विवाह संस्कार का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में सूर्य और सोम के विवाह के रूप में मिलता है। विश्व कल्याण के लिये, दो परस्पर विरुद्ध स्वभाव की मौलिक शक्तियों का संबंध स्थापित होना ही विवाह है। नारद पुराण, पूर्व भाग, प्रथम भाग एवं भविष्य पुराण के बाह्यपर्व के अनुसार हिंदू विवाह को आठ प्रकारों में विभक्त किया गया है, जिनमें से ब्रह्म विवाह और गन्धर्व विवाह आधुनिक युग में भी प्रचलित हैं।
हिंदू समाज में ब्रह्म विवाह (ंततंदहमक उंततपंहम) को सबसे उत्कृष्ट और आदर्श स्वरूप माना जाता रहा है क्योंकि इसमें वर-वधू एवं दोनों परिवारों की सहमति के साथ-साथ पूरे रीति-रिवाज एवं संस्कारों का अनुसरण होता है। दूसरे प्रचलित विवाह प्रकार, गंधर्व विवाह (सवअम उंततपंहम), में परिवार वालों की सहमति के बिना और संस्कारों या नियमों का पालन किये बिना भी विवाह हो जाता है। आधुनिक युग में आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों से भी विवाह के समय में देरी हो रही है। ऐसे में माता-पिता, ज्योतिषी के सम्मुख ‘शादी कब होगी?’ का प्रश्न रखते हैं
जिसका जबाब देने के लिये ज्योतिषीय नियमों का पालन करने के साथ-साथ देश, काल, पात्र और ऊहा-पोह की भी आवश्यकता होती है। अगर हम प्राचीन ज्योतिषीय नियमों को देश, काल और पात्र के अनुसार परिवर्तित रूप में देखेंगे तो समय की सटीकता आ जाती है। इस लेख में हम निम्न तीन सूत्रीय नियमों का प्रयोग करेंगे और अंत में विचार गोष्ठी की उदाहरण कुंडली पर इन नियमों को लागू करके विवाह का संभावित समय निकालेंगे। ध्यान रहे कि निम्न तीनों नियमों को सदैव क्रमशः ही लगाना है।
1. आयु खंड का निर्धारण
2. आयु खंड में उपयुक्त दशा का चयन
3. उपयुक्त दशा में उपयुक्त गोचर का चयन
1. आयु खंड का निर्धारण भारत जैसे देश में हर 100-150 किलोमीटर पर सामाजिक मान्यता और परिपाटी बदल जाती है। उदाहरणतः, दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में जिसे सामान्य विवाह योग्य आयु मानते हैं, उसे वहां से कुछ दूर के कस्बे/गाँव में शायद अति विलम्ब माना जाता हो।
बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् के अथ सप्तमभावफलाध्यायः में 5 साल से 33 साल तक की आयु में विवाह के विभिन्न योग बताये गये हैं। इस लेख में हम बड़े शहरों में रहने वाले मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों के और वर्ष 2000 के अनुसार ही विवाह योग्य आयु खंड को परिभाषित कर रहे हैं। इस अनुसार, आज के परिपे्रक्ष्य में विवाह की उचित आयु को निम्न आयु खंडों में विभाजित कर सकते हैं। कृपया ध्यान दें कि पाठक निम्न समय आयु खण्डों को स्थान एवं काल अनुसार परिवर्तित कर सकते हैं:
1. शीघ्र विवाह (लड़की का 23 वर्ष से पहले और लड़के का 25 वर्ष से पहले)
2. सामान्य आयु (लड़की का 23 से 27 वर्ष के मध्य और लड़के का 25 से 28 वर्ष के मध्य)
