पुत्रदा एकादशी वैसे तो यह एकादशी अन्य एकादशियों की तरह ही सभी प्रकार के मनोवांछित फल प्रदान करने वाली है, किंतु पुत्र प्राप्ति के लिए इसका विशेष महत्व है। यह व्रत श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को रखा जाता है। प्रातः काल उठकर स्नानादि दैनिक कार्यों से निवृŸा होकर श्रीहरि विष्णु भगवान् की प्रतिमा को दूध, दही और शुद्ध जल से स्नान कराकर रोली, चंदन, पुष्प, धूप, दीप आदि से पूजन करके कपूर, दीपक से भक्ति-भावनापूर्वक आरती की जाती है और फिर प्रसाद भक्तों में बांटा जाता है। इस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराने और यथाशक्ति दान-दक्षिणा देने से विशेष फल प्राप्त होता है। श्री पद्मपुराण में कथा है कि द्वापर युग में महिष्मतीपुरी का राजा महीजित् एक शांति एवं धर्मप्रिय व्यक्ति था। लेकिन वह पुत्र-विहीन था। राजा के शुभचिंतकों ने यह बात महामुनि लोमश को बताई तो उन्होंने बताया कि यह व्यक्ति पूर्व जन्म में एक अत्याचारी, धनहीन वैश्य था। इसी एकादशी के दिन दोपहर के समय वह प्यास से व्याकुल होकर एक जलाशय पर पहुंचा, तो वहां गर्मी से पीड़ित एक प्यासी गाय को पानी पीते देखकर इसने उसे रोक दिया और स्वयं पानी पीने लगा। अपने पुण्य कामों के फलस्वरूप वह राजा तो बना, किंतु उस एक पाप के कारण पुत्र-विहीन है। पुनः महामुनि ने बताया कि राजा के सभी शुभचिंतक यदि ‘श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को विधिपूर्वक यह व्रत करें और उसका पुण्य राजा को दे दें तो निश्चय ही उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। इस प्रकार मुनि के निर्देशानुसार प्रजा के साथ-साथ जब राजा ने भी यह व्रत रखा, तो कुछ समय बाद रानी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। तभी से इस एकादशी को पुत्रदा एकादशी कहा जाता है।