ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।
अर्थात्
समस्त संसार के पालनहार तीन नेत्रों वाले शिव की हम आराधना करते हैं विश्व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्यु, न कि मोक्ष, से हमें मुक्ति दिलाएं।
पौराणिक कथनानुसार देवगुरु बृहस्पति व शुक्राचार्य बृहस्पतिदेव के पिता से विद्या ग्रहण करते थे। बृहस्पति के पिता ने पुत्र मोह के कारण सारा श्रेष्ठ ज्ञान बृहस्पति को ही दे दिया। इससे आहत होकर शुक्राचार्य ने घोर तपस्या कर भगवान शंकर से आशीर्वाद स्वरूप मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की। देवासुर संग्राम में असुरों की मृत्यु हो जाने पर शुक्राचार्य जी उन्हें इस मृतसंजीवनी विद्या के प्रभाव से अमृत छिड़क कर जीवित कर देते थे और पुनः रण क्षेत्र में भेज देते थे। शुक्राचार्य जी ने यह विद्या दधीचि जी को दी। इस संदर्भ में एक कथा है कि ऋषि पुत्र दधीचि और राजकुमार क्षुव दोनों एक आश्रम में पढ़ते थे। दोनों में अच्छी मित्रता हो गई।
जब आश्रम से वे गृहस्थ आश्रम के लिए विदा हुए तो क्षुव ने कहा कि ‘मैं राज सिंहासन पर बैठ जाऊं, तब आपको कोई आवश्यकता हो तो मेरे पास आना, मैं पूर्ति करूंगा।’ यह बात दधीचि जी को अच्छी नहीं लगी। जब क्षुव राजसिंहासनारूढ़ हुए तो क्षुव ने दधीचि को कुछ देना चाहा और फिर वे ही वाक्य कहे। दधीचि ने अपना अपमान होते देखकर क्रोध से राजा के सिर पर मुष्टि-प्रहार किया। इससे कुपित होकर राजा क्षुव ने दधीचि के वक्ष पर वज्र का प्रहार किया। ऋषि आहत होकर गिर पड़े और अपनी हड्डियों के टूट जाने से दुखी होकर शुक्राचार्य का स्मरण किया व अपनी स्वस्थता की प्रार्थना की।
शुक्राचार्य ने मृत्युंजय मंत्र के बल से दधीचि को स्वस्थ किया और महामृत्यंुजय मंत्र का विधिवत् उपदेश भी दिया। बाद में इंद्र के द्वारा उनकी हड्डियों के मांगने पर दधीचि ने विश्वकल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान किया था और उन्हीं को अस्त्र बनाकर इंद्र ने राक्षसराज का नाश किया था।
महामृत्युंजय मंत्र स्वरूप
महामृत्युंजय मंत्र के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख हमारे प्राचीन धर्मगं्रथों में मिलता है। इन सबका अपना-अपना महत्व है। विशेष स्थिति में इनका विशेष प्रकार से अनुष्ठान किया जाता है।
एकाक्षरी मंत्र: हौं (वाक्सिद्धि हेतु)
त्रयक्षरी मंत्र: ऊँ जूं सः (ज्वरादि से मुक्ति हेतु)
चतुरक्षरी मंत्र: ऊँ वं जूं सः (संकट मुक्ति)
पंचाक्षरी मंत्र: ऊँ हौं जूं सः ऊँ (लघु मृत्युंजय मंत्र)
नवाक्षरी मंत्र: ऊँ जूं सः पालय-पालय (संकट निवारण)
दशाक्षरी मंत्र: ऊँ जूं सः मां पालय-पालय
वैदिक मंत्र: त्रयम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।
33 अक्षरात्मक मंत्र: ऊँ त्रयम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।।
54 अक्षरात्मक: ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः ऊँ त्र्ैयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ऊँ स्वः भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।
62 अक्षरात्मक: ऊँ हौं ऊँ जूं ऊँ सः ऊँ भूः ऊँ भुवः ऊँ स्वः ऊँ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ऊँ स्वः ऊँ भुवः ऊँ भूः ऊँ सः ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ ।। (रोग निवारण हेतु)
शुक्र उपासित: ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः ऊँ तत्सवितुर्वरेण्यं त्रयम्बकं यजामहे भर्गो देवस्य धीमहि सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् धियो यो नः प्रचोदयात् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् स्वः भुवः भूः ऊँ सः जूं हौं ऊँ।। (स्वास्थ्य लाभ हेतु)
