इस भौतिक जगत में हो या आध्यात्मिक जगत में, माधुर्य शब्द के सुनने मात्र से ही कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं की अनुभूति मन को आनन्दित कर देती है और उम्र की सीमाओं से परे हम अपने जीवन के सबसे मनोहर व संवेदनषील पलों में खो से जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इस भौतिक जगत में आते ही प्रेम की ऐसी वर्षा की कि जिससे उद्भूत प्रेम के विभिन्न रसों की अनुभूति से ये धरा सिंचित हो गयी चाहे वो कृष्ण-यषोदा का वात्सल्य हो अथवा गोपों का साख्य, उद्धव जी का दास्य हो या गोपियों का प्रेम-माधुर्य। सम्पूर्ण जगत में श्रीकृष्ण का प्रेम-माधुर्य अतुलनीय कहलाया। प्रेम-माधुर्य की लीला का वर्णन यहाँ उद्धत किया जा रहा है जो कृष्ण-प्रेम की पराकष्ठा को दर्षाता है जिसे स्वयं कृष्ण भी सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं। ये बात उस समय की है जब कृष्ण द्वारिका प्रस्थान कर गये और रुक्मिणी व रानियों तथा द्वारिकावासियों की सेवा में रत हो गये। एक दिन रानियों के बीच वार्तालाप होने लगा।
किसी रानी ने कहा ‘‘हम कितनी भाग्यषालिनी हैं कि हमारे स्वामी कृष्ण का सर्वाधिक अधिकार हमें प्राप्त है। हमारी इस योग्यता के कारण हमें कृष्ण की पत्नी रूप व अधिकार प्राप्त हुआ है।’’ तुरन्त दूसरी रानी इतराकर कहती है ‘‘हमारा पूर्ण समर्पण ही इस कृष्णरूपी वरदान का कारण है इसीलिए तो कृष्ण केवल हमारे हैं।’’ वहीं उपस्थित महारानी रुक्मिणी स्वयं भी गौरवमयी मुस्कान के साथ स्वयं को देखने लगीं। श्रीकृष्ण ने इन रानियों के हृदय के उद्गारों को जानकर इन रानियों की परीक्षा लेने की योजना बनायी। भगवान श्रीकृष्ण का इस परीक्षा का प्रयोजन मात्र इतना था कि लीलाधर किसी भी आवरण व आलिंगन से आसक्त नहीं हैं, उनके लिए प्रत्येक जीव एक-समान है। इन रानियों का ये सौभाग्य था कि उन्होंने जो तप पूर्व जन्म में किए थे तथा भगवान को पति रूप में पाने की कामना की थी वो इस जन्म में श्रीकृष्ण द्वारा स्वीकृत हो गयी थी जिसके कारण इन्हें श्रीकृष्ण की अर्धांगिनी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
साथ ही भगवान का ऐष्वर्यभोग भी प्राप्त हुआ परन्तु ऐष्वर्य की अधिकता अहंकार का मार्ग भी प्रषस्त कर देती है। श्रीभगवान ने उनको इसी अहंकार से मुक्त करने हेतु स्वयं के अस्वस्थ होने की लीला का सृजन किया। स्थिति कुछ ऐसी हुई कि श्रीकृष्ण के सिर में असाध्य पीड़ा होने लगी जिसके निवारण हेतु द्वारिका के राज्य वैद्य बुलाये गये परन्तु पीड़ा का कारण जानने में असमर्थ रहे। तत्पष्चात अनेक ऋषियों व देष-देषान्तर के अनेक वैद्यों को बुलाया गया तथा अनेक उपचार व अनुष्ठान किए गये परन्तु समस्त प्रयास निष्फल गये। अन्ततोगत्वा एक सिद्ध वैद्य ने आकर परीक्षण के पष्चात एक विचित्र चिकित्सा बताई। उसने कहा कि यदि कोई स्त्री अपने चरणों की रज प्रभु के माथे पर लगा दे तो वह क्षण-मात्र में स्वस्थ हो जायेंगे। इस विचित्र चिकित्सा की सूचना समस्त द्वारिका में फैल गयी। सभी आष्चर्यचकित थे। परन्तु कोई भी स्त्री ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकी। समस्त रानियाँ विचलित हो उठीं कि यह कैसे सम्भव है।
