गौ सर्वोत्तम माता गाय को सुरभि, कामधेनु, अच्र्या, यज्ञपदी, कल्याणी, इज्या, बहुला, कामदुघा, विश्व की आयु, रुद्रों की माता व वसुओं की पुत्री कहा गया है। अथर्ववेद, उपनिषदों, महाभारत, रामायण, पुराण व स्मृतियां में गौ का महिमा गान किया गया है। भवसागर से पार लगाने वाली गोमाता की सेवा करने व इनकी कृपा से ही गोलोक की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में गाय को प्रत्यक्ष देवी माना है। इसका अनिष्ट ही विनाश का कारण है। उनके रोम-रोम में देवताओं का वास है। गोमूत्र में गंगाजी का व गोबर में लक्ष्मीजी का निवास है। गोमाता हमें ताजा दुग्ध, गरम दुग्ध, मक्खन निकाला हुआ दुग्ध, दही, मट्ठा, घृत, पनीर, छेना, खीस का पानी, नवनीत और मक्खनदृये दस प्रकार के अमृतमय भोज्य पदार्थ देती है जिन्हें खाकर हम आरोग्य, बल, बुद्धि, ओज और शारीरिक बल प्राप्त करते हैं। वेदों से लेकर समस्त धार्मिक-ग्रन्थों में और प्राचीन ऋषि-मुनियों और विद्वानों से लेकर आधुनिक विद्वानों तक सभी ने गोमाता का स्थान सर्वश्रेष्ठ बताया है। भूमण्डल पर माता का प्रत्यक्ष रूप गोमाता ही है। गौ महिमा अपार महाभारत में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को गौ की महिमा बताते हुए कहते हैं कि गौ सभी सुखों को देने वाली है और वह सभी प्राणियों की माता है।
इस संसार में गौ एक अमूल्य और कल्याणप्रद पशु है। मृत्युलोक की आधारशक्ति पृथ्वी है और देवलोक की आधारशक्ति गौ है। पृथ्वी को भूलोक कहते हैं और गौ को गोलोक कहते हैं। भूलोक नीचे है और गोलोक ऊपर है। जिस प्रकार मनुष्यों के मल-मूत्रादि कुत्सित आचरणों को पृथ्वीमाता सप्रेम सहन करती है, उसी प्रकार गौमाता भी मनुष्यों के जीवन का आधार होते हुए उनके वाहन, ताड़न आदि कुत्सित आचरणों को सहन करती है। इसीलिए वेदों में पृथ्वी और गौ के लिए क्षमाशील शब्द का प्रयोग किया गया है। मनुष्यों में भी जो सहनशील होते हैं, वे महान माने जाते हैं। संसार में पृथ्वी व गौ से अधिक क्षमावान और कोई नहीं है। गाय सदा पूजनीय है। गौ को त्यागमूर्ति कहा गया है, क्योंकि उसके सभी अंग-प्रत्यंग दूसरे के उपयोग में आते हैं। इस महागुण से गौ सर्वोत्तम माता कही गयी है। तृणों के आहार पर जीवन धारण कर गाय मानव के लिए अलौकिक अमृतमय दूध प्रदान करती है। शास्त्रों में गौ को सर्वदेवमयी और सर्वतीर्थमयी कहा गया है। इसलिए गौ के दर्शन से समस्त देवताओं के दर्शन और समस्त तीर्थों की यात्रा करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है। समस्त प्राणियों को धारण करने के लिए पृथ्वी गोरूप ही धारण करती है।
जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार बढ़ता है, तब-तब वह देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में गोरूपधारण करके जाती है। गौ, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानी। इन सात महाशक्तियों के बल पर ही पृथ्वी टिकी है पर इनमें गौ का ही प्रथम स्थान है। गौ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की धात्री होने के कारण कामधेनु है। भगवान श्रीकृष्ण सांदीपनिमुनि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिए गए वहां उन्होंने गो-सेवा की। भगवान श्रीकृष्ण को केवल गायों से ही नहीं अपितु गोरस (दूध, दही, मक्खन, आदि) से भी अद्भुत प्रेम था, उस प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण गोरस की चोरी भी करते थे। श्रीकृष्ण द्वारा ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुष्टिक, चाणूर, कुवलयापीड हाथी और कंस का वध गोरस के अद्भुत चमत्कार के प्रमाण हैं और इसी गोदुग्ध का पान कर भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य गीतारूपी