राष्ट्रीय संघटना की दृष्टि से यदि देखा जाय, तो रक्षा बंधन भारत का सबसे प्रमुख पर्व है। इसमें यह मूलभूत भावना छिपी है कि सम्पूर्ण समाज को जो भारत में नर और नारी तथा प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक वर्ग को मिला कर बनाता है एक दूसरे की रक्षा करते हुए, ही जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए। पारस्परिक भेदभाव को मिटाने तथा राष्ट्रीय एकता को समग्र और सुदृढ़ रूप में स्थापित करना इस पर्व का इष्ट है। रक्षा बंधन का यह पर्व यह नहीं सह सकता है कि विभिन्न जातियों के लोग एक दूसरे से अलग रहें, विभिन्न प्रदेशों के लोग अपनी राजनीतिक और सामाजिक खिचड़ियां अलग-अलग पकाएं और विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आपस में निरन्तर सिर फुटौव्वल करते रहें।
उसकी मान्यता है कि समाज के प्रत्येक घटक को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष चाहे वह सवर्ण हो या अवर्ण चाहे वह ईश्वर पूजक हो या नास्तिक, अपनी-अपनी बुद्धि और अपनी-अपनी निष्ठा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। परन्तु इसके साथ ही उन सबको साथ मिलकर एक दूसरे की रक्षा का और सब मिलकर सम्पूर्ण राष्ट्र की उसकी संस्कृति की रक्षा का कर्तव्य पालन करते हुए ही अपना जीवनयापन करना चाहिए। भारतीय जीवन दर्शन विश्वव्यापी विविधता को स्वाभाविक मानकर स्वीकार करता है और उसके विकसित होने का पूर्ण अवसर देता है। परन्तु इसके साथ ही वह मानव मात्र की एकता में भी अविचल श्रद्धा रखता है और उसे बनाए रखने का प्रयत्न करता है। विविधता में एकता देखना तथा प्रस्थापित करना भारतीय संस्कृति का प्रथम सिद्धांत है जो विश्व की सभी संस्कृतियों के आधारभूत सिद्धान्तों से भिन्न है। इसमें समस्त यथार्थों का समन्वय करते हुए चलने की भावना है। भारत में रक्षा बंधन के इस पर्व का विविध रूपों में विकास हुआ है।
दो प्रमुख पद्धतियां जो आज प्रचलित हैं ब्राह्मणों के द्वारा तथा बहनों के द्वारा रक्षा सूत्र बांधने की है। दोनों का देश के सभी भागों में प्रचलन है तथा अधिकांश घरों में ब्राह्मण तथा बहनें दोनों ही रक्षा सूत्र बांधते हैं। दोनों पद्धतियों के पाश्र्व में लम्बा इतिहास भी है और साथ ही अनेक घटनाएं भी। लेकिन इस पर्व का प्रारंभ मूलतः कहां से तथा कब हुआ इसका निर्णय करना कठिन नहीं तो समय और श्रमसाध्य अवश्य है । कहते हैं एक बार देव और दानवों के मध्य बारह लम्बे बरसों तक युद्ध चलता रहा। इन्द्र की विजय के लिए उनकी पत्नी इन्द्राणी ने एक व्रत का आयोजन किया। युद्ध करते-करते इन्द्र जब बहुत थक गए तब उन्हें खिन्न देखकर इन्द्राणी उनसे बोली थीं हे देव, दिवस का अवसान हो चुका अब शिविर में लौट चलें। कल मैं आपको अजेय बनाने वाले रक्षा सूत्र से बांधंूगी। दूसरे दिन जब श्रावणी पूर्णिमा का प्रभात था समस्त अनुष्ठान सम्पन्न करने के उपरान्त इन्द्राणी ने इन्द्र के दाहिने कर में शक्तिवर्द्धक रक्षा सूत्र बांधा। ब्राह्मणों के सामगान के मध्य रक्षारक्षित इन्द्र जब रणभूमि में गए तब उन्होंने अत्यल्प काल में ही शत्रुओं को परास्त कर दिया और तत्पश्चात् वह पूर्ववत तीनों लोकों पर शासन करने लगे।
इस पौराणिाक कथा के अनुसार पत्नी को भी अपने पति को रक्षा सूत्र में बांधने का उतना ही अधिकार है जितना एक बहन को अपने भाई को राखी बांधना। पुराण की एक अन्य कथा के अनुसार आज ही के दिन श्रवण नक्षत्र के प्रारम्भ में भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार का जन्म हुआ था। तभी से वैष्णव समुदाय इसे हयग्रीव जयन्ती के रूप में मनाता है। दूसरी कथा के अनुसार इसी दिन श्री हरि ने ऋग्वेद और यजुर्वेद की संख्या में सामवेद की अभिवृद्धि की थी। भगवान का यह सामगान प्रथम बार वितस्ता और सिन्धु के संगम पर श्रावणी पूर्णिमा के दिन किया गया था और इसी से इस दिन संगम पर किया जाने वाला स्नान समस्त सिद्धियां प्रदान करता है । स्कन्द पुराण में दिए गए ईश्वर-सनत्कुमार संवाद के अनुसार श्रावणी पूर्णिमा का प्रभात होते ही श्रुति-स्मृति के विधान को समझने वाले बुद्धिमान द्विज हेमाद्रि स्नान करने के पश्चात् पितृ ऋषि एवं देवताओं का तर्पण कर संध्या जप तथा पूजन से निवृत्त होकर मोतियों से मंडित रंगीन शुद्ध रेशम के तन्तु एवं गुच्छों से शोभित सूत्र लेकर आकण्ठ जलपूर्ण कलश पर उसे रख दें तथा कुमकुम अक्षत एवं पुष्पादि से उसका पूजन करें ।
