व्रत-उपवास की अंतर्निहित धारणा दिलीप कुमार मूलतः व्रत की अंतर्निहित धारणा आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक है। यह मन का अनुशासन है। यह मन को चंचलता रहित, निर्मल, निष्कपट, निःस्पृह एवं पवित्र करने का सर्वोत्तम साधन है। व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है, जो शुद्ध, सरल एवं सात्विक हों तथा जिनका विशेष मनोयोग एवं निष्ठापूर्वक पालन किया गया हो। व्रत शब्द वैदिक धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की एक अनूठी देन है। चारों वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, मनुस्मृति एवं साहित्यिक ग्रंथों में व्रत शब्द अनेक बार आया है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में व्रत प्रतिज्ञा-पालन और दुर्गुणों का परित्याग कर सद्गुणों को धारण करने के लिए दृढ़ निश्चय एवं दृढ़ संकल्प के अर्थों में आया है। व्रत शब्द के विविध अर्थ होते हैं जैसे - आज्ञापालन, धार्मिक कर्तव्य, देवता की उपासना, नैतिक आचरण, विधियुक्त प्रतिज्ञा, अंगीकृत कार्य इत्यादि। ऋग्वेद में व्रत शब्द का अर्थ है - ईश्वरीय आज्ञा। अथर्ववेद में इस शब्द का अर्थ है धार्मिक कृत्य अंगीकार करने का निश्चय - ‘समानो मंत्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तमेषाम्।’ प्रायश्चित करते समय कतिपय कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है जिसे मनुस्मृति में व्रत कहा गया है। महाभारत में व्रत शब्द का अर्थ धार्मिक कृत्य, प्रतिज्ञा आदि है। पुराणादि में इसका अर्थ - विशिष्ट तिथि में, विशिष्ट वार में, विशिष्ट मास में विशिष्ट देवता की पूजा करके अपना इच्छित हेतु साध्य करने के लिए कुछ अन्न सेवन एवं इतर आचरण के निर्बंध पालन से है। अमरकोश में तो व्रत और नियम प्रायः समानार्थी शब्द हैं। मिताक्षरा में इसका अर्थ है कुछ क्रिया करने का और कुछ क्रिया करने का निश्चय। निष्कर्षतः सत्कर्म व्रत है। अभीष्ट कर्म करने का संकल्प व्रत है। धर्माचरण व्रत है। शास्त्रविहित नियमों का पालन करना व्रत है। इसलिए कहा गया है -‘प्रियते इति व्रतम’ अर्थात् जिसका वरण, ग्रहण, अनुपालन, आचरण किया जाए वही व्रत है। आर्य संस्कृति में, श्रीराम की परंपरा में व्रत का संबंध आचरण से है। बुराई को छोड़ने और सच्चाई एवं भलाई को दृढ़तापूर्वक अपनाने का नाम व्रत है। भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया था। यहां व्रत का अर्थ संकल्प है। श्रीराम का जीवन दृढ़व्रत का पर्याय है- ‘सत्यसंघ दृढ़व्रत रघुराई’। गोस्वामी तुलसीदास जी भरत जी के व्रत-नियम का गुनगान करते हुए कहते हैं - प्रनवऊ प्रथम भरत के चरणा। जासु नेम व्रत जाई न बरना।। श्री हनुमान जी के सेवा व्रत से सभी परिचित हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के काल में महात्मा गांधी ने ‘सत्य एवं अहिंसा’ का व्रत लिया था। अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों के हाथों न मरने का व्रत लिया था। व्रत में उपवास का विधान है। केवल अन्न-जल के परित्याग से ही उपवास की पूर्ति नहीं होती। उपवास का शाब्दिक अर्थ है - ”उप समीपे वासः।