हिंदू धर्म जितना विशाल है, उसकी मान्यताएं और प्रक्रियाएं भी उतनी ही गहन और विस्तृत हैं। हिंदू धर्म विश्व का एकमात्र ऐसा धर्म है जो कि अपने प्रत्येक कर्म, संस्कार और परंपरा में पूर्ण वैज्ञानिकता समेटे हुए है। स्वस्तिक अत्यंत प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता है। किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु$अस$क से बना है।
‘सु’ का अर्थ है ‘अच्छा’ या ‘मंगल’ करने वाला, ‘अस’ का अर्थ है ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ है ‘कत्र्ता’ या ‘करने वाला’। स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल पुण्य कार्य और सभी दिशाओं में सबका कल्याण करने वाला भी है। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के कल्याण या ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना निहित है। इस प्रकार स्वास्तिक कुशलक्षेम और शुभता का प्रतीक है। स्वस्तिक में एक-दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएं होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएं अपने सिरों पर और थोड़ी आगे की तरफ मुड़ी होती हैं, जिसका अर्थ है कि सृष्टि चलायमान है, समय से परे है।
ऋग्वेद की ऋचा में सूर्य का दूसरा रूप स्वस्तिक को माना गया है और इसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धांत सार ग्रंथ में इसे विश्व-ब्रह्मांड का प्रतीक चित्र माना गया है। स्वस्तिक के मध्य को विष्णु की कल नाभि और चारों भुजाओं को ब्रह्माजी के चार मुख अर्थात चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। स्वस्तिक को चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम, चार धाम एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक आस्था को जीवंत रखने वाले संकेतों से ओत-प्रोत माना गया है।
मानक दर्शन के अनुसार स्वस्तिक दक्षिणोन्मुख (र्दांईं दिशा) से आरंभ होता हुआ वामोन्मुख (उसके विपरीत) घड़ी की सुई जैसा चलने का प्रतीक है। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप स्वस्तिक स्त्री और पुरुष के रूप में भी मान्य है। स्वस्तिक नकारात्मक ऊर्जा समाप्त करके सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करके गृह वास्तु दोष भी समाप्त करता है। इस प्रकार स्वस्तिक महान शुभता का प्रतीक चिह्न है।