हिंदू धर्म में व्रतों, पर्वों आदि की विशेष मान्यताएं हैं और उनसे जुड़ी अनेक कथाएं हैं। लेकिन बहुधा हमारे मन में इन कथाओं को लेकर प्रश्न उभरते हैं, जिज्ञासाएं पनपती हैं। हमारे मन में उठने वाले कुछ प्रश्न और समाधान यहां प्रस्तुत हैं।
व्रत व उपवास क्यों करना चाहिए?
व्रत को संस्कृत में उपवास कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ईश्वर की प्राप्ति। इसके अतिरिक्त यह इंद्रियों पर नियंत्रण तथा मन के शुद्धीकरण में भी हमारी सहायता करता है। इसलिए व्रत या उपवास करना चाहिए।
कोई विशेष व्रत विशेष तिथि को ही क्यों करना चाहिए?
मान्यता है कि किसी तिथि विशेष को देव पृथ्वी पर विचरण करते हैं। उनका सामीप्य बना रहे, हमारी पूजा अर्चना में भाग लेकर हमारे कष्टों का निवारण करें, इसी उद्देश्य से कोई विशेष व्रत किसी विशेष तिथि पर किया जाता है जिसका अपना महत्व होता है।
व्रत आदि पर कलावा (रक्षा सूत्र) क्यों बांधते हैं?
कलावा (रक्षा सूत्र) का उपयोग पूजा स्थल पर किए जाने वाले संकल्प को बांधने के लिए किया जाता है। यह साधक और साध्य के बीच तादात्म्य की कड़ी का भी प्रतीक है। यह आसुरी शक्तियों से साधक की रक्षा करता है। इसीलिए इसे पूजन आदि के अवसर पर बांधते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण व्रत या कथा कौन सी है और उसे कब और कैसे करना चाहिए?
सत्य नारायण व्रत कथा की विशेष महिमा है क्योकि इसमें विष्णु भगवान की आराधना की जाती है। सत्य को अपने जीवन और आचरण में उतारना सबसे बड़ा व्रत है जिसकी प्रेरणा हमें सत्य नारायण की व्रत कथा सुनने सुनाने से मिलती है। यद्यपि सत्य नारायण व्रत किसी भी दिन किया जा सकता है, किंतु प्रत्येक मास की पूर्णिमा को इसका आयोजन करने की विशेष महत्ता है। अधिकांश कथाओं के अंतर्गत उपकथा का समावेश होता है जैसे सत्यनारायण व्रत कथा में शौनकादिक ऋषियों, लकड़हारा, राजा उल्कामुख, व्यापारी, कलावती आदि ने कथा सुनी या कही। तो क्या सत्यनारायण भगवान की आराधना भक्तों की कहानी सुनना ही है?
भगवान अपने भक्तों को अपने से बड़ा मानते हैं। इसीलिए भगवान की कथा कहने के अतिरिक्त उनके भक्तों की कथा कहने की परंपरा भी रही है। भक्तों की कथा का फल भी वही होता है जो भगवान की कथा कहने या सुनने का होता है। ऊपर वर्णित प्रश्न में उल्लिखित भक्तों ने किस प्रकार सत्यनारायण भगवान की आराधना की होगी? अर्थात् मूल आराधना विधि क्या है?
षोडशोपचार पूजन ही शास्त्रोक्त विधि है। तदुपरांत मंत्र द्वारा भगवान की आराधना का विशेष महत्व है। जैसे विष्णु भगवान के लिए ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ या ‘ॐ नमो नारायणाय’ मंत्र विशेष प्रचलित है।
भगवान को प्रसाद क्यों चढ़ाया जाता है?
प्रसाद का एक शाब्दिक अर्थ है वह पदार्थ जो हमें शांति दे। इसीलिए भगवान को भोग लगाने के बाद हमें भी प्रसाद अवश्य ग्रहण करना चाहिए। भोजन भी एक यज्ञ है जो वैश्वानर भगवान (जठराग्नि) को अर्पित किया जाता है। अतः जिस वार को जो वस्तु दान दी जाती है उसे ही उस दिन ग्रहण करना उत्तम है।
क्या हनुमान जी की आराधना कन्याओ अथवा स्त्रियों को करनी चाहिए?
जैसे मनुष्य और पशु के बीच में स्त्री-पुरुष में भेद नहीं है उसी प्रकार देवता और मनुष्य के बीच में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है। इसीलिए हनुमान जी की आराधना कन्याएं और स्त्रियां भी कर सकती हैं और इसमें कोई भेद नहीं मानना चाहिए।
पूजन के समय तिलक क्यों लगाया जाता है?
दोनों भौंहों के बीच में आज्ञा चक्र स्थित है। इसी चक्र पर ध्यान केंद्रित करने पर साधक का मन पूर्ण शक्ति संपन्न हो जाता है। यह स्थान तृतीय नेत्र का भी है। तिलक लगाने से आज्ञा चक्र जाग्रत हो जाता है। तिलक सम्मान का सूचक भी है।
मूर्ति पूजा क्यों की जाती है?
चिंतन, मनन और तप के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक होती है और मन को एकाग्र करने के लिए किसी प्रतीक का होना जरूरी होता है। मूर्ति इसी प्रतीक का द्योतक है जिसकी पूजा की जाती है। यह प्रतीक कोई बिंदु, कोई मूर्ति अथवा कोई अन्य आकृति भी हो सकती है। ध्येय केवल एक है - मन की एकाग्रता।
पूजा किस दिशा की ओर उन्मुख होकर करनी चाहिए?
पूजा पूर्व दिशा की ओर उन्मुख होकर करना सर्वोत्तम होता है। अर्थात् साधक को पूर्व की ओर मुंह करके बैठना चाहिए। इसके अतिरिक्त उŸाराभिमुखी होकर भी पूजा की जाती है। यदि इन दो दिशाओं की ओर उन्मुख होकर पूजा करना किसी कारणवश सभंव न हो तो ईशान कोण की ओर भी मुँह करके पूजा कर सकते हैं।
आसन का क्या महत्व है?
आसन पूजा का एक अनिवार्य अंग है। इस पर बैठकर पूजा करने से मन की एकाग्रता बनी रहती है। कुश का आसन सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारे शरीर में संचित ऊर्जा को क्षय होने से बचाता है। इसके अभाव में ऊन अर्थात् कंबल के आसन का उपयोग भी किया जाता है। आसन का स्थिर व स्वच्छ होना आवश्यक है।
धूप, दीप आदि क्यों जलाते हैं?
दीप ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान अज्ञान को उसी तरह दूर करता है जिस तरह प्रकाश अंधकार को। ज्ञान की प्राप्ति ईश्वर से होती है। इसीलिए प्रत्येक व्रतानुष्ठान तथा अन्य शुभ कार्यों के अवसर पर दीप प्रज्वलन की प्रथा है। धूप इसलिए जलाया जाता है कि पूजा स्थल तथा आसपास का क्षेत्र सुवासित रहें।
चरणामृत क्यों ग्रहण किया जाता है?
चरणामृत का अर्थ है वह जल या दुग्ध जिससे ईश्वर का चरण पखारा गया हो। यह ईश्वर के प्रति हमारी निष्ठा का प्रतीक है। इसमें असीम शक्ति होती है। यह दुःख, कष्ट, दरिद्रता आदि से हमारी रक्षा करता है। इसीलिए हम चरणामृत ग्रहण करते हैं।