प्रदोष व्रत सर्यास्त और रात्रि के संधिकाल को प्रदोष काल माना जाता है। वस्तुतः इस काल में शिव-पार्वती की पूजा की जाती है, इसलिए इसे प्रदोष व्रत कहा जाता है। विभिन्न वारों के प्रदोष व्रत के फलों का विवरण इस प्रकार है। रवि प्रदोष - सुख-समृद्धि, आजीवन आरोग्यता और दीर्घायु। सोम प्रदोष - सभी मनोकामनाओं की सिद्धि। मंगल प्रदोष - पाप मुक्ति, उŸाम स्वास्थ्य व रोग मुक्ति। बुध प्रदोष - सभी प्रकार की कामना सिद्धि और कष्ट से मुक्ति। गुरु प्रदोष - शत्रु शमन एवं कार्य सिद्धि । शुक्र प्रदोष - स्त्री को सौभाग्य, समृद्धि व कल्याण । शनि प्रदोष - समृद्धि एवं पुत्र की प्राप्ति। यह व्रत प्रत्येक मास की कृष्ण व शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को रखा जाता है। लेकिन इसमें वार का अधिक महत्व है, इसीलिए वार के अनुसार ही पूजन करने का विधान है। इस दिन ब्राह्म मुहूर्त में उठकर नित्य कर्म जैसे स्नानादि से निवृŸा होकर श्रद्धा के साथ शिव-पार्वती का ध्यान करके व्रत प्रारंभ करना चाहिए। दिन भर उपवास रखते हुए पुनः सायंकाल स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें। फिर बिल्व पत्र, कमल, धतूरे के फल, पुष्प आदि से शिव या शिवलिंग की पूजा करें और ‘¬ नमः शिवाय’ मंत्र का यथासंभव जप करें। तत्पश्चात् पार्वती का भी विधिपूर्वक पूजन करें। कथा एवं आरती के बाद ब्राह्मण को यथासंभव दान-दक्षिणा देकर सात्विक भोजन ग्रहण करें। कथा है कि प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी भिक्षा मांग कर अपने पुत्र के साथ जीवन-निर्वाह कर रही थी। एक दिन उसकी भेंट विदर्भ देश के राजकुमार से हुई। राजकुमार अपने पिता की मृत्यु हो जाने के शोक में मारा-मारा घूम रहा था। उसकी दशा देखकर ब्राह्मणी को दया आई। वह उसे अपने साथ घर ले आई और अपने पुत्र के समान पालने लगी। एक दिन ब्राह्मणी को शांडिल्य ऋषि की कृपा से प्रदोष व्रत करने की प्रेरणा मिली और वह व्रत करने लगी। थोड़े दिनों बाद इसी व्रत के प्रभाव से उसके कष्ट दूर हुए और विदर्भ कुमार को राज्य प्राप्त हो गया।