अंक या संख्या का शब्द एवं क्रिया से घनिष्ठ संबंध है। (0) शून्य निराकार ब्रह्म या अनन्त का प्रतीक है। शून्य से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है एवं शून्य में ही सब कुछ विलीन हो जाता है। यह शून्य सूक्ष्म से सूक्ष्मतर एवं बृहद से बृहदाकार है। हम जब भी अपनी दृष्टि चारों ओर घुमाएंगे तो हमें सब कुछ गोल ही गोल दिखाई देता है। यह गोल ही विष्व है। आकाष, पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि सभी कुछ गोलाकार है। हमारे शरीर में स्थित विभिन्न द्वार भी गोल ही हैं। इसी लिए शून्य की शक्ति सबसे बड़ी है और इस शून्य को हमारे ऋषि-मुनियों ने खोजा, जिसे आज पूरा विष्व मानता है। हम आज कंप्यूटर के युग में पहुँच गये हैं और इस कंप्यूटर का आधार भी हमारा शून्य ही है, जिसे कंप्यूटर की भाषा में डाॅट ख्क्व्ज्, कहा जाता है।
शून्य से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई और सृष्टि एक कहलायी अर्थात इस सृष्टि को संचालित करने वाली कोई एक शक्ति है, जो अदृष्य है एवं विधिपूर्वक इस सृष्टि का संचालन कर रही है। उसे हमने ब्रह्म की संज्ञा प्रदान की। अतः ब्रह्म एक है एवं उसे पुकारने के नाम अनेक हैं। मानव ने जब आँखें खोलीं तो उसे सूर्य एवं चन्द्र दो तारे आकाष में दिखाई दिये। अतः प्रकाषित ग्रह दो ही हैं, तीसरा नहीं है जो नियमित मनुष्य का मार्ग प्रदर्षन करने की क्षमता रखता हो। सूर्य नित्य दिन को उदय होता है। अतः उसे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और एक संख्या का प्रतिनिधित्व मिला।
अंक 1 के स्वामी सूर्य का, आत्मा से संबंध है। यह व्यक्ति या समष्टि की आत्म शक्ति का ज्ञान कराता है। चन्द्रमा ने रात बनायी और दो की संख्या चन्द्रमा की हुई। चन्द्र का भौतिक सुखों से संबंध है। यह मानव को मन की विचार शक्ति प्रदान करता है। सूर्य को पुरुष ग्रह के रूप में स्वीकार किया गया। जिस प्रकार पुरुष एक है एवं द्वितीय नारी है तथा नारी के दो रूप प्रत्यक्ष हैं- एक कन्या रूप, दूसरा पत्नी रूप। दोनों जगह उसकी अलग पहचान है। चन्द्र को स्त्री ग्रह माना गया और चन्द्र की कलाओं की तरह ही नारी की कलाएं हैं। जिस तरह चन्द्र सत्ताईस दिन में सभी नक्षत्रों का भोग करता है उसी तरह नारी भी सत्ताईस दिन के पष्चात शुद्ध होती है।
जब मानव ने आकाष, पृथ्वी एवं जल अथवा समुद्र को देखा तो उसे ब्रह्म की शक्ति का ज्ञान हुआ और 3 की संख्या प्रचलन में आयी। इसीलिए 3 के अंक को विस्तार का अंक माना गया और इसका स्वामित्व गुरु को प्रदान किया गया। गुरु का आत्मा से संबंध है। यह सृष्टि के फैलाव तथा आत्मा के प्रसार व विस्तार के ज्ञान का बोध कराता है। हमारे तीन ही देव हैं जो त्रिषक्ति के अधिष्ठाता हैं। इनमें तीन गुण समाये हुए हैं। सतोगुणी ब्रह्मा, रजोगुणी विष्णु एवं तमोगुणी षिव। इनकी तीन शक्तियाँ उत्पत्ति, पालन एवं संहार हैं अथवा ईच्छा ब्राह्मी शक्ति, क्रिया वैष्णवी शक्ति एवं गौरी शक्ति ज्ञान है। यही चन्द्र, सूर्य एवं अग्नि हैं। बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी यही हैं। बचपन में शरीर चन्द्र कलाओं की तरह विकसित होता है।
