संसार में किसी का कुछ नहीं, भौतिक विषयों को व्यर्थ में अपना समझना मूर्खता है, क्योंकि अपना होते हुए भी, कुछ भी अपना नहीं होता। कुछ रुपये दान करने वाला यदि यह कहे कि उसने ऐसा विशेष कार्य किया है, तो उससे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं और ऐसे भी हैं, जो हर महीने लाखों का दान करते हैं, लेकिन उसका जिक्र तक नहीं करते, न करने देते हैं। वास्तव में जरूरतमंद और पीड़ित की सहायता ही दान है, पुण्य है। मनुष्य मात्र पर इसका वश नहीं चलता, देवताओं तक को अभिमान हो जाता है और उनके अभिमान को दूर करने के लिए परमात्मा को ही कोई उपाय करना पड़ता है। श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को स्वर्ग से पारिजात लाकर दिया था। इसीलिए वह अपने आपको श्रीकृष्ण की अत्यंत प्रिया और स्वयं को अति सुंदरी मानने लगी थी। सुदर्शन चक्र को भी यह अभिमान हो गया था कि उसने इंद्र के वज्र को निष्क्रिय किया था। अतः वह लोकालोक के अंधकार को दूर कर सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण अंततः उसकी ही सहायता लेते हैं, ऐसे ही गरुड़ भगवान कृष्ण का वाहन था, वह समझता था, भगवान मेरे बिना कहीं जा ही नहीं सकते, इसीलिए कि मेरी गति का काई मुकाबला नहीं कर सकता। इन तीन दिव्य शक्तियों के अहंकार का नाश परम देव श्री कृष्ण ने राम भक्त हनुमान के सहयोग से किया। अहंकार अंतःकरण की वह स्वार्थपूर्ण वृत्ति जिससे मनुष्य समझता है कि मैं कुछ हूं या कुछ करता हूं। मन में रहने वाला ‘‘मैं’’ और ‘मेरा’ का मान ही अहंकार है। अहंकार का शब्दार्थ इस प्रकार है- अहं$कार = अहंकार = ‘‘मैं’’ का होना अहंकार किसी को भी हो सकता है। एक बार सत्यभामा, गरुड़, तथा सुदर्शन चक्र को भी अभिमान हो गया था और भगवान श्री कृष्ण ने उनके अभिमान को दूर करने के लिए श्री हनुमान जी की सहायता ली। कथा को आगे बढ़ाने से पूर्व आईये जानें की सत्यभामा कौन थी? सत्यभामा पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण की पुत्री थी। युवावस्था में ही एक दिन इनके पति और पिता को एक राक्षस ने मार दिया।
कुछ दिनों तक ब्राह्मण की पुत्री रोती रही। इसके बाद उसने स्वयं को विष्णु भगवान की भक्ति में समर्पित कर दिया। वह सभी एकादशी का व्रत रखती और कार्तिक मास में नियम पूर्वक सूर्योदय से पूर्व स्नान करके भगवान विष्णु और तुलसी की पूजा करती थी। बुढ़ापा आने पर एक दिन जब ब्राह्मण की पुत्री ने कार्तिक स्नान के लिए गंगा में डुबकी लगायी तब वह बुखार से कांपने लगी और गंगा तट पर ही उसकी मृत्यु हो गयी। उसी समय विष्णु लोक से एक विमान आया और ब्राह्मण की पुत्री का दिव्य शरीर विमान में बैठकर विष्णु लोक पहुंच गया। जब भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार लिया तब ब्राह्मण की इसी पुत्री ने सत्यभामा के रूप में जन्म लिया और रूक्मिणी और सत्यभामा भगवान विष्णु की पटरानी हुई। देवी-देवताओं को किस प्रकार अहंकार हुआ इस संदर्भ में भागवत में एक रोचक प्रसंग है। इस विषय में कृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन विचार आया कि वे कृष्ण पर अपने प्रेम का इजहार करें।
