कहते हैं भगवान गणेश, गणपति बनने के बाद, एक दिन स्वर्ग में विचरण कर रहेे थे। जब वह चंद्रमा के पास से गुजरे, तो अत्यंत रूपवान चंद्रमा ने गणपति के शरीर और रूप का उपहास किया। तब गणेश जी ने, कुपित हो कर, उसे श्राप दे डाला कि तुम्हें अपने कर्मों का फल भुगतना होगा। जिस रूप-रंग पर तुम्हें इतना अहंकार है, वह नष्ट हो जाएगा, तो दर्शन करने वाले मनुष्यों को व्यर्थ का अपमान, कलंक, निंदा एवं अनिष्ट का भागी बनना पड़ेगा और वे मेरे श्राप से प्रभावित होंगे।
इस भयंकर श्राप को सुन कर चंद्रमा का मुंह अत्यंत म्लान हो गया। वह मारे डर के जल में छुप कर कुमुद (श्वेत कमल) में रहने लगा। यह जान कर सभी देवता भी दुःखी हुए। तब ब्रह्मा जी तथा इंद्र और अग्नि देव ने मिल कर चंद्रमा को उपाय सुझाया कि चतुर्थी के दिन, विशेष कर कृष्ण पक्ष में, गणेश जी की पूजा करनी चाहिए तथा उनका प्रिय व्रत (नव व्रत) रख कर, सायं काल भोजन करना चाहिए।
फल, खीर, मिठाई (मोदक) से उन्हें प्रसन्न करना चाहिए तथा ब्राह्मण को विधि अनुसार दान करना चाहिए। अतः चंद्रमा ने उपर्युक्त तरीके से गणेश जी की स्तुति की तथा अपने घमंड से किये उपहास पर पश्चाताप किया। अंततः गणेश जी प्रसन्न हो गये और चंद्रमा से वरदान मांगने को कहा। तब ंचंद्रमा ने कहा: प्रभु ! ऐसा वरदान दें कि अपने पाप और श्राप से निवृत्त हो जाऊं तथा मनुष्य फिर मेरे दर्शन कर सुखमय हों।
गणेश जी ने पहले तो यह वरदान देने से इंकार कर दिया। परंतु सभी देवगणों की प्रार्थना सुन कर गणेश बोले: जाओ शशांक (चंद्रमा) मैंने तुम्हंे अपने श्राप से मुक्त किया। लेकिन (भाद्रपद) शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को जो तुम्हारे दर्शन करेगा, उसे मिथ्या विवाद और कष्टों से गुजरना पड़ेगा। किंतु जो मनुष्य मेरे पहले (अर्थात् चतुर्थी से पहले) तुम्हारा दर्शन करेंगे (अर्थात शुक्ल पक्ष की द्वितीया के रोज तुम्हारा दर्शन कर लेंगे) उनको यह दोष नहीं लगेगा। फिर चंद्रमा ने गणेश जी से उन्हें प्रसन्न करने के उपाय जाने तथा पूजन विधि जानी।
बस, तबसे हर वर्ष चंद्रमा, गणेश चतुर्थी का व्रत रख, गणेश जी की पूजा करते आ रहे हैं। एक बार श्री कृष्ण ने, अनजाने में ही, भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी का चांद देख लिया था, जिसकी वजह से उन्हें जीवनभर चोरी के कलंक का सामना करना पड़ा था।