अमृत संसार को दिया। भगवान श्रीकृष्ण गौ रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने गोमाता की रक्षा के लिए क्या-क्या नहीं किया? उन्हें दावानल से बचाया, इन्द्र के कोप से गायों और व्रजवासियों की रक्षा के लिए गिरिराज गोवर्धन को कनिष्ठिका अंगुली पर उठाया। तब देवराज इन्द्र ने ऐरावत हाथी की सूंड़ के द्वारा लाए गए आकाशगंगा के जल से तथा कामधेनु ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और कहा कि ‘जिस प्रकार देवों के राजा देवेन्द्र हैं, उसी प्रकार आप हमारे राजा गोविन्द हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यजीवन गो-सेवा में बीता इसीलिए उनका नाम गोपाल पड़ा। पूतना के वध के बाद गोपियां श्रीकृष्ण के अंगों पर गोमूत्र, गोरज व गोमय लगा कर शुद्धि करती हैं क्योंकि उन्होंने पूतना के मृत शरीर को छुआ था और गाय की पूंछ को श्रीकृष्ण के चारों ओर घुमाकर उनकी नजर उतारती हैं। तीनों लोकों के कष्ट हरने वाले श्रीकृष्ण के अनिष्ट हरण का काम गाय करती है। जब-जब श्रीकृष्ण पर कोई संकट आया नन्दबाबा और यशोदामाता ब्राह्मणों को स्वर्ण, वस्त्र व पुष्पमाला से सजी गायों का दान करते थे। यह है गोमाता की महिमा और श्रीकृष्ण के जीवन में उनका महत्व। श्रीकृष्ण चले जब गाय चराने नंदबाबा के घर सैकड़ों ग्वालबाल सेवक थे पर श्रीकृष्ण गायों को दुहने का काम भी स्वयं करना चाहते थे-कन्हैया ने आज माता से गाय चराने के लिए जाने की जिद की और कहने लगे कि भूख लगने पर वे वन में तरह-तरह के फलों के वृक्षों से फल तोड़कर खा लेंगे। पर माँ का हृदय इतने छोटे और सुकुमार बालक के सुबह से शाम तक वन में रहने की बात से डर गया और वे कन्हैया को कहने लगीं कि तुम इतने छोटे-छोटे पैरों से सुबह से शाम तक वन में कैसे चलोगे, लौटते समय तुम्हें रात हो जाएगी। तुम्हारा कमल के समान सुकुमार शरीर कड़ी धूप में कुम्हला जाएगा परन्तु कन्हैया के पास तो मां के हर सवाल का जवाब है।
वे मां की सौगन्ध खाकर कहते हैं कि न तो मुझे धूप (गर्मी) ही लगती है और न ही भूख और वे मां का कहना न मानकर गोचारण की अपनी हठ पर अड़े रहे। मोरमुकुटी, वनमाली, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण यमुना में अपने हाथों से मल-मल कर गायों को स्नान कराते, अपने पीताम्बर से ही गायों का शरीर पोंछते, सहलाते और बछड़ों को गोद में लेकर उनका मुख पुचकारते और पुष्पगुच्छ, गुंजा आदि से उनका शृंगार करते। तृण एकत्र कर स्वयं अपने हाथों से उन्हें खिलाते। गायों के पीछे वन-वन वे नित्य नंगे पांव कुश, कंकड़, कण्टक सहते हुए उन्हें चराने जाते थे। गाय तो उनकी आराध्य हैं और आराध्य का अनुगमन पादत्राण (जूते) पहनकर तो होता नहीं। परमब्रह्म श्रीकृष्ण गायों को चराने के लिए जाते समय अपने हाथ में कोई छड़ी आदि नहीं रखते थे। केवल वंशी लिए हुए ही गायें चरान जाते थे। वे गायों के पीछे-पीछे ही जाते हैं और गायों के पीछे-पीछे ही लौटते हैं, गायों को मुरली सुनाते हैं। सुबह गोसमूह को साष्टांग प्रणिपात (प्रणाम) करते और सायंकाल ‘पांडुरंग बन जाते (गायों के खुरों से उड़ी धूल से उनका मुख पीला हो जाता था)। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आते और आश्चर्यचकित रह जाते कि जो परमब्रह्म श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगियों के समाधि लगाने पर भी ध्यान में नहीं आते, वे ही श्रीकृष्ण गायों के पीछे-पीछे नंगे पांव वनों में हाथ में वंशी लिए घूम रहे हैं।
