क्यों?
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फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 4347 | सितम्बर 2013

अनादि काल से ही हिंदू धर्म में अनेक प्रकार की मान्यताओं का समावेश रहा है। विचारों की प्रखरता एवं विद्वानों के निरंतर चिंतन से मान्यताओं व आस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। क्या इन मान्यताओं व आस्थाओं का कुछ वैज्ञानिक आधार भी है? यह प्रश्न बारंबार बुद्धिजीवी पाठकों के मन को कचोटता है। धर्मग्रंथों को उद्धृत करके‘ ‘बाबावाक्य प्रमाणम्’ कहने का युग अब समाप्त हो गया है। धार्मिक मान्यताओं पर सम्यक् चिंतन करना आज के युग की अत्यंत आवश्यक पुकार हो चुकी है।

प्रश्न: संध्या क्यों करें?

उत्तर: ‘‘अहरहः संध्या उपासीत’’-वेद स्त्री, षूद्र, द्विज मात्र को प्रतिदिन सन्ध्योपासना करनी चाहिये। मनुस्मृति कहती है कि जो षुभ कर्मों में बहिष्कार करने योग्य है। सन्ध्या हमारे नित्य कर्म का मुख्य अंग है। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही दृष्टि से सन्घ्या करने से स्वास्थ्य, शक्ति, मेधा और दीर्घ जीवन की कुजी प्राप्त होती है। संध्या एक प्रकार से प्रारम्भिक एवं अनिवार्य प्रायश्चित कर्म है। इसके पश्चात ही ईश्वर-उपासना संबंधी किये गए कार्यों में ही सफलता मिलती है। संध्या के दस अंग हैं-

1. संकल्प,

2. आसन, शोधन

3. आचमन,

4. प्राणायाम,

5. नित्य कृत पापक्षमार्थ अपामुपस्पर्श,

6. अवमृथ,

7. अघर्षण,

8. सूर्य-अघ्र्य,

9. सूर्योपस्थान,

10. गायत्रीजापश् ष्

प्रश्न: शिखा क्यों रखें?

उत्तर: यजुर्वेद कहता है ‘यशसे श्रिये शिखा’ कीर्ति और शोभा के निमित्त शिखा धारण करें। अतः संध्या वन्दन, गायत्री-जाप, यज्ञानुष्ठान में सर्वप्रथम शिखा होना आवश्यक है। द्विजमात्र के लिये शिखा होना धर्मशास्त्र का आदेश है धर्मशास्त्रों का आदेश है कि गायत्री मन्त्र से शिखा बांधकर ही संध्या-वन्दन, यज्ञ-अनुष्ठान आदि धार्मिक कृत्यों में प्रवृत्त हों। शिखा स्थल पर ब्रह्मरन्ध्र (दशम द्वार) होता है। यह मर्मस्थल जरा-सा उपद्रुत होने से मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है।

इस दशम द्वार की सुरक्षा हेतु वैदिक विज्ञान के अनुसार गोखुराकार शिखा रखने के निर्देश मिलते हैं। धर्मानुष्ठान में उपार्जित आध्यात्मिक शक्ति का विनाश न हो, एतदर्थ द्वार बन्द करने की भांति गांठ लगानी आवश्यक है। शिखा एक प्रकार से परब्रह्म परमात्मा से सम्पर्क स्थापित करने हेतु ‘ऐन्टेना’ का काम करती है। विद्युत शास्त्र का अटल सिद्धांत है कि नुकीले पदार्थ विद्युत शक्ति का भेदन करते हैं। अतः गांठ लगाना विद्युत सिद्धांत पर आधारित प्रक्रिया है।

प्रश्न: कुश का आसन क्यों?

उत्तर: धर्मशास्त्रों में लिखा है- नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमाध्नते। कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं गिरते, छाती में आघात नहीं होता। अर्थात अचानक ‘हार्ट अटैक’ नहीं होता। यह दूषित वातावरण को शुद्ध करता है। कुश (दर्भ) नान कन्डक्टर पदार्थ है। यह विद्युत संक्रमण में बाधक है। पार्थिव विद्युत प्रवाह पांवों के मार्ग से मानवपिण्ड में संचित आध्यात्मिक शक्ति को खींचकर विनष्ट कर देता है। उसकी रोक-थाम के लिए पांवों के नीचे आसन विछाना इसका वैज्ञानिक आधार है।

प्रश्न: धार्मिक अनुष्ठानों में कुश निर्मित अंगूठी (पवित्री) हाथों में क्यों पहनते हैं?

उत्तर: कुश-धारण का मुख्य प्रभाव वेद ने आयुष्य-वृद्धि एवं दूषित वातावरण को विनष्ट करना बतलाया है। अंतः इसे धार्मिक कार्यों में जल व अन्य पदार्थों के पवित्रीकरण हेतु हाथ में भी पहनते हैं। जप, पूजा-पाठ व अनुष्ठान के समय प्राप्त संचित शक्ति की रक्षा आसन व पांवों में खडाऊं पहनकर ही की जाती है। अतः यदि हाथों द्वारा शरीर में प्रविष्ट होने वाले ‘ईश्वर’ से आत्म-रक्षा न की जाय, तो इसका मस्तिष्क व हृदय पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हाथ द्वारा शक्ति-पंुज ‘अर्थ’ न हो जाए इसलिए हाथ में भी कुश मुद्रिका धारण करने का विधान रखा। अगर गलती से हाथ जमीन पर पड़ भी जाय तो पृथ्वी से ‘कुश’ का ही स्पर्श होगा, हाथ का नहीं।



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