पराशर के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु का स्वरूप भी उसके पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही निर्धारित होता है। मृत्योपरांत शरीर नष्ट होकर पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है लेकिन शरीर में संरक्षित शक्ति नष्ट नहीं होती। यह कर्मानुसार पुनर्जन्म को प्राप्त करती है या अति श्रेष्ठ कर्मों के फलस्वरूप परमात्मा में विलीन हो जाती है।
मृत्यु के बाद क्या?
इस प्रश्न के समाधान हेतु विभिन्न धर्मों के शास्त्रीय ग्रन्थों में जो विवेचन है उससे अधिक रोचक वे अनुभव हैं जो लोगों ने उस समय महसूस किये जब उनकी अचानक से मृत्यु हो गयी। चिकित्सकों ने भी उन्हें मृत घोषित कर दिया परन्तु ये लोग कुछ मिनट या घण्टों के बाद पुनर्जीवित हो गये और उन्होंने मृत्यु के बाद के अनुभवों को साझा किया। इन सभी लोगों के अनुभवों में बहुत सी बातें समान पायी गयीं। इस प्रकार के अनुभवों को नीयर डेथ एक्सपीरियेंस (NDE) अर्थात् मृत्यु के समीप का अनुभव कहा जाता है। ऐसा अनुभव प्राप्त करने वाले लोगों के कुछ समान अनुभव हैं -
ऐसा महसूस होना कि मेरी मृत्यु हो गयी है। पूर्ण शांति का अनुभव, तकलीफों का अन्त, सकारात्मक भावनाएं, संसार से अलगाव होने का अनुभव। अपने शरीर से बाहर निकलकर यह देखना कि यह मेरा मृत शरीर पड़ा है। एक सुरंग से अंदर जाना, सीढ़ियां चढ़ना या एक अंधेरे में प्रवेश करना। तेजी से एक दैदीप्यमान रोशनी में आप्लावित हो जाना जो मानव से संवाद करती है।
बिना किसी शर्त के प्रेम की तीव्र अनुभूति व स्वीकृति। रोशनी से बने श्वेत वस्त्रधारी जातकों से सामना। संभवतः जातक के मृत प्रेमीजन व पूर्वज/पितृ आदि। अपने जीवन वृŸाांत का चलचित्र देखना। मानव जीवन के उद्देश्य व ब्रह्माण्ड की प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करना। एक ऐसी सीमा रेखा पर पहंुच जाना जहां से मानव शरीर में वापस लौटने के स्वयं के निर्णय करने की स्थिति पर आप खड़े होते हैं।
उसके कुछ क्षण बाद ही वापस लौटने की इच्छा समाप्त होने लगती है। अचानक से अपने आपको अपने शरीर के अन्दर पुनः वापस आया महसूस करना। इस अनुभव में सभी को 5 निम्नांकित अवस्थाएं अवश्य ही महसूस होती हैं- शान्ति, शरीर से अलग हो जाना, अंधेरे में प्रवेश करना, रोशनी को देखना, रोशनी में प्रवेश करना।
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मृत्यु के समीप का अनुभव होते समय मानव की समस्त चेतना शक्ति मानो मस्तिष्क से निकलकर बाहर आ जाती है और उस आध्यात्मिक क्षेत्र पर दृष्टिपात करती है जहां मानव की आत्मा मृत्यु के बाद प्रवेश करती है। (NDE) नामक अनुभव अक्सर क्लीनिकल डेथ के समय (EEG)के फ्लेट हो जाने पर महसूस किया जाता है।
मेन स्ट्रीम न्यूरो साइन्स के अनुसार उस समय मानव मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर देता है, जिसे ब्रेन डेथ कहते हैं। बहुत से लोगों के बहुत से अनुभव हैं जो यह सत्यापित करते हैं कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है अपितु मृत्यु के बाद भी जीवन है। जीवन के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जीवन यह परम सत्य है। यही भगवद्गीता का भी ज्ञान है जिसमें यह कहा गया है कि आत्मा अजर-अमर है। यह न पैदा होती है और न मरती है।
मृत्यु के बाद इंसान कहां जाता है?
