ड्स की आधुनिक परिभाषा है ‘‘एक्वायर्ड इम्युनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम’’। इससें हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्तियों का नाश हो जाता है। यह रोग एच. आई वी. (हृयूमनो इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस) विषाणुओं के संक्रमण के कारण होता है। यह विषाणु, किसी भी व्यक्ति के रक्त प्रवाह में प्रविष्ट हो कर, यह रोग उत्पन्न कर सकता है। यह रक्त या लैंगिंक द्रव्य शुक्र, या योनि स्राव द्वारा प्रसारित होता है, जो असुरक्षित सहवास या संक्रमित रक्त के घाव में पहुंचने के कारण होता है। इनकी प्रविष्टि अनेक व्यक्तियों के साथ यौन संबंध स्थापित करने से हो सकती है।
इसके अलावा उभयलिंगियों या समलिंगियों के साथ संबंध स्थापित करने से भी यह रोग उत्पन्न हो सकता है। वे स्त्री-पुरुष जो अनेक व्यक्तियों के साथ यौन संबंध स्थापित करते हैं, उन्हें रोग होने का खतरा सबसे अधिक होता है, जैसे वेश्याएं और उनके पास जाने वालों को विशेष रूप से यह रोग हो सकता है। एच. आई. वी. विषाणु प्रवेश के मुख्यतः चार मार्ग होते हैं: संभोग के समय वीर्य द्वारा। चुंबन के दौरान लार द्वारा। रोगग्रस्त मनुष्य के खून द्वारा। नशे के लिए एक ही सिरिंज के उपयोग द्वारा। एड्स के लक्षण: एड्स के आरंभिक लक्षण बड़े सामान्य होते हैं और अन्य रोगों के भी यही लक्षण होने से एड्स का संदेह नहीं होता।
अतः निम्न लक्षण उभरने पर परीक्षण करवाना आवश्यक है: वजन में कमी, जिसके कारण का पता न लगे। लसिका ग्रंथियों में सूजन। गले में, जांघों में, बगल में सूजी हुई गांठें। रह-रह कर ज्वर आना। रात में शरीर पसीने से तर होना। बार-बार पतले दस्त आना, जो दवाएं देने पर भी पूर्ण रूप से ठीक न हांे। मुंह और अन्न नालिका में सफेद दाग तथा छाले। धीरे-धीरे जैसे-जैसे रोग बढ़ता जाता है, एड्स का रोगी क्षय, निमोनिया, कैंसर जैसे भयानक रोगों से ग्रसित हो जाता है। क्योंकि दवाएं असर नहीं करतीं, इसलिए अंत में रोगी की मृत्यु हो जाती है। आयुर्वेद विज्ञान में इस रोग का कहीं भी विवरण नहीं मिलता। लेकिन एड्स से मिलतेजुलते लक्षण विभिन्न ग्रंथों में ओज क्षय के लक्षणों से समरूपता रखते हैं। ओज क्या है? मानव शरीर वायु, पित्त, कफ, इन तीन दोषों पर आधारित है तथा रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य, इन सात धातुओं से पोषित है।
पोषक आहार से सर्वप्रथम रस, रस से शरीर की रक्त वाहिनियों में बहने वाला शुद्ध-अशुद्ध रक्त, रक्त से मांसपेशियों में विद्यमान मांस से शरीर को सुडौल, स्निग्ध तथा सक्षम बनाने वाला मेद (चर्बी), मेद से अस्थियां, अस्थियों से मज्जा, मज्जा से वीर्य निर्मित तथा परिपुष्ट होते हैं। वीर्य से पूरे शरीर में व्याप्त होने और रहने वाला आधी अंगुली का ओज सारे मानवीय गुणों का ख़जाना है। इस ओज के कार्यों का शास्त्रों में उल्लेख है। सुश्रुत के मतानुसार रस आदि सातों धातुओं का अंतिम सत्व या तेज ओज है। यही बल है। बल का अर्थ शक्ति नहीं। ओज या बल से ही शारीरिक मांसपेशियों की सुगढ़ता, हर कार्य को निर्बाध रूप से करने की शक्ति, वाणी तथा शरीर के वर्ण का आकर्षक होना तथा सभी बाहरी और भीतरी कार्य का सुचारु संचालन होना संभव होता है। ओज अदृश्य है। ओज क्षय मृत्यु अथवा मृत्यु समान स्थिति है।
आज का ‘एड्स’ रोग इसी ओज के क्षीण होने का नाम है। एड्स से बचने के उपाय: अभी तक चिकित्सा विज्ञान को एड्स रोग के वायरस का मुकाबला करने वाली कोई भी दवाई नहीं मिल पायी। विज्ञानियों की खोज जारी है। फिर भी यह एक प्राणघातक रोग है। यौन संबंध केवल एक ही व्यक्ति तक सीमित रखें तथा संभोग के समय कंडोम का उपयोग संक्रमण रोक सकता है। हमेशा केवल एक बार इस्तेमाल की जाने वाली सुईं और सिरिंज का उपयोग करें। गर्भ निरोधक जेली, क्रीम जैसे साधनों के उपयोग से भी जीवाण्ुाओं का प्रवेश रुक सकता है। पुरुषों को संभोग के बाद गुप्तांग को अच्छी तरह साफ करना और मूत्र त्याग करना चाहिए। स्त्रियां सिर्फ गुप्तांग को पानी से स्वच्छ करें। अंदर के अवयव साफ करने के लिए पानी का डूश न लें। पति-पत्नी व्यभिचार या स्वेच्छाचार से दूर रहें, तो एड्स से बचाव हो सकता है। रक्त की आवश्यकता पड़ने पर एच आई वी. की जांच के पश्चात् ही रक्त चढ़वाना चाहिए। नशे का उपयोग कदापि न करें।