मंत्र प्रयोग
जब रोगी अत्यंत कष्ट की स्थिति में हो, रोग व अशक्ति के कारण मानसिक चिंता बढ़ रही हो, वैद्य एवं डाक्टरों का कोई एक निर्णय नहीं हो रहा हो तथा स्वयं रोगी और उसके परिवार के लोग किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहे हों, तो महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए।
किसी भी ग्रह के बुरे प्रभाव से मुक्ति के लिए, मुख्यतः शनि व राहु के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए, जादू टोने के असर को समाप्त करने के लिए शत्रु प्रदत्त पीड़ा का हनन करने के लिए, दुर्घटना से बचाव के लिए व मरणासन्न स्थिति में मोक्ष के लिए इस मंत्र का जप करना चाहिए। शास्त्रोक्त विधान के अनुसार महामृत्युंजय मंत्रों का सवा लाख की संख्या में जप किया जाता है। परंतु जप की सूक्ष्म विधि का भी विधान है जिसमें जातक महामृत्युंजय मंत्र का दशांश जप भी कर या करा सकते हैं।
ऐसा करने से भी जप का फल मिलता है। महामृत्यंुजय मंत्र का जप किसी शिवालय में, घर में, शिव या विष्णु के सिद्ध स्थल पर अथवा किसी द्वादश ज्योतिर्लिंग मंदिर में करना या कराना चाहिए। यह अनुष्ठान प्रतिवर्ष किसी सोमवार को, जन्मदिवस पर किसी सिद्ध मुहूर्Ÿा जैसे महाशिव रात्रि, नाग पंचमी या श्रावण मास में भी करा सकते हैं।
विधि
जब रोगी अत्यंत संकट की स्थिति में हो, तब कालों के काल महाकाल सहायक बनते हैं। ऐसी स्थिति में रुद्राभिषेक कराने का विशेष महत्व है। अभिषेक जल, पंचामृत अथवा गोदुग्ध से करना चाहिए। अत्यंत उष्ण ज्वर, मोतीझरा आदि बीमारियों में मट्ठे से अभिषेक किया जाता है।
शत्रु द्वारा कोई अभिचार किया गया प्रतीत हो तो सरसों के तेल से अभिषेक करना चाहिए। आम, गन्ने, मौसमी, संतरे, नारियल आदि विभिन्न फलों के रसों के मिश्रण से अथवा अलग-अलग रस से भी अभिषेक का विधान है। ऐसे अभिषेक से भगवान शिव प्रसन्न होकर सुख शांति प्रदान करते हैं। अभिषेक के पश्चात महामृत्युंजय मंत्र का उक्त संख्या में जप और हवन करवाएं। महामृत्युंजय हवन में विभिन्न प्रकार के हवनीय द्रव्यों का भी प्रयोग बताया गया है।
अच्छे स्वास्थ्य के लिए कच्चे दूध के साथ गिलोय की आहुति मंत्रोच्चार के साथ दी जाती है। इसके बाद दूब, बरगद के पŸो अथवा जटा, जपापुष्प, कनेर के पुष्प, बिल्व पत्र, ढाक की समिधा, काली अपराजिता के पुष्प आदि के साथ घी मिलाकर दशांश हवन करें तो रोग से शीघ्र ही मुक्ति और मृत्यु का निवारण होता है। इसी प्रकार मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिए द्रोण और कनेर पुष्पों का हवन उत्तम फलदायी होता है। इसी तरह क्रूर ग्रहों की शांति के लिए जन्मदिन पर मृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए घी, दूध और शहद में दूर्वा मिलाकर हवन करना अति उŸाम होता है। महामृत्युंजय मंत्र की सिद्धि के लिए जायफल से हवन करना उत्तम माना गया है।
सामग्री
महामृत्युंजय की पूजा-अर्चना का पूर्ण फल दीर्घकाल तक प्राप्त करने के लिए पारद शिव परिवार, महामृत्युंजय यंत्र, रुद्राक्ष माला, एकाक्षी नारियल, एक मुखी रुद्राक्ष, कौड़ी तथा महामृत्युंजय लाॅकेट का विशेष महत्व है। जातक को इस अनुष्ठान में प्रतिष्ठित पारद शिव परिवार को प्रतिदिन जल चढ़ाना चाहिए तथा यंत्र को स्नान कराकर चंदन का तिलक लगाना चाहिए। एकाक्षी नारियल व कौड़ी को प्रतिदिन धूप दीप दिखाना चाहिए। प्रतिष्ठित एक मुखी रुद्राक्ष, माला व लाॅकेट गले में धारण करें। रुद्राक्ष माला पर महामृत्युंजय मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें। इस प्रकार मंत्र के जप का फल जातक को सदा मिलता रहेगा।