प्रेम-विवाह और ज्योतिषीय ग्रह योग
प्रेम-विवाह और ज्योतिषीय ग्रह योग

प्रेम-विवाह और ज्योतिषीय ग्रह योग  

राजीव रंजन
व्यूस : 9196 | मई 2013

‘प्रेम-विवाह’ एक ऐसा शब्द है जो अपने अंदर कई भावनाओं को समेटे हुए है। जहां अभिभावकों के लिए यह चिंता, आशंका, क्रोध, संशय आदि का कारण बनता है, वहीं नवयुवक तथा नवयुवतियों के लिए यह संतोष, आशा एवं सुखद भविष्य की कल्पना को ऊंची उड़ान देता है। भारतीय संस्कृति के प्रारंभिक काल से ही यह विवाह अस्तित्व में था और यह ‘गन्धर्व विवाह’ के नाम से जाना जाता था। इस प्रकार के विवाह में राग, स्नेह तथा प्रेमाधिक्य के कारण युवक तथा युवतियां सामाजिक मान्यताओं तथा अभिभावकों की ईच्छा-अनिच्छा की परवाह न करते हुए विवाह बंधन में बंध जाते हैं। महर्षि वेदव्यास ने ऐसे विवाह को श्रेष्ठ कहा है- ‘‘सकामायाः सकामेन निर्मन्त्रः श्रेष्ठ उच्यते’’ जातक द्वारा किये जाने वाले इस प्रकार के विवाह हेतु जन्मकुंडली में विद्यमान विभिन्न ग्रहयोग ही उत्तरदायी होते हैं। यह प्रेम-विवाह स्वजाति, अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक हो सकता है। जन्मांग में ऐसे कई कारक होते हैं, जो ऐसी परिस्थितियों के उत्पन्न होने में निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।

कुंडली के विभिन्न भाव तथा भावेश प्रेम विवाह के दृष्टिकोण से जन्मांग के पंचम, सप्तम, नवम तथा लग्न भाव के साथ-साथ तृतीय भाव भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। जहां पंचम भाव व्यक्ति के प्रेम संबंधों, कोमल भावनाओं, मैत्री, संकल्प, साहस, योजना आदि के सामथ्र्य के साथ-साथ विचारों को साकार रूप देने को प्रभावित करता है। वहीं सप्तम भाव जीवन-साथी, विवाह, संयोग, यौन-लिप्सा, दांपत्य सुख आदि पर नियंत्रण रखता है। इस प्रकार के विवाह हेतु व्यक्ति में अत्यधिक उत्साह, पराक्रम तथा साहस की आवश्यकता होती है अतः तृतीय भाव का भी सूक्ष्म विश्लेषण आवश्यक है। प्रेम विवाह की प्रकृति अर्थात् स्वजाति, अंतर्जातीय, अथवा अंतधार्मिक विवाह के निर्धारण हेतु नवम भाव पर विचार करना चाहिए। यह भाव जातक का अपने पैतृक वंश के साथ संबंध का निर्धारण करता है।

फलादेश के संदर्भ में लग्न भाव सदैव ही निर्णायक भूमिका में रहता है, अतः उपरोक्त भावों के साथ-साथ लग्न भाव ऐसे विवाह की संभावना को क्षीण अथवा प्रबल करने का सामथ्र्य रखता है। ग्रह - इस संदर्भ में शुक्र, मंगल, बृहस्पति तथा चंद्रमा सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं जबकि शनि तथा राहु प्रेम-विवाह के भविष्य तथा विलंब आदि का निर्धारण करते हैं। शुक्र जहां व्यक्ति को रोमांटिक स्वभाव वाला बनाता है, वहीं सौंदर्य, कोमल भावनाओं, रतिसुख, विलासिता आदि का भी कारक है।

मंगल की स्थिति जातक के साहस तथा धैर्य के बलाबल को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। बृहस्पति इस विवाह की स्वीकार्यता तथा प्रकृति का निर्धारण करता है। चंद्रमा मन का कारक है अतः इन ग्रहों के साथ चंद्र का संबंध प्रेम-विवाह की संभावना को पुष्ट करता है। प्रेम विवाह के विभिन्न ग्रहयोग - नवमेश, पंचमेश तथा सप्तमेश जन्मांग में एक साथ स्थित हों। - सप्तमेश तथा पंचम भाव के अधिपति का लग्नेश के साथ युति संबंध हो। - जन्मांग में मंगल और शुक्र साथ हों और उस पर पंचमेश तथा चंद्रमा की दृष्टि हो। - शुक्र का संबंध यदि लग्न, पंचम अथवा सप्तम भाव से हो तो भी प्रेम-विवाह होता है। - शुक्र तथा चंद्रमा लग्न भाव में हों तथा उनसे राहु अथवा केतु किसी भी प्रकार संबंध बना रहे हों। - सप्तमेश तथा पंचमेश के मध्य दृष्टि संबंध हो अथवा दोनों के मध्य राशि परिवर्तन हो। - अष्टमेश यदि सप्तम भाव में निर्बल चंद्र के साथ हो तो अभिभावकों की अनिच्छा से या गुप्त रूप से विवाह होता है। - शुक्र चर राशियों (मेष, कर्क, तुला, मकर) में हो तथा पाप ग्रहों से घिरा हो, साथ ही इस पर शनि दृष्टिपात कर रहा हो तो अंतर्जातीय विवाह के योग बनते हैं। - चतुर्थेश तथा लग्नभाव के अधिपति एक साथ हों तथा उसे राहु प्रभावित कर रहा हो तो अंतर्धार्मिक विवाह होता है।