“ समीप में रहना अर्थात् अपने इष्टदेव के पास रहना। मानव ने जो लक्ष्य धारण किया है, जो व्रत धारण किया है, उसके समीप उसका वास होना। तैत्तिरीयोपनिषद में व्रत के विषय में कहा गया है - ‘अन्नं न निन्द्यात्। तद् व्रतम। अन्नं बहु कुर्वीत। तद् व्रतम।’ अर्थात् अन्न की निंदा मत करो, वह एक व्रत है। अन्न को बढ़ाना एक व्रत है। मेडिकल साइंस कहता है मधुमेह के रोगी, गर्भवती महिला, गैस्ट्रिक के रोगी, पेप्टिक अल्सर के रोगी आदि उपवास न करें, अर्थात् अन्न न त्यागें, वरना लाभ की जगह हानि होगी। प्रायः देखा जाता है कि व्रत के नाम पर अन्न का त्याग होता है। कई जगह क्षेत्रीय परंपरा के अनुसार कर्मकांड होता है, स्वार्थपरक व्रत का चुनाव होता है। व्रत लिया नहीं जाता, किया जाता है। यही कारण है कि व्रत के दिन भी तथाकथित व्रती ईष्र्या, दोष, क्रोध, मोह, स्वार्थ, वैमनस्यता आदि को छोड़ नहीं पाता है। व्रत एक औपचारिकता बन कर रह गया है। व्रत नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? ‘व्रतानां सत्यमुत्तमम्’-व्रतों में सत्य व्रत ही सबसे उत्तम है। तैत्तिरीयोपनिषद में दीक्षांत उपदेश के सनातन आदर्श सूत्र रूप में दिए गए हैं - ‘सत्यं वद।’ धर्मं चर।’ ईश्वर सत्य स्वरूप है और सत्य ईश्वर का भाव विग्रह है। अतः मन, वाणी और कर्म में सत्य को प्रतिष्ठित करना, विचार और आचरण में सत्य को धारण करना सर्वोपरि व्रत है। श्रीमदभागवत में एक प्रसंग आया है। कंस के कारागार में बंद देवकी के गर्भ में जब भगवान ने प्रवेश किया तो भगवान शंकर और ब्रह्मा जी उस कारागार में आए। उनके साथ समस्त देवता और ऋषिगण भी थे। उन सभी ने भगवान श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति की- सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं, सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये। सत्यस्च सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः।। अर्थात् प्रभो! आप सत्य संकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय इन तीनों अवस्थाओं में आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें आप अंतर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। भगवन! आप तो बस सत्य स्वरूप ही हैं। हम सब आपके शरणागत हैं। भगवान के इसी सत्य स्वरूप को जनमानस में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से श्री सत्यनारायण व्रत कथा का उल्लेख पुराणों में हुआ है। यह कथा पूजापरक है, किंतु कथा के माध्यम से संदेश दिया गया है कि सत्य ही नारायण का रूप है और सत्य व्रत का पालन करने से हम नारायण को प्राप्त कर सकते हैं। व्रत पाप से बचाता है। आम धारणा है कि जीवन में अनाचार, भ्रष्टाचार एवं अत्याचार करते जाओ और साथ-साथ व्रत भी करते जाओ तो पाप कट जाएंगे। ऐसे लोग ईश्वर के अटल नियम कर्मफल सिद्धांत को, वेद, शास्त्र उपनिषद एवं गीता को चुनौती देते हैं। व्रत करने से किया हुआ पाप कटता या मिटता नहीं है। कर्मों का भोग आज नहीं तो कल भोगना ही होगा। दृढ़ प्रतिज्ञा से जब कोई बुराई छोड़ देता है तो दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति का सुधार होता है। तभी उद्धार है। डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इसी प्रसंग में लिखा है- ष्म्अमतल ेंपदज ींे ं चंेज ंदक मअमतल ेपददमत ींे ं निजनतमण्ष् प्रत्येक महात्मा सज्जन का एक अतीत और प्रत्येक पापी का एक भविष्य है। कारण? जीव कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। तभी तो एक विचारक ने भारतीय आस्तिक दर्शन पर एक महत्वपूर्ण वाक्य लिखा है - ष्ज्ीम क्ववत व िइसपेे पे ंसूंले वचमदण्ष् यदि वर्ष में दो चार दिन अन्न त्यागकर, छोटा-मोटा कर्मकांड कर व्रत करने से पाप और दोष कट जाते तो देश में जेल, कचहरी, कोर्ट, न्यायाधीश आदि की व्यवस्था क्यों होती। हत्यारे को कहा जाता, बस तुम एक व्रत कर लो दोष कट जाएगा। मन मारकर एक दिन तो पशु पक्षी भी भूखे रह सकते हंै। लेकिन, इसे हम व्रत नहीं कह सकते। व्रत एक संकल्प है दुराचार न करने का। व्रत ईश्वरीय नियमों का पालन है। व्रत इच्छाशक्ति है दुष्कर्म से खुद को बचाने का। छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है - ‘महामनाः स्यात् तदव्रतम्’ अर्थात् बड़े मन वाले बनो, यह व्रत है। गीता में कहा गया है- नात्यश्रनतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का सिद्ध होता है। अर्थात् अन्न त्यागना ही व्रत का पर्याय नहीं है। गीता में ही कहा गया है - ‘अन्नाöवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः’ अर्थात् सभी प्राणि अन्न से उत्पन्न होते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद में भी कहा गया है- ‘अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते अन्नेन जातानि जीवन्ति।’ अर्थात् सब प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्न से ही जीते हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि व्रत का अर्थ है आत्मशोधन के निमित्त किए गए विधिसम्मत उपायों को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहना। व्रतों का प्रयोजन दुर्गुणों, कषाय-कल्मर्षों का निष्कासन एवं संस्कारों का उदात्तीकरण है। व्रत का अर्थ है सत्कर्म की संकल्पशक्ति अर्थात् उच्च स्तरीय नियमों का प्रतिज्ञापूर्वक पालन। व्रत रूपी संकल्प के अनेक आदर्श धर्म ग्रंथों में भरे पड़े हैं। व्रत के अधिकारी कौन हो सकते हैं, इसका निरूपण करते हुए वेदव्यासजी स्कन्दपुराण में लिखते हैं- निजवर्णाश्रमाचारनिरतः शुद्धमानसः। अलुब्धः सत्यवादी च सर्वभूतहिते रतः।। व्रतेष्वधिकृतो राजन्नन्यथा विफलः श्रमः। श्रद्धावानपापभीरूश्च मददम्भविवर्जितः।। पूर्वं निश्चयमाश्रित्य यथावत्कर्मकारकः। अवेदनिन्दको धीमानधिकारी व्रतादिषु।। अर्थात् जो वर्णाश्रम धर्म का पालन करता हो, जिसका मन शुद्ध हो, जो लोभी न हो, सत्यवादी हो, सब प्राणियों के कल्याण में संलग्न रहता हो, जिस व्रत का पालन करना चाहता हो उसके प्रति श्रद्धावान हो, पाप से डरता हो, घमंड एवं दंभ से रहित हो और जो व्रत करने का उसने पूर्व में निश्चय किया हो, उसके नियमादि का यथावत पालन करने वाला हो, वेदों की निंदा करने वाला न हो वही बुद्धिमान व्यक्ति व्रत करने का अधिकारी है। आर्ष परंपरा