3. विलम्ब से विवाह (लड़की का 27 से 30 वर्ष के मध्य और लड़के का 28 से 32 वर्ष के मध्य)
4. अति विलम्ब या विवाह-हीनता (लड़की का 30 वर्ष के बाद और लड़के का 32 वर्ष के बाद) इन चारों आयु खण्डों के चयन के नियमों का सोदाहरण आगे वर्णन है। 1.1 शीघ्र विवाह के योग इस आयु खंड में विवाह सामान्य उम्र से पहले ही हो जाता है।
लड़की का विवाह 23 वर्ष की आयु से पहले हो जाय या लड़के का विवाह 25 वर्ष की आयु से पहले ही हो जाय तो उसे आज-कल के युग में शीघ्र विवाह ही कहा जाता है। कुंडली में मुख्यतः निम्न योगों के होने से शीघ्र विवाह होने की सम्भावना बनती है:
Û लग्न और सप्तम भाव में शुभ ग्रह हों और पीड़ित न हा
Û शुक्र (लड़कियों में गुरु का आकलन भी आवश्यक) नीच/अस्त न हो और नवांश में सुस्थित/बली हो
Û शुक्र का सप्तमेश से शुभ भाव में सम्बन्ध
Û सप्तमेश पर अशुभ प्रभाव न हो
Û लग्नेश, सप्तम में स्थित होकर लग्न को दृष्ट करे या सप्तमेश, लग्न में स्थित होकर और सप्तम को दृष्ट करे
Û लग्नेश और सप्तमेश की युति कुंडली के लाभ/वृद्धि (एकादश) भाव में या एकादशेश से हो
Û सप्तम भाव पर गुरु की दृष्टि हो
Û गुरु/चंद्र की युति प्रथम, पंचम, दशम या एकादश में हो
Û सप्तम/सप्तमेश और द्वितीय/द्वितीयेश का सम्बन्ध हो।
Û शुक्ल पक्ष के बली चन्द्र की पंचम अथवा सप्तम में स्थिति
Û जन्मकुंडली के लग्नेश और सप्तमेश की नवांश में शुभ स्थिति हो और जन्मकुंडली के उपरोक्त नियम नवांश में पुनरावृत्ति कर रहे हों
Û त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा नहीं होनी चाहिये (इस लेख में इस वर्ग कुंडली का प्रयोग नहीं किया जा रहा है)। अगर उपरोक्त योग हों तो शीघ्र विवाह के संकेत मिलते हैं। जितने अधिक योग होंगे, उतनी ही अधिक सम्भावना होगी। प्रस्तुत उदाहरण कुंडली 1 देखें शुभ-अशुभ घटक
Û जन्मकुंडली में गुरु की सप्तम भाव पर दृष्टि है
Û द्वितीयेश बुध सप्तम भाव में स्थित है
Û द्वितीयेश और सप्तमेश का राशि परिवर्तन है
Û लग्नेश शुक्र पंचम में नीचभंग में हैं
Û लग्नेश शुक्र पर योगकारक शनि की दृष्टि है। लग्नेश शुक्र पर सप्तमेश मंगल की दृष्टि भी है
Û कारक गुरु मुदित अवस्था में हैं और उनका लग्नेश से परस्पर दृष्टि संबंध है
Ûऽ नवांश में, सप्तमेश शनि और नवांशेश सूर्य की द्वितीय भाव में युति है और उन दोनों पर गुरु की दृष्टि है
Ûऽ नवांशेश सूर्य और द्वितीयेश बुध का राशि परिवर्तन है
Ûऽ जन्मकुंडली में गुरु स्वराशिस्थ हैं। नवांश में, गुरु नीच के हैं परन्तु जन्मकुंडली के लग्नेश शुक्र से दृष्ट भी हैं ये सभी योग जातिका का विवाह शीघ्र आयु खंड, अर्थात 23 वर्ष से पहले, में होने की सम्भावना की ओर संकेत कर रहे हैं क्योंकि अशुभता की मात्रा काफी कम है।