तब अपने बंधु-बांधवों के मध्य गणिकाओं के संगीत-नृत्य आदि का आनन्द लेते हुए पुरोहित द्वारा राष्ट्र ऋषि एवं देवताओं के सम्मान का सौगंध खाते हुए, उसे बंधवाए। बांधते समय पुरोहित जो मंत्र पढ़े उसका भावार्थ यह होना चाहिए, जिसके द्वारा कर्तव्य पूर्ति के लिए महाबली बलि को भी बांध लिया गया उसी रक्षा सूत्र से मैं तुझे भी बांधता हूं। हे रक्षा सूत्र, तू अविचल रहना। इस प्रकार जो व्यक्ति यह पर्व मनाता है वह वर्षपर्यन्त सभी परितापों से मुक्त रहता है। इस प्रकार ब्राह्मणों के द्वारा रक्षा बांधने की पद्धति का कुछ इतिहास हमें मिल जाता है। इसमें राष्ट्र तथा संस्कृति की रक्षा की बात निहित है। यह विधान ध्यान देने योग्य है कि तथाकथित अवर्ण, अंत्यज तथा शूद्र भी इसे उतने ही विधि विधान से बंधवा सकते हैं जिस विधि विधान से सवर्ण अथवा ऊँची मानी जाने वाली जातियों के लोग।
आज की परिस्थिति में हमें इस पर्व पर यह संकल्प करना चाहिए कि हम जातिभेद, प्रान्त भेद तथा सम्प्रदाय भेद से नितान्त अलग रहते हुए अपने विकास के मार्ग पर अग्रसर होंगे । बहन द्वारा भाई के रक्षा सूत्र बांधे जाने की प्रथा का इतिहास नहीं मिलता लेकिन यह निश्चित है कि जिस व्यक्ति ने भी इसका आरंभ किया होगा वह अवश्य ही महान कवि हृदय रहा होगा। भाई-बहन का स्नेह संस्कृति के आभिजात्य विकास का चरम सोपान है जिस पर हम सभी भारतवासियों को गर्व होना चाहिए। सृष्टि की स्वाभाविक योजना में भाई-बहन का संबंध नहीं है। पशु-पक्षी नर और मादा के रूप में ही रहते हैं। मानव ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया है तथा नर-नारी के प्रेम का एक नया स्वरूप विकसित करने में उसे पूरी सफलता मिली है। इस स्वरूप का जितना विकास भारत में हुआ है उतना अन्यान्य किसी भी देश या सम्प्रदाय में नहीं। पति-पत्नी का प्रेम जहां उग्र और उष्ण होता है वहां भाई-बहन के प्रेम में शांति और शीतलता होती है।
इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्रत्येक भारतवासी को होगी फिर चाहे वह किसी भी अंचल या प्रदेश का निवासी हो। पति-पत्नी को अपने इस प्रेम की अभिव्यक्ति करने के लिए सम्पूर्ण जीवन मिलता है। परन्तु भाई-बहन के प्रेम की अभिव्यक्ति के अवसर बहुत कम सुलभ होते हैं। इसीलिए, किसी अज्ञात नाम व्यक्ति ने जो अपने अनुपस्थित भाई अथवा भगिनी के प्रति अपने प्रेम की तीव्रता का प्रबल अनुभव करता होगा यह व्यवस्था की होगी कि इस दिवस-विशेष को दोनों मिलें और अपने हृदय के मधु से एक दूसरे को प्लावित कर दें। यह परम्परा आज तक ज्यों की त्यों चली आ रही है और अत्यंत उल्लास के साथ उसका कार्यान्वयन होता है ।
भगिनीविहीन पुरुष और भ्राताहीन नारियां इस दिन दुर्भाग्य की पीड़ा का अनुभव करती हैं । इस प्रथा का एक सामाजिक लाभ यह भी हुआ है कि जिन स्त्रियों का कोई रक्षक नहीं होता वह किसी पुरुष को राखी बांध कर अपना भाई बना लेती हैं। इतिहास में अनेक बार इस प्रथा का लाभ उठाया गया है और हिन्दुओं ने ही नहीं मुसलमानों ने भी उसका पालन किया है । इस पर्व को उसकी महत्वपूर्ण भूमिका को हृदयंगम कर उत्साहपूर्वक मनाना हमारा कर्तव्य है। इस दिन सामगान का प्रारंभ हुआ था, अतः इसे संगीत का पर्व मानना भी युक्तिसंगत ही है।
हमें चाहिए कि इस दिन कला की अधिष्ठात्री देवी शारदा का पूजन करें और रात्रि में समारोहपूर्वक संगीत गोष्ठियों का आयोजन किया जाए। इस पर्व का स्वरूप ही ऐसा है कि यदि उसका विधिवत पालन किया जाए तो सभाएं और भाषण आयोजित करने की आवश्यकता ही न शेष रहे वरन् सभी संस्कार स्वतः ही हमें अपनी परिवृत्ति में ले लें।