के ये जो पांच यम हैं, यह सार्वभौमिक व्रत है। जैन परंपरा के लोग इन्हें व्रत नहीं अपितु महाव्रत कहते हैं। इसी प्रकार पांच नियमों का योगदर्शन में विधान किया गया है। यमों को हम सार्वजनिक अनुशासन कहेंगे और शौर्य, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं प्रणिधान को व्यक्तिगत जीवन का अनुशासन कहा जाएगा। यह आवश्यक भी है। इसका विकल्प नहीं है। इसमें से एक का भी उल्लंघन होने से संसार में क्लेश, द्वेष, पाप, ताप एवं पतन की बाढ़ को कोई नहीं रोक सकता है जो कि आज सर्वत्र देखने को मिल रही है। इसलिए ऋग्वेद में कहा गया है- देवानां परि भूषसि व्रतम्। प्रभो! आप देवों को देवों की वृत्तिवाले गुनियों को व्रतों से अलंकृत करने वाले हैं। ऋग्वेद में मानव को प्रबल प्रेरणा देते हुए कहा गया है- ‘राज्ञो नु तो वरुणस्य व्रतानि’ अर्थात् जैसे प्रभु के सब कार्य लोकहितकारी एवं कल्याणकारी हैं, हे मनुष्य! तेरे व्रत, तेरे सत्कर्म भी सर्वहितकारी हों। श्रीगुरुग्रंथसाहिब में भी ‘निर्दिष्ट व्रत’ पद उपर्युक्त सभी आदर्शों का द्योतक है। व्रत की व्याख्या के प्रसंग में श्री गुरुग्रंथ साहिब में सत्य, अहंकार त्याग, शील, संतोष आदि आध्यात्मिक संपदा को उत्तम व्रत की संज्ञा दी गई है- सचु वरतु संतोखु तीरथु गिआनु धिआनु इसनानु। जप तपु संजमु हउमै मारि। खिमा गही ब्रतु सील संतोखम्। श्री गुरुग्रंथ साहिब में मानव जीवन की उस विडंबना को भी दिखाया गया है, जिसके अधीन होकर मनुष्य कभी लोक दिखावे अथवा पाखंड के लिए और कभी स्वार्थवश, लोभवश व्रत, नियम एवं संयम आदि जीवन में धारण करता है और व्रतानुष्ठान के सही उद्देश्य से विचलित हो जाता है। वास्तव में व्रत का अर्थ भूखे रहना नहीं अपितु, आहार पर संयम है। संयम केवल जिह्वा पर ही नहीं, अन्य इंद्रियों पर भी आवश्यक है। मूलतः व्रत की अंतनिर्हित धारणा आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक है। यह मन का अनुशासन है। यह मन को चंचलता रहित, निर्मल, निष्कपट, निःस्पृह एवं पवित्र करने का सर्वोत्तम साधन है। व्रत का आध्यात्मिक अर्थ उन आचरणों से है, जो शुद्ध, सरल एवं सात्विक हो तथा जिनका विशेष मनोयोग एवं निष्ठापूर्वक पालन किया गया हो। आज व्रत में शुद्धाचरण को त्याग कर तन की शुद्धता पर जोर दिया जाता है। अरबा भोजन या उसना भोजन, व्रत के एक दिन पहले से उपवास या दो दिन बाद तक उपवास, आदि में असल भाव उलझ कर रह गया है। बात अपने हित की हो अथवा दूसरे के हित की, जो शुद्ध हो उसका निष्ठापूर्वक पालन करना ही व्रत कहलाता है। सृष्टि का संचालन नियमपूर्वक चल रहा है। सूर्य अपने निर्धारित नियम के अनुसार चलते रहते हैं। चंद्रमा की कलाओं का घटना बढ़ना सदैव क्रम से होता रहता है। सारे के सारे ग्रह नक्षत्र अपने निर्धारित पथ पर ही चलते रहते हैं। इसी से सारी दुनिया ठीक से चल रही है। अग्नि, वायु, समुद्र, पृथ्वी सभी अपने-अपने व्रत के पालन में तत्पर हैं। मानव समाज ही आज मानवीय व्रत भूलकर अमानवीय कृत्य में लग गया है। अहिंसा मानव समाज का सहज व्रत है। अहिंसा एक ऐसा व्रत है जिसके पालन से जीवमात्र में वैर भाव ही निर्मूल हो जाता है। श्रुति