इससे बढ़कर आश्चर्य की बात भला और क्या होगी? मोहन गायें चराकर आ रहे हैं। उनके मस्तक पर नारंगी पगड़ी है जिस पर मयूरपिच्छ का मुकुट लगा है, मुख पर काली-काली अलकें बिखरी हुई हैं जिनमें चम्पा की कलियां सजाई गयीं हैं, उनके नुकीले अरुनारे (आंखों की लालिमायुक्त कोर), चंचल नेत्र हैं, टेढ़ी भौंहें, लाल-लाल अधरों पर खेलती मधुर मुस्कान और अनार के दानों जैसी दंतपक्ति, वक्षस्थल पर वनमाला और गाय के खुर से उड़कर मुख पर लगी धूल सुहावनी लग रही है। गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्याम श्रीकृष्ण रसमयी वंशी बजाते हुए चल रहे हैं और सखामंडली उनकी गुणावली गाती चल रही है। गेरु आदि से चित्रित सुन्दर नट के समान वेष में ये नवलकिशोर मस्त गजराज की तरह चलते हुए आ रहे हैं। चलते समय उनकी कमर में करधनी के किंकणी और चरणों के नुपूरों के साथ गायों के गले में बंधी घण्टियों की मधुर ध्वनि सब मिलकर कानों में मानो अमृत घोल रहे हों। राधिकापति भगवान श्रीकृष्ण के मन में दूध पीने की इच्छा होने लगी। तब भगवान ने अपने वामभाग से लीलापूर्वक सुरभि गौ को प्रकट किया। उसके साथ बछड़ा भी था जिसका नाम मनोरथ था। उस सवत्सा गौ को सामने देख श्रीकृष्ण के पार्षद सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा और उस सुरभी से दुहे गये गर्म-गर्म स्वादिष्ट दूध को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने पीया।
मृत्यु तथा बुढ़ापा को हरने वाला वह दुग्ध अमृत से भी बढ़कर था। सहसा दूध का वह पात्र हाथ से छूटकर गिर पड़ा और पृथ्वी पर सारा दूध फैल गया। उस दूध से वहां एक सरोवर बन गया जिसकी लम्बाई-चैड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी। गोलोक में वह सरोवर क्षीरसरोवर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपिकाओं और श्रीराधा के लिए वह क्रीड़ा-सरोवर बन गया। उस क्रीड़ा-सरोवर के घाट दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित थे। भगवान की इच्छा से उसी समय असंख्य कामधेनु गौएं प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएं थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभि गौ के रोमकूप से निकल आए। इस प्रकार उन सुरभि गौ से ही गौओं की सृष्टि मानी गयी है। भगवान श्रीकृष्ण गौ पूजा मंत्र स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने सुरभि गौ की पूजा की। इनकी पूजा का मन्त्र है: ’ऊँ सुरभ्यै नमः’। यह षडाक्षर मन्त्र एक लाख जप करने पर सिद्ध हो जाता है और साधक को ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति देने के साथ ही उनकी समस्त मनोकामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष है। लक्ष्मीस्वरूपा, राधा की सहचरी, गौओं की आदि जननी सुरभि गौ की पूजा दीपावली के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में की जाती है। कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बांधने के खम्भे, शालिग्राम, जल अथवा अग्नि में सुरभि की भावना (ध्यान) करके इनकी पूजा कर सकते हैं। एक बार वाराहकल्प में आदि गौ सुरभि ने दूध देना बंद कर दिया।
उस समय तीनों लोकों में दूध का अभाव हो गया जिससे समस्त देवता चिन्तित हो गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अतः इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति कहा गया है। गौ के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण (७।५।२।३४) में कहा गया है-गौ वह झरना है, जो अनन्त, असीम है, जो सैकड़ों धाराओं वाला है।’ पृथ्वी पर बहने वाले झरने एक समय आता है जब वे सूख जाते हैं। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी नहीं ले जा सकते हैं किन्तु गाय रूपी झरना इतना विलक्षण है कि इसकी धारा कभी सूखती नहीं। अपनी संतति (संतानों) के द्वारा सदा बनी रहती है। साथ ही इस झरने को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर ले भी जा सकते हैं।