- बृहस्पति तथा शुक्र सप्तम भाव में स्थित हों तो समान जाति में प्रेम विवाह होता है। - नीचस्थ सूर्य (तुला का), पाप प्रभाव से युक्त चंद्रमा, कर्क का शुक्र तथा इन पर राहु का प्रभाव अंतर्जातीय विवाह दर्शाता है। - पंचमेश तथा पंचम भाव पाप प्रभाव में हो तथा क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो तो भी अंतर्जातीय विवाह। - नवम भाव अथवा नवमेश का शनि, मंगल अथवा राहु-केतु के साथ संबंध हो तो अंतर्धार्मिक विवाह होगा। - शुक्र तथा चंद्र की युति पंचम भाव में हो। - बृहस्पति केतु के साथ पंचम या नवम भाव में हो। - पंचम भाव का स्वामी मंगल तथा शनि के साथ हो तथा सप्तमेश द्वितीय अथवा एकादश भाव में हो। - राहु तथा शनि शुक्र के साथ हों अथवा दृष्ट हों तो वासनाधिक्य के कारण विवाह होता है। - सप्तम भाव में शुक्र और मंगल की युति हो और इस पर पंचमेश की दृष्टि हो तो अमर्यादित संबंधों के दबाव में विवाह होता है।

- जन्मांग में प्रेम विवाह के योग उपस्थित हों और नवम भाव अथवा नवमेश पाप-पीड़ित हों तो अलग जाति में विवाह होता है। - क्रूर ग्रहों से युक्त नवम भाव और नवमेश तथा बृहस्पति का पापकर्तरी में होना अन्य धर्म में विवाह कराता है। - सप्तम भाव, सप्तमेश तथा शुक्र यदि शनि व राहु से पीड़ित हों तो अनेक प्रेम संबंधों के बाद प्रेम विवाह होता है। - प्रेम-विवाह संबंधी ग्रहयोगों की जन्मांग में उपस्थिति हो और नवम भाव बृहस्पति द्वारा दृष्ट या युत हो तो माता-पिता की सहमति से प्रेम-विवाह होता है। - नवमेश तथा नवम भाव शनि से आक्रांत हो या नवम भाव पापकत्र्तरी योग से ग्रस्त हो तो अंतर्जातीय विवाह।

- नवम भाव पापक्रांत हो, परंतु नवमेश या नवम भाव पर गुरु या शुक्र की दृष्टि हो और ये शुभ ग्रह स्वयं पाप प्रभाव में न हों तो विवाह स्वयं से उच्च जाति में होता है। - जन्मांग में प्रेम विवाह के योग उपस्थित हों तथा नवम भाव राहु अथवा शनि से युत या दृष्ट हों तो अंतर्धार्मिक विवाह होगा। - पुरूष के जन्मांग का शुक्र तथा स्त्री की जन्मकुंडली में मंगल एक ही राशि में स्थित हों तो प्रेम-विवाह के बाद भी परस्पर अक्षुण्ण प्रेम रहता है। - प्रेम विवाह के योगों पर चंद्रमा तथा लग्नेश की दृष्टि प्रेम विवाह की संभावना को अत्यधिक प्रबल बना देती है। - नवम भाव पर निर्दोष गुरु की दृष्टि हो तो प्रेम-विवाह माता-पिता की अनुमति से धूम-धाम से होता है, बशर्तें जन्मांग में प्रेम-विवाह योग उपस्थित हों।

- यदि नवम भाव, नवमेश और बृहस्पति क्रूर ग्रहों शनि, राहु, केतु अथवा सूर्य के पाप प्रभाव में हो तो अपने से निम्न जाति में विवाह होता है। - प्रेम विवाह के योगों पर द्वितीय भाव तथा द्वितीयेश का संबंध निकट संबंधियों या पूर्व-परिचित से विवाह का योग बनाता है। - पंचम अथवा सप्तम भाव में स्थित केतु यदि प्रेम-विवाह के ग्रहयोगों से किसी भी प्रकार का संबंध रखे तो प्रेम-विवाह गुप्त तरीके से (मंदिर, कोर्ट आदि में) होता है। - सप्तमेश शनि से युक्त अथवा दृष्ट हो तो प्रेम-विवाह में बाधा तथा विलंब का योग बनता है। - पंचमेश द्वादश भाव में हो तो प्रेम विवाह के योग बनते हैं।

समाधान: लग्न, पंचम, सप्तम व नवम भाव के अधिपतियों के साथ-साथ गुरु, शुक्र तथा चंद्रविषयक यथोचित उपाय इन परिस्थितियों को नियंत्रित कर सकते हैं। वहीं बृहस्पति को पुष्ट करना इन संबंधों के सुखद भविष्य के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। इस संदर्भ में योग्य दैवज्ञ से परामर्श अनिवार्य होता है।



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