जातिका का विवाह 22 वर्ष की आयु में हुआ था। कृपया ध्यान दें कि योगों को फलीभूत होने के लिये उपयुक्त दशा एवं गोचर की आवश्यकता होती है जिसका वर्णन आगे है। 1.2 सामान्य आयु के योग इस आयु खंड में विवाह सामान्य आयु में होता है। शहरों के मध्यवर्गीय शिक्षित परिवार में लड़कों के लिये 25 से 29 वर्ष के मध्य की अवधि और लड़कियों के लिये 23 से 27 वर्ष के मध्य की अवधि को सामान्य विवाह आयु माना जा सकता है।
इस आयु खंड में शीघ्र विवाह वाले योग ही लागू होते हैं परन्तु कुछ घटकों में पीड़ा पायी जाती है परन्तु अशुभता की अपेक्षा शुभता की अधिकता ही होती है।
प्रस्तुत उदाहरण कुंडली 2 देखें शुभ-अशुभ घटक:
Û जन्मकुंडली में तीन शुभ ग्रह केंद्र में हैं और चैथा शुभ ग्रह शुक्र त्रिकोण/पंचम में Ûऽ सप्तमेश स्वराशिस्थ होकर बली है
Ûऽ सप्तमेश बुध और लग्नेश गुरु की सप्तम भाव में युति है
Ûऽ सप्तम पर पक्ष बली शुभ चन्द्र की दृष्टि है
Ûऽ शुक्र पंचम में सुस्थित तो हैं परन्तु शत्रु राशि में हैं
Ûऽ नवांश में, शुक्र लग्न में नीचभंग में हैं
Ûऽ जन्मकुंडली का सप्तमेश बुध नवांश में सप्तम में है
Ûऽ जन्मकुंडली का लग्नेश, नवांश में नवम में सुस्थित हैं परन्तु शनि और मंगल की दृष्टि के कारण पीड़ा भी है
Ûऽ नवांश में गुरु की लग्न और शुक्र पर दृष्टि है
परन्तु गुरु पर स्वयं शनि की दृष्टि है और शत्रु राशि में स्थित हैं यहाँ भी शुभता की मात्रा अधिक है परन्तु कुछ अशुभता भी स्पष्ट है। अर्थात, विवाह आयु को सामान्य खण्ड में ही होना चाहिये। जातिका का विवाह 24 वर्ष की उम्र में हुआ था। 1.3 विलम्ब से विवाह होने के योग इस आयु खंड में विवाह सामान्य उम्र के बाद यानि कुछ विलम्ब से होता है
लड़कों की 28 से 32 वर्ष के मध्य की अवधि और लड़कियों की 27 से 30 वर्ष के मध्य की अवधि में हुए विवाह को सामान्य विवाह आयु से कुछ अधिक माना जा सकता है। कुंडली में मुख्यतः निम्न योगों के होने से विवाह विलम्ब से होने की सम्भावना कही जाती है:
- शुक्र अस्त/नीच हो या पीड़ित हो और नवांश में भी अशुभ प्रभाव में हो (स्त्रियों में गुरु का आंकलन भी आवश्यक है)
- लग्न/लग्नेश और सप्तम/ सप्तमेश का अधिक पीड़ित होना।
इस सन्दर्भ में अगर सूर्य या राहु/केतु की स्थिति सप्तम में हो और उन पर अन्य अशुभ ग्रहों का प्रभाव भी हो, तभी अधिक पीड़ा मानें, अन्यथा सामान्य
- शुभ ग्रह, विवाह भावों ;प्ए प्प्ए प्टए टप्प्ए टप्प्प्ए ग्प्प्) में, वक्री हों
- जन्मकुंडली या नवांश का सप्तमेश अस्त/नीच या पीड़ित हो (पाप कर्तरी और ग्रहण भी देखें)
- अगर शनि का प्रभाव चन्द्र पर हो और चन्द्र लग्नेश या सप्तमेश हो।
- शनि-चन्द्र युति विवाह भावों में हो तो काफी विलम्ब भी हो सकता है (इसकी चर्चा हम अति विलम्ब/ विवाहहीनता में स्वामी विवेकानन्द की कुंडली से करेंगे)
- शनि-मंगल या शनि-सूर्य की विवाह भावों में युति या अन्य सम्बन्ध भी विवाह में विलम्ब करा सकते हैं
