श्री सत्यनारायण व्रत
श्री सत्यनारायण व्रत

श्री सत्यनारायण व्रत  

व्यूस : 10369 | नवेम्बर 2008
श्री सत्यनारायण व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज श्रीसत्यनारायण व्रत कथा का आयोजन प्रत्येक मास की पूर्णिमा तिथि को किया जाता है। यह व्रत सत्य को अपने जीवन और आचरण में उतारने के लिए किया जाता है। इस सत्यव्रत को कोई मानव यदि अपने जीवन और आचरण में सुप्रतिष्ठित करता है तो वह अपने भीतर भगवद्गुणों का आधान करता है एवम् संमूर्ण सुख समृद्धि व ऐश्वर्यों को प्राप्त होता हुआ जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ काम-मोक्ष को सिद्ध कर लेता है। क्लेशों से मुक्ति प्राप्ति का यह एक अद्वितीय व्रत है। सत्यव्रत एक तरह से सत्याग्रह है। श्री भगवान् को धार्मिक सत्याग्रह अत्यंत प्रिय है। अनीति और अत्याचार के विरुद्ध कोई सत्यनिष्ठ व्यक्ति यदि सत्याग्रह करता है तो भगवान् उसकी रक्षा करते हैं। वस्तुतः मनसा, वाचा, कर्मणा सत्य को अपने विचार एवं आचरण में धारण करना पूर्ण सत्यव्रत है। भगवान के सत्यस्वरूप को जनमानस में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से ‘श्री सत्यनारायण व्रत कथा’ का उल्लेख पुराणों में वर्णित है। यह कथा यद्यपि पूजापरक है, किंतु कथा के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि सत्य ही नारायण का रूप है और सत्यव्रत का पालन करने से हम नारायण को प्राप्त कर सकते हैं। कथा में शतानंद ब्रह्मण, लकड़हारा, उल्कामुख राजा, साधु वणिक् और तुग्ध्वज राजा का दृष्टांत देकर हमें सत्यव्रत के पालन की प्रेरणा दी गयी है। श्री सत्यनारायण व्रत कथा कथावाचक अर्थात् व्यास जी श्रोता जनों से कहते हैं कि एक समय नैमिषारण्य में शौनक प्रभृति अठासी हजार ऋषि गण इकट्ठे होकर आपस में विचार कर रहे थे कि महाघोर कराल कालिकाल आने वाला है, अतः कालि में मनुष्यों को महान् दुःख प्राप्त होगा। इस दुःख रूपी ताप से बचाने के लिए क्या उपाय करना चाहिए। उसी समय व्यास जी के शिष्य महाराज सूत महाराज अपनी शिष्यमण्डली के साथ ऋषियों की सभा में उपस्थित हुए। शौनकादिक ऋषियों ने उनका स्वागत अभिवादन किया और उनसे कोई ऐसा जप-तप, पूजा-पाठ बताने का आग्रह किया जिससे मनोवांछित फल की प्राप्ति हो और सभी प्राणियों को कष्टों से मुक्ति मिले। शौनकादि ऋषियों की चिंता के शमनार्थ महाराज सूत ने यह कथा सुनाई। एक समय भक्ति के अवतार देवर्षि नारद जी विभिन्न लोकों में विचरण करते हुए मृत्युलोक में आए। वहां उन्होंने सभी प्राणियों को विपन्नावस्था में पाया। वे अत्यंत दुःखी और चिंतित हो उठे। इसके निदान हेतु वे श्री हरिधाम पहुंचे और वहां हरि को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। भगवन कमलापति ने देवर्षि नारद को हृदय से लगाया। और पूछा- हे नारद! किस अर्थ के प्रयोजन में आपका आगमन हुआ है? आपके मन में क्या है? आप मुझसे कहें, मैं