लेकिन कैसे करें? तो उन्होंने सोचा कि वे अपने सारे आभूषण कृष्ण पर चढ़ा देंगी, न्यौछावर कर देंगी। उन्हें अपने गहनों से ही तोल देंगी। कृष्ण जब सत्यभामा के कक्ष में आए तो सत्यभामा ने बड़े ही उल्लास से उन्हें अपनी यह ईच्छा बताई। कृष्ण प्रस्ताव सुनकर धीरे से मुस्कुराए, पर कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद सत्यभामा ने कृष्ण को तराजू के एक पलड़े पर बिठा दिया तथा दूसरे पलड़े पर अपने गहने निकाल-निकाल कर रखने लगीं। उनके पास सोने के आभूषणों का विपुल भंडार था। इसीलिए सोचा कि कृष्ण के वजन के बराबर गहने तो हो ही जाएंगे। लेकिन आश्चर्य, कृष्ण का पलड़ा लगातार गहने रखने के बावजूद भारी ही रहा। और खजाने के सारे गहने रखने के बाद भी दूसरी ओर का पलड़ा झुकाया नहीं जा सका। अंत में वह थक कर बैठ गईं। इसी दौरान वहां रूक्मिणी आ गई। उन्होंने आयोजन देखा तो पूछा, क्या तोल रही हो सत्यभामा? सत्यभामा उन्हें पूरा किस्सा सुना कर बोलीं कि वे हैरान हैं कि कृष्ण का पलड़ा इतने सारे वजनी गहने रखने के बाद भी ऊपर क्यों नहीं उठ रहा है।
सुनकर रूक्मिणी भी मुस्कराईं। वे जाकर अपने कक्ष से पूजा-अर्चना का सामान लाईं। फिर बड़े प्रेम से कृष्ण की पूजा की, चरण पखारे और फिर अपने पत्र-पुष्प आदि गहनों वाले पलड़े पर रख दिए। उसी क्षण कृष्ण का पलड़ा हल्का हो कर ऊपर उठ गया। ढेर सारे गहनों से जो बात नहीं बनी, वह प्रेम और पूजा के कुछ पुष्पों से बन गई। ईश्वर आपकी संपन्नता से प्रभावित नहीं होता, वह प्रेम से प्रभावित हो सकता है। भगवान अपने भक्तों का सदैव कल्याण करते हैं और अपने भक्तों को सद्मार्ग पर लाने के लिए कई युक्तियां भी करते हैं, इसी श्रेणी में अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने हेतु श्रीकृष्ण जी ने हनुमान जी का स्मरण किया, और हनुमान द्वारिका आ गए। हनुमान जी श्री कृष्ण के स्मरण मात्र से ही समझ गए थे की भगवान् क्या चाहते हैं। हनुमान जी यह भी जानते थे की श्रीकृष्ण और श्रीराम दोनों एक ही हैं, दोनों में कोई अंतर नहीं है। श्रीकृष्ण के कार्य को पूर्ण करने हेतु, हनुमान जी द्वारिका के राज उद्यान में चले गए।
वहां जाकर उत्पात मचाना आरंभ किया। वृक्षों पर लगे फल तोड़ने लगे, वृक्षों को उखाड़ने लगे, बाग वीरान कर दिया। बाग की इस स्थिति की सूचना रक्षकों ने श्री कृष्ण को दी। श्रीकृष्ण ने गरुड़ को बुलाया और वानर को पकड कर अपने सम्मुख लाने का आदेश दिया। अपने साथ सेना ले जाने का विशेष आदेश भी दिया। इस पर गरुड़ ने कहा, एक मामूली वानर को पकड़ने के लिए सेना ले जाने की क्या जरूरत है? यह कार्य तो मैं अकेला ही कर सकता हूं, श्री कृष्ण जी मुस्कुराये और कहा कि ठीक है जैसा तुम चाहो करो, पर उसे जाकर रोको। आदेश पाकर गरुड़ बाग में पहुंचे और हनुमान को ललकारा, बाग क्यों उजाड़ रहे हो? चलो? तुम्हें श्रीकृष्ण बुला रहे हैं।’’ हनुमान जी ने कहा, मैं किसी कृष्ण को नहीं जानता। मैं तो श्रीराम का सेवक हूं। जाओ, कह दो, मैं नहीं आऊंगा।’’ गरुड़ क्रोधित होकर बोला, तुम नहीं चलोगे तो मैं तुम्हें पकड़कर ले जाऊंगा।’’ हनुमान जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। गरुड़ की अनदेखी कर वह फल तोड़ते रहे।
गरुड़ को समझाया भी, ‘‘वानर का काम फल तोड़ना और फेंकना है, मैं अपने स्वभाव के अनुसार ही कर रहा हूं। मेरे काम में दखल न दो। क्यों झगड़ा मोल लेते हो, जाओ मुझे आराम से फल खाने दो।’’ गरुड़ नहीं माना, तब हनुमान जी ने अपनी पूंछ बढ़ाई और गरुड़ को दबोच लिया। उसका घमंड दूर करने के लिए कभी पूंछ को ढीला कर देते, गरुड़ कुछ सांस लेता, और जब कसते तो गरुड़ के मानो प्राण ही निकल रहे हों। हनुमान जी ने सोचा भगवान का वाहन है, प्रहार भी नहीं कर सकता। लेकिन इसे सबक तो सिखाना ही होगा। पूंछ को एक झटका दिया और गरुड़ को दूर समुद्र में फेंक दिया। बड़ी मुश्किल से वह गरुड़ दरबार में पहुंचा। भगवान को बताया, वह कोई साधारण वानर नहीं है। मैं उसे पकड़कर नहीं ला सकता। भगवान मुस्करा दिए- सोचा गरुड़ का घमंड तो दूर हो गया। लेकिन अभी इसके वेग के घमंड को चूर करना है। श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘गरुड़, हनुमान श्रीराम जी का भक्त है, इसीलिए नहीं आया।