- स्त्रियों की कुंडली में अष्टम भाव (मांगलिक स्थान) का पीड़ित होना भी विलम्ब करा सकता है सामान्य आयु खंड से कुछ या अधिक विलम्ब, वर्णित विवाह घटकों पर अशुभ प्रभावों की मात्रा पर निर्भर करता है।
निम्न उदाहरण में मिश्रित प्रभाव हैं परन्तु अशुभता बहुत अधिक नहीं है। इसी कारणवश देरी तो हुई परन्तु अधिक नहीं। आइये इसका विश्लेषण करें: उदाहरण-3: जन्म 19.।नह.1986ए 22रू45 भ्तेए क्मसीपविवाह तय 12.क्मब.2015 (29 वर्ष पूर्ण) दशा भोग्य: मंगल 2 वर्ष और 6 महीने प्रस्तुत उदाहरण कुंडली 3 देखें शुभ घटक:
Û गुरु की दृष्टि भी सप्तम भाव पर है जो कि नवमेश/भाग्येश भी हैं
Û लग्नेश मंगल नवम भाव में मित्र राशिस्थ होकर सुस्थित हैं
Û नवांश में नवांशेश शुक्र नवम भाव में गुरु से युति में हैं
Û नवांश में, चन्द्र की सप्तम भाव पर दृष्टि है
Û नवांश में, सप्तमेश मंगल की सप्तम भाव (मेष) पर दृष्टि से सप्तम भाव बली है
Û नवांश में, गुरु की नवांश लग्न पर दृष्टि है अशुभ घटक:
Û जन्मकुंडली में सप्तमेश एवं कारक शुक्र अपने व्यय स्थान में (कुंडली का त्रिक भाव भी) स्थित हैं और राहु/ केतु के प्रभाव में भी हैं
Û नवांश में, सूर्य सप्तम में हैं परन्तु बिना किसी अतिरिक्त पीड़ा के हैं। सूर्य की दृष्टि लग्न पर भी है
Û नवांश में, पंचमेश शनि की सप्तमेश मंगल से द्वादश भाव में युति है और राहु/केतु अक्ष में भी हैं
Û शुभ और अशुभ दोनों मिश्रित हैं इसीलिए साधारण विलम्ब होने की संभावना है। जातक का विवाह 29 वर्ष पूर्ण होते ही तय हुआ है। 1.4 अति विलम्ब या विवाह-हीनता के योग अगर लड़कों का विवाह 32 वर्ष तक और लड़कियों का विवाह 30 वर्ष तक नहीं होता है तो उसे अति विलम्ब कहा जा सकता है। इसके लिये कुंडली में निम्न घटक जिम्मेदार हो सकते हैं:
Û सप्तम/सप्तमेश का अष्टम अष्टमेश से संबंध हो और शुक्र लड़की के लिए गुरु की स्थिति भी देखें) दो पाप ग्रहों से पीड़ित हो
Û सप्तम/सप्तमेश और शुक्र का मंगल या शनि से सम्बन्ध
Û सप्तमेश की युति शुक्र एवं चन्द्र के साथ हो तो व्यक्ति संबंध तो बहुत बना सकता है परन्तु विवाह बंधन में नहीं बंधना चाहता और इस कारणवश विवाह में अत्यंत देरी भी हो सकती है
Û यदि सूर्य (आत्मा) और चन्द्र (मन) दोनों ही शनि के पूर्ण नियंत्रण में हों
Û सूर्य, चन्द्र और शुक्र तीनों ही शनि से पीड़ित हों
Û शुक्र का बंजर राशियों में अर्थात मिथुन, सिंह या कन्या में होना, शुक्र पर पीड़ा समान है
Û सप्तमेश बुध हों या सप्तम भाव में बुध हों और वे षष्ठेश और द्वादशेश से युति करें। बुध को विवाह के दृष्टिकोण से एक नपुंसक ग्रह माना जाता है और द्वादशेश शय्या सुख से सम्बंधित है और षष्ठेश की युति दोनों भावों के फलों को कम कर देती है। इसी प्रकार शनि और बुध सप्तम में हो और उन पर पाप प्रभाव हो क्योंकि शनि को भी विवाह के दृष्टिकोण से एक नपुंसक ग्रह माना जाता है
