फाइब्रो का अर्थ है रेषेदार ऊतक, मायो का अर्थ है मांस-पेषियां और एलजोस का अर्थ है दर्द! अतः मांस पेशियों में दर्द पिइतवउलंसहपं कहलाता है। इस रोग में रोगी के सम्पूर्ण शरीर में दर्द रहता है। कभी दर्द की उग्रता तेज हो जाती है तो कभी मन्द, यह दर्द भड़कन व दबाव युक्त होता है। इस दर्द में जकड़न व अकड़न नहीं होती है अपितु दर्द भयानक होता है जो ऐसा प्रतीत होता है कि मांस के अन्दर हड्डी के ऊपर हो रहा है। इस रोग का स्पष्ट कारण तो नहीं पता है परन्तु यह रोग मस्तिष्कीय विसंगति व जीनीय गुणसूत्रों में परिवर्तन के कारण पैदा होता है। मस्तिष्कीय विसंगति तनाव, हार्मोन का असंतुलन, असामान्य दिनचर्या, दवाओं का कुप्रभाव, श्रम का अभाव। जीनीय परिवर्तन लम्बे समय तक गंभीर तनाव, पारिवारिक पृष्ठभूमि, अचानक आये उपापचीय परिवर्तन, कृत्रिम व रासायनिक खाद्य पदार्थ, प्रकृति से दूरी, संयोजी ऊतक मूलतः सपोर्टिंग ऊतकों का काम करते हैं।
ये शरीर के प्रत्येक अंगांे को आपस में जोड़ते हैं व परस्पर सहारा देते हैं। इस ऊतक में विषेष चिकना पदार्थ (कोलाएडलीय) होता है जो मांसपेषियांे को लोच व बाहर के धक्कों को सहने की क्षमता प्रदान करता है। हड्डियों और उपास्थियों के खोल तथा रक्तवाहिनियों, कोषिकाओं, पेषियांें आदि का आवरण भी यही बनाते हैं।
ये ऊतक सीधे तौर पर केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से जुडे़ रहते हैं जो केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के आदेषानुसार कार्य करते रहते हैं। जब वृद्धि हार्मोन, सेरोटोनिन हार्मोन व कार्टिंसोल हार्मोन सही व नियन्त्रित मात्रा में स्रावित होते रहते हैं तो संयोजी ऊतक में पाया जाने वाला चिकना पदार्थ यथावत बना रहता है। जब मस्तिष्क द्वारा इन हार्मोनों के स्राव में कमी आती है तो संयोजी ऊतकों में दर्द व धड़कन बढ़ने लगती है फलस्वरूप दर्द की तीव्रता बढ़ती जाती है सेरोटोनिन हार्मोन तनाव, डिप्रेषन, काम का दबाव, सेक्स में अरूचि, हमेषा दुख में रहना, चिडचिड़ापन, क्रोध, अनिद्रा आदि स्थिति में स्रावित नहीं हो पाता है।
कार्टिसोल यह एक प्राकृतिक स्टेराॅयड हार्मोन है जो कि स्टेराॅयड, एन्टीबायोटिक व न्यूमिसिलाइड के प्रयोग से कम स्रावित होता है। इसका कम स्राव शरीर में कैल्षियम व विटामिन डी की कमी पैदा करता है। वृद्धि हार्मोन इस हार्मोन की कमी अन्य ग्रन्थियों के हार्मोन के स्राव पर प्रभाव डालकर उपापचीय दर व रोग प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट करती है। जहां तक फाइब्रोमलेजिया के उपचार की बात है तो अब तक अनुसंध् ाानों से साफ हो चुका है कि रोगी की दिनचर्या व लाइफ स्टाइल को बदलकर रोग पर 70 प्रतिशत तक काबू पाया जा सकता है।
इस रोग में व्यायाम, आहार व वैकल्पिक उपचारों के द्वारा रोग पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है, इस रोग में महत्वपूर्ण उपचार निम्न हैं:
1. धूपस्नान इस रोग में रोगी को ऐसे वाक्स में इस प्रकार बिठाया जाये कि उसके पिछले हिस्से को ग्रीन रंग के शीशे व आगे के हिस्से को लाल रंग के शीशे की धूप मिले और रोगी तब तक लेे, जब तक की उसे पसीना न आ जाये। सूर्य में उपस्थित लाल व हरे रंग की किरणें संयोजी ऊतक के बिखराव को रोककर उनमें कसाव बनाती है व शरीर में विटामिन डी व कैल्षियम की पूर्ति करती है। शरीर को इस प्रकार सीधे तौर पर विटामिन डी प्राप्त होता है ।
2. मालिश इस रोग में रोगी को स्पंज मालिष बड़ा फायदा पहुंचाती है। शंख पुष्पी, जैतून, रोहणी, अकेर का तेल संयोजी ऊतकों को पोषण प्रदान करता है व संयोजी ऊतक लचीले व दर्द सहने लायक बनते हैं।
3. आहार इस रोग में सूर्य द्वारा तैयार आहार सर्वश्रेष्ठ है। यदि सूर्य का आहार उपलब्ध न हो पाये तो विटामिन E, A, K , Ca युक्त आहार जिसमें मूंगफली, काजू,पिस्ता, केला, चीकू बेहतर है। माह में तीन दिन दूध कल्प इस रोग में विषेष लाभकारी है। दूध कल्प खट्टे फलों के साथ लेने पर अच्छा लाभ देता है। रोगी को अपने आहार में ऐसे भोज्य पदार्थों को शामिल करना होगा जो प्राकृतिक व सुपाच्य हों ।
4. व्यायाम इस रोग के रोगी को नित्य प्रतिदिन अपना आॅक्सीजन अनुपात बढ़ाने एवं अंगों को क्रियाषील रखने के लिये सूक्ष्म यौगिक व्यायाम बेहद लाभकारी है। सूक्ष्म यौगिक व्यायाम धीरे-ध् ाीरे शुरू करके बढ़ाये जा सकते हैं। नाड़ीषोधन, सूर्यभेदी, भ्रामरी प्राणायाम फेफड़ों की कार्य क्षमता बढ़ाते हैं।
यदि रोगी नित्य प्रतिदिन 30 मिनट योगनिद्रा व अनापान ध्यान करता है तो रोगी को हार्मोनों के संतुलन को बनाये रखने में मदद मिलेगी व तनाव से मुक्ति होगी। योग, निद्रा व ध्यान सेरोटोनिन के स्राव को बढ़ाकर रोगी को आभास दिलाता है कि रोग ठीक हो सकता है और साथ ही यह आत्म विष्वास में भी वृद्धि करता है।