यथोचित उŸार दूंगा। नारद जी ने अपनी व्यथा सुनाई और निदान बताने का अनुरोध किया। इस पर श्री हरि ने महान् पुण्य प्रदाता, तथा संपूर्ण सुखों को प्रदान करने वाले सत्यनारायण का व्रत व पूजन करने का परामर्श दिया। उन्होंने कहा कि भगवान सत्यदेव का पूजन निष्ठापूर्वक करने से व्रती की दुःखों से रक्षा होगी और वह मोक्ष को प्राप्त होगा। देवर्षि नारद जी ने भगवान के मधुरातिमधुर वचनों को सुनकर पूछा कि हे कृपालु भगवन्! इस व्रत का क्या फल है? क्या विधि है? कब करना चाहिए? किसने पूर्व में इसे किया है? यह सब विस्तार पूर्वक कहिए। नारद जी के स्नेहपूर्ण वचनों को सुनकर श्री विष्णु भगवान बोले कि इस व्रत का फल यह है कि यह सभी प्रकार के दुःखों और कष्टों का नाश करने वाला है। इस व्रत से धन-धान्य, समृद्धि, ऐश्वर्य ,सौभाग्य तथा संतान सुख की प्राप्ति होती है। जिस किसी भी दिन मनुष्य के हृदय, मन तथा बुद्धि में पवित्रता-निर्मलता का समावेश हो जाए, उसी दिन यह व्रत आरंभ करना चाहिए। इसमें संक्रांति, एकादशी, पूर्णमासी आदि की वर्जना नहीं है। परंतु सायंकाल की बेला इसके लिए सर्वोŸाम बेला है। पूजन के समय भगवान के लिए केले के बहुत से खम्भ लगाकर मंडप बनाएं। आम्रपल्लव का तोरण बांधें, वरुण कलशादि को स्थापित कर दिव्य सिंहासन पर भगवान सत्यनाराण की प्रतिमा या शालिग्राम की मूर्ति की स्वस्ति वाचन, संकल्प, पुण्याहवाचन आदि करते हुए गणेश-गौरी एवं अन्य देवताओं की पूजा कर भगवान सत्यनारायण की प्रतिष्ठा करें। ब्राह्मण, बंधु-बांधव, परिवार के सभी सदस्यादि भक्तिपूर्वक जल, पंचामृत, चंदन, पुष्प, तुलसी पत्र, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, ताम्बूल, दक्षिणादि से पूजन करें। नैवेद्य में केला का फल, घी, दूध, पंजीरी आदि का प्रसाद शक्कर या गुड़ सब पदार्थ सवाया मिलाकर अर्पित करें। ब्राह्मण व कथा-पुस्तक का पूजन कर दक्षिणा अर्पित कर सज्जनों के सहित कथा का श्रवण करें। तदुपरांत ब्राह्मणों तथा बंधु-बांधवों को भोजन कराकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करें और फिर रात्रि भर भगवान के समक्ष गायन-वादन तथा संकीर्तन करें। इस प्रकार व्रत करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। इस कलि काल में दुःखों से मुक्ति और मनोवांछित फल की प्राप्ति का इससे उŸाम उपाय और कोई नहीं है। यह कथा सुनकर सूतजी से शौनकादि ऋषियों ने और भगवान से देवर्षि नारद जी ने कहा उसव्यक्ति का वृत्तांत सुनाने का आग्रह किया जिसने पहले यह व्रत किया था। कथा इस प्रकार है। रमीणक काशीपुरी में शतानंद नामक एक अति निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भिक्षाटन कर अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण करता था। एक समय ऐसा आया जब उसे कई दिन से भिक्षा प्राप्ति न हो सकी। उसकी यह दशा देखकर भगवान को दया आ गई। अविलंब ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके समीप जाकर उन्होंने उसका अभिवादन किया और आदरपूर्वक पूछा- हे ब्राह्मण! आप दुःखी होकर किसलिए इस पृथ्वी पर नित्य घूमते रहते हैं? आपके मुखमंडल की कांति धूमिल क्यों हो रही है? ब्राह्मण अपनी व्यथा कह सुनाई और दरिद्रता से मुक्ति का उपाय पूछा। ब्राह्मण के अभिमान रहित प्रिय वचनों को सुनकर ब्राह्मण रूपधारी भगवान ने उसे सत्यनारायण व्रत करने की सलाह दीऔर संपूर्ण पूजा विधि बताकर स्वधाम अंतर्धान हो गए। घर पहुंचकर ब्राह्मण सोचने लगा कि किस प्रकार व्रत का पालन करूं। परंतु जिस पर सच्चिदानंद अविनाशी ईश्वर की कृपा हो जाती है उस पर तो सभी जन कृपा करते हैं। वह रात उसने इसी चिंता में और हरि स्मरण करते हुए जागकर बिता दी। प्रातः काल दैनिक शौच स्नानादि क्रियाओं से निवृŸा हो संतोषपूर्वक उसने संकल्प लिया कि आज भिक्षा में जो कुछ भी प्राप्त होगा, उसी से सत्यनारायण भगवान का पूजन करेंगे। इस संकल्प के साथ उस नगर में गया, जहां बहुत धनी लोग रहते थे। सभी लोगों ने उसका खुले मन से स्वागत किय और उसकी धन द्रव्यादि से सहायता की। इस तरह प्राप्त विभिन्न प्रकार की सामग्रियों से उसने बंधु-बांधवों, मित्रजनों, स्नेहीजनों को सादर बुलाकर भगवान सत्यनारायण का पूजन किया। इस व्रत के प्रभाव से उसे सभी दुःखों से मुक्ति मिल गई और वह वैभव संपन्न हो गया। ब्राह्मण की सर्वत्र मान-प्रतिष्ठा होने लगी और वह प्रत्येक मास भगवान का व्रत-पूजन करने लगा। इसी के प्रताप से वह इस जगत के सभी सुखों को भोगता हुआ सत्यलोक को प्राप्त हो गया। इस व्रत का प्रभाव ऐसा दिव्य है कि जो कोई भी इसका पालन करता है उसे निश्चय ही दुःख आदि से मुक्ति को प्राप्त होती है। इस प्रकार व्रत का प्रभाव सुनकर नारद ने भगवान से तथा शौनकादिक ऋषियों ने महाराज सूत से यह बताने का आग्रह किया कि इस व्रत की महिमा उस ब्राह्मण से किसने सुनी और किसने यह व्रत किया। महाराज सूत ने कहा कि एक समय वही ब्राह्मण अपने ऐश्वर्य के अनुसार अपने बांधवों के साथ सत्यदेव का पूजन करने को उद्यत हुआ। इतने में एक लकड़हारा वहां आया और जो कभी अत्यंत दरिद्र था उसके ऊंचे ऊंचे महल देखकर दंग रह गया। इसी आश्चर्य में डूबा उसने भक्तों से पूछा कि इस प्रातः कालीन समय में सुंदर-सुंदर पूजा की सामग्रियों को थालों में सजाकर आप कहां जा रहे हैं? इन ऊंचे-ऊंचे महलों का निर्माण किसने कराया है? और ब्राह्मण देवता की टूटी-फूटी झोपड़ी को किसने उजाड़ा है? लकड़हारे की मीठी-मीठी बातों को सुनकर भक्तों ने कहा-भाई! ये जो सामने सुंदर महल हैं, ये ब्राह्मण देवता के ही हैं। आज सायंकाल भगवान के व्रत, पूजन व कथा का आयोजन है, सो हम सभी वहां ब्राह्मण देव के घर जा रहे हैं। यह सुनकर लकड़हारा भी ब्राह्मण के घर गया। लकड़ी का गट्ठर सिर से उतारकर उसने घर के दरवाजे पर रख दिया। वहां उसने विप्र देवता को भगवान का पूजन करते देखा। ब्राह्मणों को हाथ जोड़कर उसने