मृत्यु के पश्चात् इंसान या तो स्वर्ग जाता है, मोक्ष प्राप्त करता है, नरक जाता है, पुनर्जन्म लेता है या प्रेत योनि प्राप्त करता है। मृत्यु के पश्चात् जीव की गति उसके कर्मों पर निर्भर करती है। ईश्वर की साधना में तल्लीन योगी मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
सत्वगुण प्रधान व्यक्ति मृत्योपरांत उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है एवं बहुत समय पश्चात् योगी आदि के श्रेष्ठ कुल में जन्म लेता है। रजोगुणी व्यक्ति मरणोपरांत कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है और बार-बार जन्म लेता रहता है। तमोगुणी मनुष्य मृत्यु के बाद कीट, पशु आदि 84 लाख अधम योनियों में उत्पन्न होता है। संसार से बहुत अधिक आसक्ति हो तो यह प्रेत योनि में प्रवेश करता है।
मृत्यु के बाद आत्मा यम की अदालत में पेश होती है। यमलोक से आत्मा को वापस आने में दस दिन का समय लग जाता है। इसलिए कुछ धर्म क्रियाएं दसवें, ग्यारहवें, बारहवें व तेरहवें दिनों में की जाती हैं। आत्मा यह देखने के लिए कि परिजन क्या कर रहे हैं, इधर उधर मंडराती रहती है। तत्पश्चात् आत्मा यम द्वारा निर्धारित लोक को चली जाती है। एक वर्ष के उपरांत अन्य धर्मक्रियाएं की जाती हैं तत्पश्चात् आत्मा पितृ संज्ञा प्राप्त करती है।
प्रत्येक जातक के परिवार में उससे पहले मृत्यु को प्राप्त होने वाले समस्त जन उस जातक के पितृ कहलाते हैं। अच्छे कर्म करने वाले अच्छे व बुरे कर्म करने वाले बुरे पितृ अपने-अपने पुण्यों के प्रभावानुसार जातक के परिवार की पीढ़ियों को प्रभावित करते हैं। मरणोपरान्त जिस आत्मा की सद्गति नहीं हो पाती तथा जो पुनर्जन्म, नरक, स्वर्ग अथवा मोक्ष के द्वार पर प्रवेश नहीं कर पाती वह बीच में ही लटक कर प्रेत योनि में प्रवेश करती है और ऐसी आत्मा पितृ दोष का कारण बनती है।
सूरदास जी के अनुसार -
‘कोई भी व्यक्ति यदि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से पवित्र होकर आज्ञाचक्र में दोनांे भौंहों के मध्य दृष्टि केंद्रित करके आधा घंटा ध्यान करे तथा फिर संपुटित महामृत्युंजय मंत्र का ध्यानपूर्वक जप एक वर्ष नियमित रूप से करे तो भयंकर से भयंकर रोग तो दूर हो ही जाते हैं, पूर्वजन्म भी दिख जाता है और मानव की ऋतंभरा प्रज्ञा जागृत हो जाती है।
शंकराचार्य (अद्वैत वेदांत प्रवर्तक) के अनुसार व्यक्ति जब तक अज्ञानवश यह सोचता है कि आत्मा ब्रह्म से भिन्न है, तब तक वह पुनर्जन्म के चक्कर में फंसा रहता है। इस प्रकार, माया के वशीभूत होकर व्यक्ति बार-बार जन्म मरण के चक्कर में घूमता रहता है। रामानुज (विशिष्ट द्वैत के प्रवर्तक) का कहना है कि जीव सुख भोगने की कामना से इतना प्रभावित रहता है कि उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है। व्यक्ति की सुख की इच्छाएं इस जीवन में पूर्ण नहीं हो सकतीं, इसलिए उसे अन्य जन्म धारण करना पड़ता है।
ज्योतिषीय भाषा में पुनर्जन्म को प्रारब्ध कहते हैं। प्रारब्ध पिछले जन्म में किए गए कर्मों द्वारा बने संस्कारों का कैसेट होता है जो आत्मा में निहित रहता है। कुछ बच्चे जन्म से ही बहुत ज्ञानी होते हैं। उस वक्त शरीर सक्षम नहीं होता, परंतु आत्मा अपनी भूमिका का पिछले जन्म के अनुरूप निर्वाह करती है।
इससे सिद्ध होता है कि पिछले संस्कारों को ही पुनः दोहराया जाता है। सूक्ष्म शरीर, जिसमें इंद्रियों की शक्तियां और मन रहते हैं, मृत्यु के बाद भी शेष रहता है, जीवात्मा इसे एक शरीर से दूसरे शरीर में ऐसे ले जाती है जैसे वायु सुगंध को ले जाती है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो , न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
अर्थात्
आत्मा न कभी पैदा होती है न मरती है और न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली ही है क्योंकि
यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती।
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