पुनर्जन्म में हिन्दुओं का विष्वास देवताओं के अवतारों पर आधारित है। जब पृथ्वी पर पापों का भार असहनीय हो जाता है, तो संतुलन बनाने के लिए अर्थात धर्म स्थापना के लिए ईष्वर हमारे इस मृत्युलोक में अवतरित होते हैं। ईष्वर के अवतारों को जन्म के चक्र में फंसे सामान्य मानव की वेदनाओं, व्यथाओं से अलग रखना होगा। मानव रूप में अवतार लेने पर ईष्वर भले ही मानवोचित व्यवहार करते हैं, किन्तु फिर भी उनके सर्व-षक्तिमान होने की झलकियां अवश्य ही दृष्टिगोचर होती हैं। ईश्वर के अवतारों की कथाएं हिन्दुत्व के रूप में प्रचलित भारतीय धर्म अथवा सनातन धर्म को सर्वाधिक आशावादी, संगीतमय, आनन्दमय और पर्वों जैसी इन्द्रधनुषी आभायुक्त बना देता है।
अपने मतानुसार प्रत्येक धर्म मनुष्य को अध्यात्म की ओर ले जाता है। हिन्दुओं में ऐसे अनेक पंथ हैं और उनमें से अनेक अति मनमोहक हैं। सभी पंथों में अपना-अपना एक अजीब आकर्षण है। इसी कारण हिन्दुओं को किसी धर्म में ऐसी कोई नई बात नहीं दिखाई देती, जिसे वे पहले से ही न जानते हों। ईश्वर के अवतार लेने के कारण भिन्न भिन्न तरह के हो सकते हैं। ये कारण एक महाकल्प से दूसरे महाकल्प (मनुष्य के खरबों वर्ष का एक महाकल्प/ एक महान युग होता है) में ये अलग हो सकते हैं। ये कथाएं पढ़ने में रूचिकर, प्रेरणादायक तथा भक्ति के लिए भक्त को ओत-प्रोत करने वाली होती हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य जन ईश्वर को अपने पारिवारिक घेरे में संघर्ष व श्रद्धा के साथ स्वीकार करता है, यद्यपि वह ईश्वर को अनुपम और महान भी मानता है।
अब सीता माता को ही देखिए। सीता पूर्व जन्म में कौन थी ? एक बार लंकाधिपति रावण ने अतीव सुन्दर नारी को कठिन आध्यात्मिक तपस्या में लीन देखा। उसकी अलौकिक एवं अनोखे सौन्दर्य को देख कर मोहित हो गया और उसको अपनी सहचरी बनाने का प्रस्ताव उसके सम्मुख रखा। किन्तु उस सुन्दरी ने, जिसका नाम वेदवती था, राक्षसराज रावण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसने बताया कि वह गुरु-पुत्र कुशध्वज की कन्या है। उसके जन्म के समय उसके पिता प्रतिदिन वेद-पाठ करते थे। उसको वेद का सम्पूर्ण ज्ञान हो गया था, इसीलिए उसका नाम वेदवती रखा गया। जब वह नवयौवनावस्था को प्राप्त हुई तो उसके साथ विवाह करने के लिए अनेक महान व शक्तिशाली परिवारों के नवयुवकों के प्रस्ताव आए।
किन्तु वेदवती के पिता की हार्दिक ईच्छा थी कि उसकी पुत्री वेदवती मात्र भगवान विष्णु की पत्नी बने। यह जानकर एक दैत्यराज ने एक रात्रि को उसके पिता की हत्या कर दी। तब उसकी मां पति-वियोग को सहन न कर सकी और उसने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया। फलस्वरूप वह अपने पति के मृत शरीर के साथ ही चिता की अग्नि में प्रवेश कर गई। तभी से वेदवती ने भगवान विष्णु को पति रूप में पाने का संकल्प ले लिया। यह बात रावण को बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी, और उसने वेदवती की वेणी (चुटिया) पकड़ ली। वेदवती ने तुरन्त रावण के द्वारा स्पर्श किए हुए केश काट दिये तथा शरीर त्यागने के लिए अग्नि में प्रवेश कर लिया।
मरने से पूर्व उसने कहा था कि:-
1. उसका पुनर्जन्म होगा और वह रावण की मृत्यु का कारण बनेगी।