कहता है- ‘मा हिंस्यात् सर्वाणि भूतानि’ अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। सफल जीवन निर्वाह में ‘वाक्संयम व्रत’ का महत्वपूर्ण स्थान है। शब्द को विधा विशेष में ध्वनित करने की क्षमता परमात्मा ने प्राणी जगत में मात्र मानव को ही दी है। वाक्संयम व्रत समस्त सिद्धियों का दाता है। वाक्संयम से समाज में मैत्री भाव का विकास होने के साथ लोक कल्याण की भावना भी निरंतर बनी रहती है। वेद शास्त्रों में ऋषियों, मनीषियों, श्री राम व कृष्ण ने वाक्संयम व्रताचरण निमित्त जो हृदयग्राही विधि-निषेधात्मक शिक्षा दी है। उसका संक्षेप में अनुशीलन इस प्रकार है- वाक्संयम व्रत में सत्य, प्रिय, मधुर, हित, मित और मांगल्यवाणी का प्रयोगाभ्यास और निंदा, विकथा, परिहास, सांसारिक विषय चर्चा, अश्लील एवं अनर्गल प्रलाप का परित्याग होता है। जीवनपथ को सरस और पवित्र बनाने के लिए शौचाचार एवं सदाचार व्रत को सुदृढ़ सोपान, आधारभूत उत्कर्षकारक बताया गया है। शौच का अर्थ है शुद्धता। शुद्ध और पवित्र कार्य-कलाप शौचाचार कहलाता है। स्वरूप भेद के अनुसार शुद्धता या पवित्रता के तीन भेद हैं- कायिक अर्थात् शरीर की शुद्धता, वाचिक अर्थात् वाणी की शुद्धता और मानसिक अर्थात् मन की शुद्धता। आज जो व्रत उपवास लोग रखते हैं या करते हैं, उसमें कायिक शुद्धता अर्थात् शरीर की शुद्धता या सामग्री शुद्धता पर जोर दिया जाता है। वाचिक और मानसिक शुद्धता का सर्वत्र लोप हो चुका है। भारतीय मनीषियों ने आत्मसात करते हुए इसकी उपादेयता को मुक्तकंठ से व्यक्त किया है और कहा है शौचाचार के बगैर समस्त क्रिया निष्फल है- शौचे यत्नः सदा कार्यः शौचमूलो यतो द्विजः। शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फला क्रियाः। मन, वाणी और कर्म की पवित्रता, शुद्धता को शुचिता कहा जाता है। मन में विकारों का न आना मन की निर्मलता तथा पवित्रता है। वाणी से मधुर, कल्याणकारक, प्रिय सत्यसंभाषण वाणी की पवित्रता है। शरीर शुद्ध हो और मन अशुद्ध हो तो सब व्यर्थ है। मन के शुद्ध होने पर ही क्रिया की शुद्धि होती है। क्रिया शुद्धि को ही शौचाचार का सारतत्व माना जाता है। सामान्यतः व्यक्ति के क्रियाकलाप और व्यवहार को आचार कहते हैं। सात्विक, पवित्र आचरण को सदाचार कहा जाता है। इस प्रकार शौचाचार तथा सदाचारव्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाला व्रती शाश्वत कल्याण प्राप्ति का पथिक बन जाता है। निष्कर्षतः व्रताचरण से मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता प्राप्त होती है। मुख्य रूप से हमारे समाज में तीन प्रकार के व्रत प्रचलित हैं - 1. नित्य 2. नैमित्तिक और 3. काम्य। नित्य वे व्रत हैं जो भक्तिपूर्वक भगवान की प्रसन्नता के लिए निरंतर कर्तव्य भाव से किए जाते हैं। किसी निमित्त से जो व्रत किए जाते हैं वे नैमित्तिक व्रत कहलाते हैं और किसी विशेष कामना को लेकर जो व्रत किए जाते हैं वे काम्य व्रत कहे जाते हैं। सभी प्रकार के व्रतों में मानस व्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य मकल्मषम। एतानि मानसान्याहुव्र्रतानि व्रत धारिणि।। (वराह पुराण)