रानियों ने दासियों से कहा परन्तु कोई दासी ऐसा पाप कृत्य करने को तैयार न हुयी। इसी बीच देवर्षि नारद श्रीभगवान का मन्तव्य जानकर द्वारिका में पधारे। उन्होंने पटरानी रुक्मिणी से अनुरोध किया, ‘‘माता! आप प्रभु के स्वास्थ्य-लाभ हेतु अपनी चरण-रज प्रदान कर दें।’’ किन्तु रुक्मिणी ने कहा ‘‘ऐसा करना तो दूर मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकती। मैं अपने स्वामी के लिए घोर तपस्या कर सकती हूँ, अपने प्राण भी दे सकती हूँ परन्तु मेरी चरण-रज! कदापि नहीं।’’ इसी प्रकार देवर्षि ने सभी रानियों से अनुग्रह किया परन्तु कोई भी रानी इस चिकित्सा के लिए तैयार नहीं हुई। नारद जी अत्यन्त निराष होकर व्याकुल अवस्था में बैठ गये तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा ‘‘आप व्याकुल न हों देवर्षि! आप वृन्दावन जाइये वहाँ आपको निराषा नहीं मिलेगी। श्रीभगवान के वचन सुनकर तथा उनकी बाल-लीलाओं को याद कर नारद जी ने वृन्दावन की ओर प्रस्थान किया। वृन्दावन पहुँचकर नारद जी ने गोपियों को द्वारिका में कृष्ण की अस्वस्थता व उस विषिष्ट चिकित्सा की सूचना दी।
उसके प्रत्युत्तर में जो दृष्य व शब्द नारद जी को देखने व सुनने को मिले कि वे अपनी अश्रुधारा को रोक न पाये क्योंकि वह कोई साधारण दृष्य नहीं था अपितु कृष्ण के प्रति गोपियों का अपार व निःस्वार्थ प्रेम था। प्रत्येक गोपी जहाँ खड़ी थी व जैसे बैठी थी उसी अवस्था में अपने चरणों की रज को पात्र में भरकर नारद जी को देने लगीं तथा स्वयं के साथ श्रीकृष्ण द्वारा घटित प्रेम-लीलाओं का रो-रो कर वर्णन करने लगीं। कुछ तो यहाँ तक कहा ‘‘चरण भी लेने हों तो लै लो! पर मोरे कान्हा को दर्द तुरत मिटनो चाहियो।’’ ऐसा मनोहर दृष्य देखकर देवर्षि भाव-विभोर हो गये और तुरन्त ही द्वारिका को प्रस्थान कर गये। जैसे ही नारद जी का द्वारिका आगमन हुआ और वैद्य जी ने गोपी चरण रज श्रीकृष्ण के मस्तक पर लगाई, श्रीभगवान तुरन्त ही स्वस्थ हो गये। देवर्षि नारद ने वहाँ वृन्दावन का समस्त वृत्तान्त सुनाया। वहाँ उपस्थित श्रीेकृष्ण की रानियों को, गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-माधुर्य का बोध हुआ और स्वयं के मिथ्या अभिमान पर लज्जित भी हुयीं। प्रेम की वास्तविक परिभाषा श्रीकृष्ण-गोपी प्रेम से ही प्रकट होती है जहाँ निःस्वार्थता की पराकष्ठा तथा प्रियतम को आनन्द व सुख प्रदान करने की भावना प्रधान होती है चाहे उसके लिए कितने ही कष्टों व दुःखों का वरण करना पड़े, सभी स्वीकार्य होता है। वास्तव में यह प्रेम में तपस्या का स्वरूप ले लेती है।