, सेनापति का पद-ग्रहण अथवा सेना में पदग्रहण करना, व्यायाम, शस्त्राभ्यास आरंभ करने के लिये मंगलवार का दिन शुभ है। बुधवार : कन्या के विवाह आदि को तय करने की स्वीकारोक्ति बुधवार को शुभ मानी गई है। कोई कभी अपना सुहृद रहा हो और अब दुश्मन बन गया हो यदि उससे संधि करना हो तो प्रयास बुधवार से आरंभ करें। यदि रुठे को मनाना हो तो बुधवार को मनावें, शुभ फल की प्राप्ति होगी।
नवीन वस्त्र धारण भी शुभ होता है। गुरुवार : अध्ययन, अध्यापन के कार्य का शुभारंभ, देवता की आराधना आरंभ करना, साधु-महात्मा एवं गुरुजनों से दीक्षा ग्रहण करना, सुंदर वस्त्राभूषणों का खरीदना, कृषि कार्य का प्रारंभ करना गुरुवार को प्रशस्त माना गया हैं। नव वस्त्राभूषण भी शुभ होता है। शुक्रवार : कन्यादान, प्रथम बार (पहले-पहल) अश्वारोहण, गजारोहण करना, घोड़े व हाथी का क्रय-विक्रय, नवीन परिधान धारण करना, गायन-वादन, नृत्यारम्भ करना शुभ। शनिवार : नगर, ग्राम, पुर में बसना, खंभे गाड़ना, गृहप्रवेश करना, शनिवार को शुभ फलदायक होता है। किसी चीज की स्थापना करना, हाथी लेना भी शनिवार को शुभ होता है ।
यात्रा मुहूर्त में तिथियों का विचार प्रथमा तिथि को प्रतिपदा, एकम अथवा परिवा या पड़वा के नाम से भी पुकारते है। इसमें बुद्धिमान/धैर्यवान मनुष्यों को किसी भी रूप में कभी भी यात्रा नहीं करनी चाहिये। द्वितीया तिथि यानि दोज के दिन यात्रा करना शुभ होता है। कार्य का सफल होना जानें। तृतीया (तीज) तिथि में यात्रा करना कल्याणकारक होता है। निरोगता का लाभ होता है। चतुर्थी की यात्रा मृत्युभयकारक होती है - ''चतुर्थी मरणाद्भयम्''॥ पंचमी के दिन यात्रा करना सर्वप्रकारेण सिद्धिप्रद होता है, विजय प्राप्ति होती है। षष्ठी तिथि के दिन यानि छठ के दिन की यात्रा हानिप्रद होती है। ''षष्ठीत्वं न लाभाय'' सप्तमी के दिन यात्रा करना यानी शुभ की बिदाई और अशुभ को न्यौता देने के समान है। अपवाद स्वरूप धार्मिक यात्रा की जा सकती है। अष्टमी के दिन यात्रा करने वाला स्वयं रोगग्रस्त हो सकता है, ''यात्रा रोगोत्पादक''।
नवमी के दिन यात्रा करने वाले का मन लौटकर आने का नहीं होता, ''यात्रा में अडंगा'' पड़ जाता है। दशमी की यात्रा राजा को भूमि का लाभ कराती है, अन्यों को भूमि लाभ सदृश सुख की प्राप्ति होती है। एकादशी की यात्रा सदैव शुभ होती है। ''एकादशी तु सर्वत्र प्रशस्ता सर्व कर्मसु''। श्रेष्ठ फल मिलता है। द्वादशी की यात्रा धनहानि कराने वाली होती है- ''द्वादशीत्वर्थनाशाय''। त्रयोदशी की यात्रा सुलह, समझौता या संधि-कार्य हेतु शुभ मानी गई है। चतुर्दशी की यात्रा चलित-कार्यों में अर्थात् चर कार्यों में सफलता देती हैं। कौतुहल पूर्ण कार्यों के प्रयोग आदि को करने के उद्देश्य से की जाने वाली यात्राएं चतुर्दशी को सिद्धि प्रदान करती हैं, जैसे कोई कलाबाज, बाजीगर, या नटविद्या में प्रवीण कोई नटबेड़िया स्व-स्थान से प्रस्थान कर स्थान-स्थान पर भ्रमण करते हुये जगह जगह पर, अपने शरीर को विचित्र ढंगों से एवं कई तरह से मोड़-तोड़, सिकोड़कर अपने कलाकौशल से अद्भुत प्रदर्शन कर लोगों को मंत्रमुग्ध करता हुआ आगे बढ़ता जावे तो उन्हें चतुर्दशी तिथि को यात्रा सिद्धि प्रदान करने वाली साबित होगी।
सामान्य रूप से जन साधारण के लिये चतुर्दशी के दिन यात्रा करना पूर्णरूपेण वर्जित रहता है जिसका कारण इस लेख की अंतिम कंडिका को पढ़ने से स्पष्ट हो जायेगा। मुहूर्त-विषयक उपरोक्त विवरण कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष अर्थात् दोनों पक्षों की प्रतिपदा तिथि से चतुर्दशी तिथि तक के लिये समान रूप से लागू होता है। अमावस्या तिथि के दिन भी यात्रा करना वर्जित है- ''अमावस्यां न यात्रा कुर्यात्''। पूर्णिमा तिथि को दिन में कभी भी, किसी भी कार्य से अथवा किसी भी उद्देश्य से यात्रा नहीं करनी चाहिये क्योंकि पूर्णमासी को दिन में यात्रा करना कार्य की असिद्धि का द्योतक है। शाश्वतता, शीतलता, शांति और शुभगता प्रदान करने वाली पूर्णमासी की रात्रिकालीन यात्रा को शिरोधार्य करना चाहिये। प्रतिदिन यात्रा करने वालों को मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं।
ज्योतिष विज्ञान ने षष्ठी, अष्टमी, नवमी और चतुर्थी तिथियों को प्रत्येक पक्ष के छिद्र माना है, और चतुर्दशी तो शुभ योग/ नक्षत्र आदि से परिपूर्ण या युक्त होने पर भी सर्वथा निषिद्ध होती है। इस कारण से इनमें सर्व शुभ-कार्य, यात्रादि वर्जित हैं। कहा भी गया है- षडष्टौ नव चत्वारि पक्ष छिद्राणि वर्जयेत्। सापि नक्षत्रसम्पन्नां वर्जयेत्तु चतुर्दशीम्॥