अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं कि - किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। आध भूते च किं प्रोक्तमधिदैवं कि मुच्यते।। अर्थात ‘‘ब्रह्म क्या है?’’ आत्मा क्या है, सकाम कर्म क्या है, यह भौतिक जगत क्या है, देवता क्या हैं? आदि प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हंै। ध्यातव्य है कि अर्जुन ने परमेश्वर को पुरूषोत्तम या परम पुरूष कहकर संबोधित किया है जिसका अर्थ यह होता है वे ये सारे प्रश्न अपने एक मित्र से नहीं अपितु परम पुरुष से उन्हें परम प्रमाण मानकर, पूछ रहे थे, जो निश्चित उत्तर दे सकते थे। ‘‘अधियज्ञः कथं -----नियतात्मभिः’’ एक अन्य श्लोक में भगवान को अधियज्ञ व मधुसूदन कहकर संबोधित किया है। अधियज्ञ का अर्थ विष्णु या इंद्र हो सकता है। विष्णु सभी देवताओं में जिनमें ब्रह्मा तथा शिव सम्मिलित हैं, प्रधान देवता हैं और इंद्र प्रशासक देवताओं में प्रधान हैं।
इंद्र व विष्णु जी की पूजा यज्ञ के द्वारा की जाती है। किंतु अर्जुन प्रश्न करते हंै कि वस्तुतः यज्ञ का स्वामी कौन है और भगवान किस तरह जीव के शरीर के भीतर निवास करते हैं। मधुसूदन शब्द से तात्पर्य यह है कि एक बार श्री कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था। मधु नामक असुर से आसुरी प्रवृत्तियों से निवृत्ति चाहते हुये अर्जुन इस प्रकार के यक्ष प्रश्न कर रहे हंै। किंतु मधुसूदन उसे इसके निवारण का रास्ता जरूर बतलायेंगे यह वे जानते हंै। महाराज कुलशेखर (अर्जुन) श्री कृष्ण जी से कहते हैं कि हे भगवान इसमें मैं व मेरा मन पूरी तरह से स्वस्थ है यदि मैं आपके चरण कमलों का स्मरण करते हुये तुरंत मर जाऊं तो मुझे विश्वास है कि आपके प्रति मेरी भक्ति पूर्ण हो जायेगी। किंतु मुझे यदि अपनी सहज मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़े तो मैं नहीं जानता कि क्या होगा क्योंकि उस समय मेरा शरीर कार्य करना बंद कर देगा, मेरा गला रूंध जायेगा और मुझे पता नहीं कि मैं आपके नाम का जप कर पाऊंगा या नहीं।
अच्छा यही होगा कि मुझे तुरंत मर जानें दें। अर्जुन प्रश्न करता है कि ऐसे समय मनुष्य किस तरह कृष्ण के चरण कमलों में अपने मन को स्थिर कर सकता है? जिज्ञासु अर्जुन को भगवान कहते हैं कि अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽच्यात्म मुच्यते। भूत भावोद भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः।। अर्थात - ब्रह्म अविनाशी तथा नित्य है और इसका विधान कभी भी नहीं बदलता। किंतु ब्रह्म से भी परे परब्रह्म होता है। ब्रह्म का अर्थ है जीव तथा परब्रह्म का अर्थ भगवान है। जीव का स्वरूप भौतिक जगत् में उसकी स्थिति से भिन्न होता है। भौतिक चेतना में उसका स्वभाव पदार्थ पर प ्रभ ुत्व जताना है, किंतु आध्यात्मिक चेतना या कृष्ण भावनामृत में उसकी स्थिति परमेश्वर की सेवा करना है। अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्तकर कलेवरम्। यः प्रयाप्ति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय।। यं यं वापि स्मरन्यावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेयं सदा तद्भाव भावितः।।
भगवान कहते हैं कि मेरा (कृष्ण) नाम स्मरण करते-करते प्राणों का त्याग करने वाला मुझमें ही (कृष्ण) समाहित हो जाता है। इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है। मद्भाव अर्थात दिव्य स्वभाव की प्राप्ति। स्मरण शब्द से ही कृष्ण भावनामृत का सोपान होता है अर्थात ‘स्मरण’ उस अशुद्ध जीव से नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त भगवन उपदेश देते हुये कहते हैं कि अंत समय में मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करेगा वह उस भाव को निश्चत ही प्राप्त करेगा। यही विधि का विधान है। यहां श्रीकृष्ण जी ने कहा है कि यह आवश्यक नहीं कि मुझे स्मरण करने वाला मुझको ही प्राप्त न हो, अपितु उसकी भावना भी मुझमें यदि होगी तो वह इस जीवन रूपी बंधन से हमेशा-हमेशा मुक्त हो जायेगा। इस प्रकार आपका अगला जीवन भी सिद्ध हो जायेगा। इसके अतिरिक्त भगवान कहते हैं कि जो मनुष्य अपने प्राण को योग शक्ति से भौहों के मध्य स्थिर कर लेता हुआ परमेश्वर स्मरण में लगाता है वह भी निश्चित रूपेण मुझे प्राप्त कर लेता है अर्थात योग का जीवन में बहुत महत्व है।
योग का अध्यात्म से नीर-क्षीर संबंध है क्योंकि मन को विचलित होने से रोकने के लिए योग अत्यावश्यक है तथा अध्यात्म परम सिद्धि के लिए अत्यावश्यक है। यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।। यदिच्छन्नो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्यै।। वेदों को जानने वाले, ओंकार का उच्चारण करने वाले जो विलक्षण संन्यासी हैं वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्य व्रत का अभ्यास करते हैं। अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊंगा जिससे कोई भी व्यक्तिगत मुक्ति-लाभ कर सकता है। समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योग धारणा) कहा जाता है। इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बंद करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है। गीता समस्त योग पद्धतियों में से भक्ति योग की ही संस्तुति करता है।
सामान्यतया भक्ति योगी पांच प्रकार की भक्ति में लगे रहते हैं:
1. शांत भक्त - जो उदासीन रहकर भक्ति में युक्त होते हैं।
2. दास्य भक्त - जो दास के रूप में भक्ति में युक्त होते हैं।
3. सख्य भक्त: जो सखा के रूप में भक्ति में युक्त होते हैं।
4. वात्सल्य भक्त: जो माता-पिता की भांति भक्ति में युक्त होते हैं।
5. माधुर्य भक्त: जो परमेश्वर के साथ दांपत्य प्रेमी की भांति भक्ति में युक्त रहते हैं।
शुद्ध भक्त इनमें से किसी में भी परमेश्वर की भक्ति में युक्त होता है और उन्हें कभी नहीं भूलता, उसी प्रकार भगवान भी अपने शुद्ध भक्त को कभी नहीं भूलते अथवा स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि ं परमांगताः।। मुझे प्राप्त करके जो महापुरूष भक्त योगी हैं कभी भी दुःखों से पूर्ण इस जगत में नहीं लौटते अतः उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो जाती है तथा वे जन्म जन्मों के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। भाव यह है कि यह नश्वर जगत जन्म, जरा, मृत्यु के क्लेश से पूर्ण है अतः जो परम सिद्धि प्राप्त करता है वह इस प्रकार के बंधनों व्यवधानों को काटकर परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।