प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार व्रत के नियम-विधान एवं महत्व डा. राजेश जी उपाध्याय ‘नार्मदेय’ यदि देखा जाए तो सभी धर्मों में संकल्पों एवं व्रतों की व्यवस्था है। जैमिनी ने व्रत को एक मानस क्रिया बताया है, जो प्रतिज्ञा के रूप में होती है। अग्नि पुराण ने व्यवस्था दी है कि शास्त्र द्वारा घोषित नियम ही व्रत है....। ‘‘व्रतं हि कर्तृसंतापातय इत्यभिधीयते इन्द्रिय ग्राम नियमन्न्ाियक्षाभिधीयते’’ वस्तुतः व्रत, पर्व, उत्सव आदि प्रभु की समीपता प्राप्त करने के साधन हैं। लोग समय-समय पर ऐसे अनुष्ठान आदि करते हैं, जिनसे सबल आत्मविश्वास एवं दिशा प्राप्त होती है। व्रत शब्द की उत्पŸिा वृ (वृŸा वरणे अर्थात वरण करना या चुनना) से मानी गई है, जिसका अर्थ है- ‘संकल्प, आदेश, विधि, निर्दिष्ट, व्यवस्था, वशता, आज्ञाकारिता, सेवा, स्वामित्व, व्यवस्था, निर्धारित उŸाराधिकार, वृŸिा, आचारिक कर्म, प्रवृŸिा में संलग्नता रीति, धार्मिक कार्य, उपासना, कर्तव्य, अनुष्ठान, धार्मिक तपस्या, उŸाम कार्य आदि। वृत से ही व्रत की उत्पŸिा मानी गई है। ऋग्वेद में ‘वृत’ शब्द का प्रयोग इस प्रकार हुआ है- ‘सर्वर्भानोरध यदिन्द्र माया अवो दिवो वर्तमाना अवाहन। रथं वामनुगायसं य दूषा वर्तते सह। न चक्रमभि बाधते नीचा वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्यहस्तासो हस्तवंते सहन्ते।’ भक्तजनों की मान्यता है कि देवांे ने कुछ अनुशासन अथवा आदेश निर्धारित किए हैं, जिनका वे स्वयं तथा अन्य जीवगण अनुसरण करते हैं। इससे विधि-विधान या कानून का भाव स्पष्ट हो जाता है। जब लोग ऐसा विश्वास करते हैं या अनुभव करते हैं कि उन्हें कुछ कर्म देवों द्वारा निर्धारित समझकर करने चाहिए, तब वे उपासना करते हंै जिससे पुनीत संकल्प या धार्मिक आचार एवं कर्तव्य के भाव की सृष्टि होती है। इसीलिए लोग देवों के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए अपने आचरण या भोजन को नियंत्रित करके उपवास करते हंै। व्रत को दैवी आदेश या आचरण संबंधी नैतिक विधियों के अर्थ मंे लिया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘इंद्र के सहायक मित्र विष्णु के कर्मों को देखो जिनके द्वारा वह अपने व्रतों अर्थात् आदेशों की रक्षा करता है- ‘विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे इंद्रस्य युज्यः सखा।।’ यह उदाहरण अथर्ववेद और वाजसनेयी संहिता में भी आया है- व्रतमुपैष्यन् ब्रूयादग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामीति।। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- ‘‘व्रतेन त्वं व्रतपते समक्तो विश्वाहा सुमना दीदिहीह।’’ वैदिक संहिताओं में कहीं-कहीं व्रत को किसी धार्मिक कृत्य या संकल्प संलग्न व्यक्ति के लिए व्यवस्थित किया गया है। ब्राह्मण उपनिषदों में बहुधा अधिक स्थलों पर व्रत का दो अर्थों में प्रयोग हुआ है- एक धार्मिक कृत्य या संकल्प तथा आचरण एवं भोजन संबंधी रोक के संदर्भ में और दूसरा उपवास करते समय भक्ष्य अभक्ष्य भोजन के संदर्भ में। प्राचीन काल में लोगों में एक मान्यता थी कि देवतागण वैसे किसी व्यक्ति की हवि नहीं ग्रहण करते जो व्रत का पालन नही करता है। अतः वह उपवास करता है ताकि देवतागण प्रसन्न रहें और उसके यज्ञ कर्म में भाग लें। यदि देखा जाए तो सभी धर्मों में संकल्पों एवं व्रतों की व्यवस्था है। जैमिनी ने व्रत को एक मानस क्रिया बताया है, जो प्रतिज्ञा के रूप में होती है। अग्नि पुराण ने व्यवस्था दी है कि शास्त्र द्वारा घोषित नियम ही व्रत है। इसी को तप भी कहा गया है, क्योंकि इसमें कठिनाई सहते हुए नियम का पालन करना पड़ता है। शास्त्रोदिति हि नियमो व्रतं तच्च तपो मतम्/नियमस्तु विशेषास्तु व्रतस्यैव दमादयः/व्रतं हि कर्तृसन्तापाŸाम इत्याभिधीयते/ इंद्रियगा्रम निमन्नियश्चाभिधीयते। अमरकोश के अनुसार, नियम एवं व्रत एक हैं। व्रत में उपवास आदि होते हैं जो पुण्य उत्पन्न करते हैं। श्रीदŸा ने ‘समयप्रदीप’ में लिखा है कि व्रत एक निर्दिष्ट संकल्प है जो किसी विषय से संबंधित है जिसमें कर्तव्य के साथ अपने को बांधते हैं- ‘स्वकर्मविषयो नियतः संकल्पोव्रतम्।’ धर्मसिंधु ने व्रत को पूजा आदि से संबंधित धार्मिक कृत्य माना है। अग्निपुराण में कहा गया है कि व्रत करने वालों को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए, सीमित मात्रा में भोजन करना चाहिए और देवों का सम्मान करना चाहिए। इसमें होम एवं पूजा में अंतर माना गया है। विष्णु धर्मोŸार पुराण में व्यवस्था है कि जो व्रत-उपवास करता है, उसे इष्टदेव के मंत्रों का मौन जप करना चाहिए, उनका ध्यान करना चाहिए, उनकी कथाएं सुननी चाहिए और उनकी पूजा करनी चाहिए। इसमें होम, योग एवं दान के महत्व को समझाया गया है। व्रतों में कम प्रयास पता- श्री कृष्ण सदन, श्री जगदंबा दरबार राजेंद्र मित्र मंदिर के पीछे, शहडोल (म. प्र.)-484001 से अधिक फलों की प्राप्ति होती है। व्रतों में इसी लोक में रहते हुए पुण्य फल प्राप्त हो जाते हैं। व्रत कोई भी कर सकता है। भारतवर्ष में ईसा पूर्व एवं पश्चात् व्रतों की व्यवस्था प्रचलित थी। कुछ व्रत ब्रह्मचारियों के लिए और कुछ स्नातकों के लिए निश्चित थे। कालिदास वाङमय, मृच्छकटिक, रत्नावली आदि में इसका उल्लेख है। राजा भोज के राजमार्तण्ड में 24 व्रतों का उल्लेख है। हेमाद्रि में 700 व्रतों के नाम बताए गए हैं। गोपीनाथ कविराज ने 1622 व्रतों का उल्लेख अपने व्रतकोश में किया है। किंतु अशौच अवस्था में व्रत नहीं करना चाहिए। जिसकी शारीरिक स्थिति ठीक न हो, व्रत करने से उŸोजना बढ़े और व्रत रखने पर व्रत भंग होने की संभावना हो उसे व्रत नहीं करना चाहिए। व्रती में व्रत करते समय निम्नोक्त 10 गुणों का होना आवश्यक है- क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, देवपूजा, अग्निहवन, संतोष एवं अस्तेय। देवल के अनुसार ब्रह्मचर्य, शौच, सत्य एवं अमिषमर्दन नामक चार गुण होने चाहिए। व्रत के दिन मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए। पतित, पाखंडी तथा नास्तिकों से दूर रहना चाहिए और असत्य भाषण नहीं करना चाहिए। उसे सात्विक जीवन का पालन और प्रभु का स्मरण करना चाहिए। साथ ही कल्याणकारी भावना का पालन करना चाहिए।