जवानी में सूर्य की तरह प्रकाषित एवं वृद्धावस्था में अग्नि की ओर उन्मुख होता है। शरीर में तीन ही प्रमुख नाड़ी इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना हैं। मनुष्य के तीन ही कर्म हैं- संचित, प्रारब्ध एवं आगामी। जब उसने चारां ओर नजर घुमायी तो उसे चार दिषाएं दिखाई दीं, जिससे चार की संख्या उदित हुई। यही चारों दिषाएं हमारे चारों वेदों का, चारों उप वेदों का, चारों तरफ के आदमियों का, अर्थात् चारों वर्णों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसे राहु या हर्षल ग्रह का नाम दिया गया, जो परिवर्तन एवं आक्रामकता का द्योतक है। मानव पर जब भी विपत्ति आती है चारों ओर से ही आती है।
राहु/हर्षल का भौतिक सुखों से संबंध है। यह भौतिक जगत में शरीर को जीवनी शक्ति प्रदान करता है। मनुष्य की जागृत आदि चार अवस्थाएं इससे प्रकट होती हैं। चारों धर्म, चारों तीर्थ इसी संख्या में समाहित हैं। देह चार प्रकार की होती है उद वृक्ष, स्वेदज कृमि कीट, अण्डज सर्प मछली पक्षी एवं जरायुज मनुष्य। अन्नमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय यही हमारे चार कोष हैं जो मानव शरीर में स्थित हैं। इसके बाद मानव जीवन ने अपनी मूलभूत आवष्यकताओं में पाँच तत्वों को पहचाना आकाष, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी इनके गुणों को शब्द, स्पर्ष, रूप, रस एवं गंध को जाना। उसने इनके अलग-अलग पाँच देव निरूपित किये और पाँच के अंक की पहचान हुई। देव विद्या, बुद्धि एवं वाणी के दाता हैं।
अतः पाँच की संख्या का आधिपत्य युवराज बुध को प्रदान किया गया। बुध का संबंध बौद्धिक सुखों से है। यह बुद्धि एवं विवेक का ज्ञान कराता है। पाँच की संख्या हमारी पंच शक्ति, पंच रत्न, सम्मोहनादि पंच वाण, पंच कामदेव, पंच कला, पंच मकार, पंच भूत, पंच ऋचा एवं पंच प्राणों आदि का सृजन करती है। तत्पष्चात मानव रस में लीन हुआ और छह रसायनों - मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त एवं कशाय का ज्ञान प्राप्त किया। यही हमारे छह दर्षन - षिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष अथवा वेदान्त, सांख्य, मीमांसा, वैषेशिक, न्याय एवं तर्क हैं।
हमारे अम्नाय भी छह ही हैं पूर्वाम्नाय, दक्षिणाम्नाय, पष्चिम्नाय, उत्तराम्नाय, उध्र्वाम्नाय एवं अधाम्नाय हैं। वसन्तादि छह ऋतुएं, छह आमोदादि गुण, छह कोष, छह डाकिनी, छह मार्ग, षट्कोण यंत्र एवं छह आधार हैं। छह की संख्या शुक्र ग्रह को प्राप्त हुई। शुक्राचार्य मृतसंजीवनी विद्या से ले कर तंत्र मंत्र एवं चैंसठ कलाओं के जानकार थे, जो शुक्र ग्रह के प्रभाव में दर्षित होता है। शुक्र बौद्धिक सुख प्रदान करता है। इसका मानव की भावना एवं संवेदनाओं पर सीधा असर होता है। समग्र ऐष्वर्य, वीर्य, यष, श्री, ज्ञान और रूप इन्हीं छह गुणों की समष्टि को भग कहते हैं।