पूछा कि आप किनका पूजन कर रहे हैं? इस पूजन से क्या फल प्राप्त होता है? कृपा करके बताएं। ब्राह्मणों ने लकड़हारे से कहा कि यह सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहे हैं। भगवान सत्यनारायण सब की मनोकामना पूरी करते हैं। यह जो धन-धान्य, अपार वैभव इनके पास है, यह उन्हीं अविनाशी प्रभु की कृपा का प्रसाद है। इस प्रकार सत्यनारायण व्रत का माहात्म्य सुन कर और प्रसाद ग्रहण कर उसने मन ही मन श्रीहरि की स्तुति कर संकल्प लिया कि काष्ठ के विक्रय से आज जो धन मुझे मिलेगा, उससे सत्यनारायण का पूजन करूंगा। फिर वह लकड़ी के गट्ठर को सिर पर रखकर ऐसे नगर में पहुंचा, जहां पर बहुत से धनी लोग वास करते थे। जाते ही जगत नियंता प्रभु की कृपा से उसे लकड़ी का दूना दाम प्राप्त हुआ। उसने प्रसन्न हृदय से भगवान के पूजन हेतु पके हुए केले, शर्करा, घी, दूध, गेहूं का आटा आदि खरीद कर अपने घर आ गया और भाई-बंधुओं व ब्राह्मणों को बुलाकर विधिपूर्वक सत्यनारायण प्रभु का व्रत व पूजन किया। उस व्रत के प्रभाव से उसे भी ब्राह्मण देवता के समान धन-पुत्रादि की प्राप्ति हो गई। सभी सुखों का भोग करता हुआ वह अंत में भगवान के वैकुण्ठ लोक को प्राप्त हुआ। यह कथा सुनाकर महाराज सूत ने शौनकादिक ऋषियों को और भगवान ने नारद उन भक्तों की कथा सुनाई जिन्होंने आगे इस व्रत का पालन किया। कथा इस प्रकार है। एक नगर में सत्यवादी तथा अति पराक्रमी उल्कामुख नामक एक राजा था। वह अत्यंत धार्मिक था। एक दिन अपनी पत्नी के साथ वह भद्रशीला नदी के किनारे पर व्रत में तत्पर था। इसी के अनन्तर साधु नामक एक वैश्य जवाहिरात नाव पर लादकर व्यापार के लिए उधर से निकला। वह नदी के तट पर उस स्थान पर आया जहां राजा और रानी व्रत-पूजन करते थे। राजा के समीप पहंुचकर भगवान व राजा को प्रणाम कर उसने राजा से विनयपूर्वक पूछा कि हे राजन्! अपनी प्राणप्रिया के आप किसका और किस कार्य साधन के लिए पूजन कर रहे हैं। राजा ने कहा- हे साधु! हम सत् पुत्र की कामना से भगवान् सत्यनारायण का व्रत व पूजन कर रहे हैं। महाराज दशरथ ने भी सत् पुत्र की प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ किया था। कर्दम ऋषि ने भी सत् पुत्र की कामना से देवहूति को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार किया था। इस व्रत के प्रभाव से संतान सुख से वंचिज लोगों को संतान तथा निर्धन को धन प्राप्त होता है। व्यापारी साधु राजा के वचन सुनकर गद्गद् हो उठा और संपूर्ण विधि बताने का आग्रह किया। वह भी संतानहीन था, इसलिए घर आकर उसने संतान प्रदाता सत्यनारायण व्रत की महिमा अपनी भार्या लीलावती को कह सुनाई। संतानहीना लीलावती ने कहा कि बांझपन नारी का सबसे बड़ा कलंक है और वह इस संताप से किसी भी तरह मुक्त होना चाहती है। इसलिए उसने व्रत करने की इच्छा प्रकट की। इस पर व्यापारी साधु ने कहा कि हे प्रिये! धन बहुत परिश्रम से कमाया जाता