जिन स्त्रियों को एड्स हो, वे गर्भधारण न करें, अन्यथा आने वाला शिशु एड्स से ग्रसित हो कर जन्म लेगा। युवावस्था से ही यौन शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए, जिससे युवक और किशोर एड्स की रोकथाम कर सकें। याद रखने योग्य बातें एड्स एक लाइलाज रोग है, जिसके लिए अभी तक कोई दवा या टीका उपलब्ध नहीं है। एड्स का अर्थ है मौत। एड्स के लक्षण प्रकट होने में बहुत लंबा समय लगता है, क्योंकि संक्रमण के बाद इसके प्रकट होने में औसतन साढ़े सात वर्ष लग जाते हैं। Û इसके रोगी को क्षय रोग, कैंसर आदि रोग लगने की संभावना रहती है। ज्योतिष की दृष्टि से: आयुर्वेद में एड्स रोग की तुलना ओज क्षय से की जाती है, जिसमें व्यक्ति धीरे-धीरे मृत्यु के मुंह में धंसता जाता है। ज्योतिषीय दृष्टि से वीर्य, अर्थात् शुक्राणुओं का कारक शुक्र है और शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति के कारक सूर्य और मंगल हैं। शरीर की धमनियों में रक्त का संचार चंद्र से होता है। इसलिए जिस जन्मकुंडली में सूर्य, चंद्र, शुक्र और मंगल कमजोर हों, दुष्प्रभाव में हों, उन्हें एड्स या ओज क्षय जैसा रोग हो सकता है।
क्योंकि एड्स रोग में व्यक्ति धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त होता है, इसलिए शनि का प्रभाव, इन ग्रहों के अतिरिक्त, लग्न या लग्नेश, पंचम-पंचमेश और अष्टम-अष्टमेश पर होने से ही यह रोग संभव होता है। जबभी लग्न और उपर्युक्त ग्रह शनि और अन्य पापी ग्रहों के प्रभाव में रहेंगे, तो अपनी दशांतर दशा में ऐसा रोग अवश्य देंगे।
विभिन्न लग्नों में एड्स रोग की संभावना:
मेष लग्न: मंगल पंचम भाव में बुध के साथ हो और मंगल अस्त हो, शनि अष्टम या एकादश भाव में शुक्र के साथ हो और राहु या केतु नवम में हो, तो इस रोग की संभावना होती है।
वृष लग्न: बुध-शुक्र अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हों, लग्न में केतु गुरु से दृष्ट हो और गुरु, लग्न और अष्टम भाव पर शनि की दृष्टि हो, मंगल शनि से दृष्ट या युक्त हो।
मिथुन लग्न: लग्नेश बुध मंगल से युक्त हो कर दशम भाव में हो और अस्त न हो, शुक्र अष्टम भाव में, सूर्य-शनि भी अष्टम भाव में और केतु पंचम भाव में चंद्र से युक्त हो।
कर्क लग्न: लग्नेश पंचम भाव में राहु केतु से दृष्ट हो, गुरु लग्न में अपने ही नक्षत्र पुष्य में बुध से युक्त हो, बुध अपने ही नक्षत्र अश्लेषा में रहे, मंगल अस्त, द्वादश भाव में शुक्र द्वितीय भाव में शनि से दृष्ट या युक्त हो, तो शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होती जाती है।
सिंह लग्न: सूर्य द्वितीय भाव में राहु से युक्त हो और शनि लग्न में कृतिका नक्षत्र पर हो तथा चंद्र से युक्त हो, मंगल सातव भाव में, शुक्र द्वितीय भाव में, बुध चतुर्थ भाव में स्थित हों।
कन्या: लग्नेश बुध छठे भाव में शनि से युक्त, या दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में चंद्र के साथ हो, सूर्य पंचम में और शुक्र अस्त हो, केतु लग्न में हो, तो ऐसे रोग की संभावना होती है।
तुला लग्न: लग्नेश शुक्र अष्टम भाव में, बुध छठे भाव में, मंगल-सूर्य पंचम भाव में, पू. भद्रा नक्षत्र में, शनि ग्यारहवें भाव में हो, तो ऐसे रोग की संभावना होती है।
वृश्चिक लग्न: मंगल अष्टम भाव में बुध के साथ, शुक्र सप्तम भाव में केतु और चंद्र से युक्त होने से ऐसे रोगों की संभावना होती है।
धनु लग्न: बुध लग्न में, शुक्र से युक्त सूर्य द्वितीय भाव में, शनि अष्टम भाव में, मंगल से युक्त लग्न राहु से युक्त, या दृष्ट हो, लग्नेश अस्त हो, या अष्टम भाव में हो।
मकर लग्न: लग्न में गुरु, शनि सप्तम भाव में, चंद्र, बुध, शुक्र अष्टम भाव में, सूर्य नवम भाव में राहु से दृष्ट, या युक्त हो, तो रोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
कुंभ लग्न: चंद्र-मंगल लग्न में, सूर्य-बुध अष्टम में, शुक्र नवम में शनि-गुरु से दृष्ट लग्नेश त्रिकोण या केंद्र में हो और राहु-केतु से प्रभावित या युक्त हो, तो रोग की संभावनाएं होती हैं।
मीन लग्न: बुध लग्न में शनि से युक्त, लग्नेश छठे भाव में सूर्य से युक्त और अस्त हो, चंद्र-शुक्र द्वितीय भाव में और मंगल अष्टम भाव में हो, तो रोग की संभावनाएं होती हैं। उपर्युक्त सभी योग अपनी दशा-अंतर्दशा और गोचर स्थिति से प्रभावित हो कर रोग उत्पन्न करते हैं।