2. शारीरिक शक्ति से एक नारी पुरूष का वध नहीं कर सकती, वह उसको शाप देकर अपनी संचित आध्यात्मिक शक्ति को नष्ट नहीं करना चाहती थी।
3. वह अयोनिजा (निष्पाप गर्भधारण) के रूप में एक पवित्रात्मा पिता की पुत्री बन कर जन्म लेगी।
4. अगले जन्म में वह एक कमल से उत्पन्न हुई।
रावण ने उसे शीघ्र पहचान लिया और उसे अपने राज-महल में ले गया, परन्तु एक बुद्धिमान मंत्री ने शिशु को देखा और उसने रावण को बताया कि उस कन्या में उसके राज्य को नष्ट करने के सभी लक्षण विद्यमान हैं। तत्काल रावण ने उस कन्या को समुद्र में फेंक दिया। सागर से उस शिशु का शरीर तैरता-तैरता, राजा जनक के राज्य के एक खेत में पहंुच गया। राजा जनक के राज्य में अकाल पड़ गया। वर्षा न होने के कारण जनता में त्राहि-त्राहि मच गई। विद्वान ऋषि-मुनियों ने बताया कि राजा जनक स्वयं खेत जोतें, तो वर्षा सम्भव है। अतः राजा जनक ने सहर्ष खेत जोता। खेत जोतते समय एक शिशु दिखाई पड़ा और राजा जनक ने तुरन्त शिशु को उठा कर गले से लगा लिया।
पुत्री रूप में उसका लालन-पालन करना प्रारम्भ कर दिया। यह कन्या सतयुग में वेदवती थी और त्रेतायुग में वह राजा जनक की पुत्री सीता के नाम से विख्यात हुई। खेत जोतते समय हल की फाल से जो लकीर बनती है, उसे सीता कहते हंै और कुछ लोग हल के फाल के अगले भाग को सीता कहते हैं। राजा जनक जब हल चला रहे थे, तभी हल के फाल के अगले भाग पर शिशु दिखाई पड़ा और तभी उस शिशु का नाम सीता रखा गया। इस प्रकार वेदवती अपने अगले जन्म में सीता नाम से सारे विश्व में उजागर होकर रावण तथा उसके राज्य के विनाश का कारण बनी।
भगवान विष्णु को राम रूप में अवतार क्यों लेना पड़ा ? मृत्युलोक में भगवान के अवतार की कथा के पीछे एक मनमोहक कथा है। प्राचीन काल में सुरों और असुरों के मध्य युद्ध के दरम्यान दैत्यों ने महर्षि भृगु की पत्नी का अपहरण कर लिया था। वास्तव में ऋषि-पत्नी ने दैत्यों को शरण दी थी, जिस कारण कुपित विष्णु ने अपने अस्त्र सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया था। इस पर भृगु क्रोधित हो गये और उन्होंने विष्णु को शाप दिया कि उन्हें मृत्युलोक में मानव रूप में जन्म लेना होगा और कई वर्षों तक पत्नी वियोग की पीड़ा सहन करनी होगी। भगवान विष्णु ने यह शाप सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने सूर्य-वंश में अयोध्या सम्राट राजा दशरथ के घर में जन्म लिया।
एक बार महर्षि नारद राजा जनक के दरबार में आए और उन्हें बताया कि भगवान निशाचरपति दशानन का वध करने के लिए राजा दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न के रूप में अवतरित हो चुके हैं। सीता के रूप में योगमाया ने विदेह के घर में जन्म लिया है और उन्हें सीता का विवाह राम से करना है। ऐसी भविष्य वाणी कर नारद जी चले गए। श्रीराम को दो बार अपनी पत्नी सीता के वियोग की वेदना झेलनी पड़ी। पहली बार जब रावण ने सीता का अपहरण किया और दूसरी बार जब स्वयं उन्होंने अपने महल से निष्काषित करने की आज्ञा दी, जिसका पालन लक्ष्मण जी को करना पड़ा था। महर्षि दुर्वासा ने इन घटनाओं के घटित होने से काफी पूर्व राजा दशरथ को ये सब बातें बता दी थीं।