यदि तुम कहते कि श्रीराम ने बुलाया है, तो फौरन भागे चले आते। हनुमान अब मलय पर्वत पर चले गए हैं। तुम तेजी से जाओ और उससे कहना, श्रीराम ने उन्हें बुलाया है। तुम तेज उड़ सकते हो, तुम्हारी गति बहुत है, उसे साथ ही ले आना।’’ गरुड़ वेग से उड़े, मलय पर्वत पर पहुंचे। हनुमान जी से क्षमा मांगी। कहा भी, श्रीराम ने आपको याद किया है, अभी आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें अपनी पीठ पर बिठाकर मिनटों में द्वारिका ले जाऊंगा तुम खुद चलोगे तो देर हो जाएगी। मेरी गति बहुत तेज है। तुम मुकाबला नहीं कर सकते। हनुमान जी मुस्कराए। भगवान की लीला समझ गए। कहा, तुम जाओ, मैं तुम्हारे पीछे ही आ रहा हूं। द्वारिका में श्रीकृष्ण राम रूप धारण कर सत्यभामा को सीता बना सिंहासन पर बैठ गए। सुदर्शन चक्र को आदेश दिया। द्वार पर रहना, कोई बिना आज्ञा अंदर न आने पाए, श्रीकृष्ण समझते थे कि श्रीराम का संदेश सुनकर तो हनुमान जी एक पल भी रूक नहीं सकते। अभी आते ही होंगे। गरुड़ को तो हनुमान जी ने विदा कर दिया और स्वयं उससे भी तीव्र गति से उड़कर गरुड़ से पहले ही द्वारिका पहुंच गए।
दरबार के द्वार पर सुदर्शन ने उन्हें रोक कर कहा, बिना आज्ञा अंदर जाने की मनाही है। जब श्रीराम बुला रहे हों तो हनुमान जी विलंब सहन नहीं कर सकते। सुदर्शन को पकड़ा और मुंह में दबा लिया। अंदर गए, सिंहासन पर श्रीराम और सीता जी बैठे थे। हनुमान जी समझ गए। श्रीराम को प्रणाम किया और कहा, प्रभु, आने में देर तो नहीं हुई?’’ साथ ही कहा, प्रभु मां कहां है? आपके पास आज यह कौन दासी बैठी है? सत्यभामा ने सुना तो लज्जित हुई, क्योंकि वह समझती थी कि कृष्ण द्वारा पारिजात लाकर दिए जाने से वह सबसे सुंदर स्त्री बन गई है। सत्यभामा का घमंड चूर हो गया। उसी समय गरुड़ तेज गति से उड़ने के कारण हांफते हुए दरबार में पहुंचा। सांस फूल रही थी, थके हुए से लग रहे थे और हनुमान जी को दरबार में देखकर तो वह चकित हो गए। मेरी गति से भी तेज गति से हनुमान जी दरबार में पहुंच गए? लज्जा से पानी-पानी हो गए। गरुड़ के बल का और तेज गति से उड़ने का घमंड चूर हो गया।
श्रीराम ने पूछा, ‘‘हनुमान ! तुम अंदर कैसे आ गए? किसी ने रोका नहीं?’’ ‘‘रोका था भगवन, सुदर्शन ने। मैंने सोचा आपके दर्शनों में विलंब होगा। इसलिए उनसे उलझा नहीं, उसे मैंने अपने मुंह में दबा लिया था।’’ और यह कहकर हनुमान जी ने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के चरणों में डाल दिया। तीनों के घमंड चूर हो गए। श्रीकृष्ण यही चाहते थे। श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को गले लगाया, हृदय से हृदय की बात हुई और उन्हें विदा कर दिया। परमात्मा अपने भक्तों में अपने निकटस्थों में अभिमान रहने नहीं देते। श्रीकृष्ण सत्यभामा, गरुड़ और सुदर्शन चक्र का घमंड दूर न करते तो परमात्मा के निकट रह नहीं सकते थे और परमात्मा के निकट वह हो सकता है जो ‘मैं’ और ‘मेरी’ से रहित है। जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं। सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माहि।।