शरीर की छह अवस्थाएं भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा-वृद्धावस्था और मृत्यु हैं। पिता के शुक्र से स्नायु, अस्थि, मज्जा एवं माता के रक्त से चमड़ी, मांस, रक्त कुल छह का योग शरीर में रहता है। जब उसने निरन्तर आकाष मण्डल को निहारा तो उसे सप्त ऋषियों के दर्षन हुए, सप्त नदियों को देखा, नदियों की सप्त धाराओं को देखा, संगीत के सात स्वरों को पहचाना और सात के अंक का आविष्कार हुआ। यही हमारे उच्च श्रेणी के सप्त लोक हैं तथा नरक के भी सप्त द्वार हैं। अंक सात का अधिष्ठाता केतु या नेपच्यून ग्रह को माना गया। इसीलिए कुछ ग्रन्थों में केतु को मोक्ष का प्रतीक माना गया है। नेपच्यून बौद्धिक सुख प्रदान करता है।
यह मनुष्य को कल्पना शक्ति प्रदान करता है। सात की संख्या हमारे सात लोक, सात पर्वत, सात द्वीप, सात पाताल, सात समुद्र, सात ग्रह, सात राजा, सप्त ऋषि, सप्त समिधा, अग्नि की सप्त जिह्वा, सूर्य रथ के सात घोड़े, सात रंग एवं सप्त धातुओं का प्रतिनिधित्व करती है। इन सबकी रक्षा हेतु मानव ने अष्ट भैरव, अष्ट सिद्धि, अष्ट पीठ आदि की उपासना की। यही आठ शनि प्रभावित अंक कहलाया, जो सबको या तो कष्ट देता है या कष्ट से मुक्ति देता है। शनि का संबंध भौतिक सुखों से है। शनि के पास शरीर को क्षय करने वाली शक्तियाँ रहतीं हैं। हमारे आठ ही वसु (सर्प), अष्ट माताएं, अष्ट नाड़ी एवं मर्म, अष्ट गंध इत्यादि तथा अष्ट पाष - घृणा, लज्जा, भय, शोक, जुगुप्सा, कुल, शील एवं जाति हैं। इन अष्ट पाषों में जीव बंधा हुआ है और जो इनसे मुक्त है वह सदाषिव है। इसके बाद मानव ने विभिन्न रूपों में नौ देवियों, नौ रत्नों, नौ निधियों, नौ रसों, नौ प्राण, नौ दूतियों एवं नौ कुमारियों को देखा और नवात्मक सभी वर्ग तथा मण्डल इस नौ के अंक से संचालित होते हैं। यह नौ का अंक स्वतंत्र अंक कहलाया और इसका अधिष्ठाता मंगल ग्रह बना। जो ग्रह मण्डल का सेनापति है।
मंगल का आत्मा से संबंध है। यह स्वतंत्र भावना का ज्ञान कराता है। हम किसी भी संख्या को कहीं तक ले जाएं उसका कुल योग नौ से अधिक नहीं हो सकता। वैसे हमारी जितनी भी गणना या ज्यामितीय सूत्र हैं वे सब नौ के अंक पर ही विराम लेते हैं। उदाहरणार्थ कुछ ज्यामितीय सिद्धांत प्रस्तुत हैं : सत युग प्रमाण 1728000 = 9 त्रेता युग प्रमाण 1296000 = 9 द्वापर युग प्रमाण 864000 = 9 कलि युग प्रमाण 432000 = 9 नक्षत्र मास 1809 = 9 एक वर्ष में दिन 360 = 9 भचक्र में अंष 360 = 9 चन्द्र नक्षत्र 27 = 9 नक्षत्र चरण 108 = 9 ग्रह 9 = 9 एक महायुग के सौर मानव वर्ष 4320000 = 9 एक कल्प में सूर्य के भगण 4320000000 = 9 एक कल्प में चन्द्र के भगण 57753333000 = 9 हम मंत्र जपने की माला का प्रयोग करते हैं।
जो 27, 54 या 108 दाने की रहती है। इनका योग भी 9 ही होता है। मनुष्य दिन-रात में कुल 21600 सांसं लेता है, जिसका योग 9 होता है। हमारे शरीर में 72000 नाड़ियां मानी गयी हैं, इनका योग 9 होता है। 18 पुराण एवं 108 उपनिषदों का योग भी 9 होता है।