है, अभी खर्च करने का अनुकूल समय नहीं है। जब हमको संतान प्राप्त होगी तब व्रत का पालन करेंगे। स्वामी के अवसरानुकूल वचनों को सुनकर पतिव्रता स्त्री चुप हो गई। कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई और दस मास पूर्ण होने पर उसने एक कन्या रत्न को जन्म दिया। लक्ष्मी स्वरूप वह कन्या दिन-प्रतिदिन शुक्लपक्ष के चंद्रमा की कलाओं की भांति बढ़ने लगी। इस कारण उसका नाम कलावती रखा। एक दिन लीलावती ने पति को संकल्प की याद दिलाई और उसे पूरा करने को कहा। इस पर उसने कन्या के विवाह के समय उस को पूरा करने की बात कही। फिर एक दिन कंचनपुर के एक अति सुंदर और सुशील वर से कलावती का विवाह हो गया। फिर भी व्यापारी ने संकल्प पूरा नहीं किया जिससे भगवान सत्यनारायण अप्रसन्न हो गए। कुछ दिनों के बाद वह बनिया व्यापार के लिए अपने दामाद के साथ रत्नसार रत्नसार नामक नगर पहुंचा और व्यापार करने लगा। इसी बीच भगवान सत्यनारायण ने उसे शाप दिया। एक दिन दैवात दो मायावी चोर रत्नसार नगर के राजा के धन को चुराकर ले गए। राजा के सिपाहियों ने चोरों का पीछा किया जिससे चोर भयभीत हो गए और सब धन वहां डाल दिया, जहां उन दोनों वैश्यों का डेरा था। जब दूत बनिया के पास पहुंचे तो राजा का धन वहां रखा हुआ पाया। तब उन दोनों को ही चोर समझकर पकड़ ले गए और कारागार में डाल दिया। दोनों बहुत गिड़गिड़ाए परंतु उनकी एक न सुनी गई। राजा ने उनका सब धन अपने खजाने में रखवा लिया। इधर लीलावती और कलावती दोनों पर भारी विपत्ति पड़ी और दोनों द्वार-द्वार जाकर भिक्षावृŸिा करने लगीं। एक दिन कलावती क्षुधा-पिपासा से पीड़ित हो भिक्षा के हेतु किसी ब्राह्मण के घर पहुंची। वहां भगवान सत्यनारायण का व्रत पूजन और कथा हो रही थी। वहां पर बैठकर उसने भी वह अमृतमयी कथा सुनी और भगवान का प्रसाद लेकर रात्रि में घर आई। माता के पूछने पर उसने सब बात कह दी। उसकी बात सुनकर लीलावती ने व्रत करने का संकल्प लिया। अपने सभी बंधु-बांधवों के साथ कथा सुनी और अपने पति का अपराध क्षमा कर देने की भगवान सत्यनारायण से प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना सुन भगवान प्रसन्न हो गए। भगवान सत्यनारायण ने स्वप्न में राजा सत्यकेतु को दर्शन देकर कहा कि बनियों को सबेरा होते ही छोड़ दो और उनका सारा धन वापस कर दो अन्यथा मैं तुम्हारे पुत्र-पौत्रों के साथ-साथ सारा राज नष्ट कर दूंगा। सुबह रजा ने उन बनियों को उनके धन के साथ मुक्त कर दिया। वहां से विदा होकर दोनों ब्राह्मणों को धन बांटते हुए घर को चले। रास्ते में भगवान सत्यनारायण एक संन्यासी के वेश में उनसे मिले और पूछा कि उनकी नाव में क्या है? इस पर बनिए ने हंसते हुए कहा कि उसमें लता पत्र हैं। यह सुनकर संन्यासी यह कहकर वहां से चला गया कि तुम्हारा वचन सत्य हो। संन्यासी के चले जाने पर नित्य कर्म के लिए जब दोनों नाव से उतरे तनौका को हल्की होकर ऊपर उठते देखा। दोनों आश्चर्यचकित होकर पुनः नौका में पहुंचे तो दंखा कि वहां लता पत्र भरे पड़े थे। यह देखकर बनिया बेहोश होकर गिर पड़ा किंतु उसके जामाता ने कहा कि डरने या घबराने की जरूरत नहीं है। यह सब उसी संन्यासी का काम है। हम चलकर उसकी प्रार्थना करें। दोनों उसके पास पहुंचे और उससे क्षमा मांगी। उनकी भक्ति से भरी स्तुति सुनकर भगवान प्रसन्न हुए और इच्छित वरदान देकर अंतरधान हो गए। दोनों वापस जब नाव में पहुंचे तो उसे रत्नों से भरा पाया। फिर दोनों ने वहीं भगवान सत्यनारायण का पूजन किया और उनकी कथा सुनी और फिर घर चले। अपने नगर पहंुचकर व्यापारी साधु ने लीलावती को अपने आने का समाचार भिजवाया। लीलावती ने पुत्री कलावती को यह खबर सुनाई तो उसके आनंद की कोई सीमा न रही। वह उस समय कथा सुन रही थी किंतु कथा पूरी होते ही प्रसाद लिए बगैर वह पिता और पति से मिलने भागी। किंतु नदी किनारे पहुंचते ही बनिए के जामाता की नौका नदी में डूब गई। यह देखते ही बनिया और लीलवती दोनों विलाप करने लगे। उधर कलावती डूबे हुए पति के खड़ांऊ लेकर सती होने को दौड़ी। उसी समय आकाशवाणी हुई- हे व्यापारी! तुम्हार पुत्री कलावती ने भगवान सत्यनारायण के प्रसाद का अनादर किया। इसीलिए उसका पति डूब गया। यदि वह जाकर प्रसाद ग्रहण करे तो तुम्हारा दामाद पुनः जी उठेगा। यह सुनते ही व्यापारी की पुत्री कलावती दौड़ी गई और प्रसाद लेकर जब वापस नदी के तट पर आई तो पति की नौका को जल पर तैरते हुए पाया। यह देखकर व्यापारी भी अति प्रसन्न हुआ और सभी बंधु-बांधवों के साथ आ गया और जब तक जीवित रहा, भगवान सत्यनारायण की कथा सुनता रहा। फिर महाराज सूत ने एक और कथा कही जो इस प्रकार है। तुंगध्वज नामक एक प्रतिभाशाली राजा था। वह हमेशा अपनी प्रजा की भलाई लगा रहता था। एक बार शिकार से वापस आते समय उसने रास्ते में बहुत से गोप-ग्वालों को एक स्थान पर जमा होकर भगवान सत्यनारायण की कथा सुनते देखा। किंतु उसने भगवान को नमस्कार नहीं किया, न ही पूजा स्थल पर गया। यह देख गोप-ग्वाल प्रसाद लेकर दौड़े और राजा के समक्ष रख दिया। राजा ने का अनादर किया और महल की ओर चला गया। द्वार पर पहुंचते ही उसे अपने पुत्र-पौत्रों और सारी धन-संपत्ति के नष्ट हो जाने की खबर मिली। वह व्याकुल हो उठा। उसे प्रसाद का अनादर करने की बात याद आई। फिर वह उस स्थान पर पहुंचा जहां भगवान की पूजा हो रही थी। वहां उसने सब के साथ मिलकर भगवान का पूजन कर कथा सुनी और प्रसाद ग्रहण किया। फिर जब वापस घर आया तो मृत पुत्र-पौत्रों को जीवित पाया। उसकी खोया हुआ सारा वैभव भी उसे मिल गया। तब से वह प्रत्येक पूर्णिमा को व्रत करने लगा। यह कथा सुनाकर महाराज सूत ने कहा- हे शौनकादिक मुनीश्वरो! सब मनुष्यों में भगवत भाव जानकर प्रीति रखनी चाहिए। भगवान से सदा-सर्वदा प्रेम करना चाहिए और श्रद्धा से भाव से सतत उनके नाम का ध्यान करना चाहिए।



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