Û सप्तम में राहु हो व उस पर दो पाप ग्रह की दृष्टि हो तो विवाह सुख की सम्भावना अल्प हो जाती है। अल्प से तात्पर्य है कि अगर विवाह हो भी जाता है तो वियोग की सम्भावना प्रबल होती है
Û शनि-चन्द्र की युति जातक में आध्यात्मिकता की उत्कंठा उत्पन्न करती है और जातक में वैराग्य की भावना का विकास होता है। यह योग स्वामी विवेकानन्द की कुंडली में दशम भाव में था।
युति का आंकलन करते समय ग्रहों की वक्रता और परस्पर निकटता का ध्यान अवश्य रखें, जैसे प्रथम उदाहरण में तृतीय भाव में शनि-चन्द्र की युति है परन्तु शनि वक्री हैं और दोनों का अंतर भी छः डिग्री से कुछ अधिक है युतियों से बनने वाले योगों को भी ध्यान से देखना चाहिये अन्यथा, गुरु की सप्तम पर दृष्टि है, सप्तमेश और शुक्र की कुटुंब भाव में युति सामान्य आयु में विवाह के संकेत दे रही है।
परन्तु, शनि के बली होने और शनि-चन्द्र (दोनों युवावस्था में और केवल चार डिग्री का परस्पर अंतर) की युति से स्वामी जी ने जन कल्याण को सर्वोपरि धर्म माना और सांसारिकता से अलग रहे। अति विलम्ब के उपरोक्त वर्णित योगों के आधार पर एक उदाहरण प्रस्तुत है: यह 47-वर्षीय जातक पूर्ण स्वस्थ है और अपनी आयु से कम लगते हैं, सुशिक्षित हैं और एक प्राइवेट काॅलेज में प्रोफेसर हैं।
दिल्ली में माता-पिता के साथ रहते हैं। विवाह करने के इच्छुक भी हैं और काफी वर्षों से उनका परिवार इस कोशिश में लगा भी है। इनके पिता इनकम टैक्स विभाग के अच्छे पद से सेवानिवृत्त हैं। इन सबके बावजूद जातक का विवाह अभी तक नहीं हुआ है और मुझे हमेशा कहते हैं कि “इस साल हो जाएगा पर मैं विवाह के बिना भी बहुत खुश हूँ”। आइये, इनकी कुंडली का उपरोक्त वर्णित नियमों से विश्लेषण करते हैं:
अशुभ घटक
: Û जन्मकुंडली में लग्न और सप्तम पर शनि, सूर्य, राहु और केतु के कारण बहुत पीड़ा है
Û लग्नेश की मंगल से षष्ठम भाव में युति है
Û सप्तमेश बुध और अष्टमेश शुक्र की अष्टम भाव में युति है
Û मंगल की षष्ठम भाव से लग्न पर दृष्टि है
Û नवांश में, सप्तम भाव, लग्न, चन्द्र, सूर्य और नवांशेश बुध सभी शनि से पीड़ित है
Û नवांश में कारक शुक्र की षष्ठम स्थिति है और मंगल से दृष्ट भी है
Û नवांश में, जन्मकुंडली के लग्नेश और सप्तमेश की नवांश के चतुर्थ भाव में युति ही एकमात्र शुभ संकेत है परन्तु उन पर भी शनि की दशम दृष्टि है। हमने देखा कि जन्मकुंडली और नवांश में अशुभता बहुतायत में है और अति विलम्ब बहुत स्पष्ट है। जातक का विवाह अभी तक नहीं हुआ है। कृपया ध्यान दें कि इस लेख में विवाह सम्बन्धी मुख्य योगों की चर्चा ही संभव है।
2. उपयुक्त दशा कुंडली में विवाह योग्य आयु खंड निर्धारित करने के पश्चात् ‘उपयुक्त दशा का चयन’ करना आवश्यक है। सामान्यतः, कम से कम दो दशाओं (जैसे विंशोत्तरी एवं योगिनी या विंशोत्तरी एवं चर) का प्रयोग करने के पश्चात ही पुष्टि करनी चाहिये। इस लेख में हम स्वयं को विंशोत्तरी तक ही सीमित रख रहे हैं। चाहे कुंडली में कितने भी योग हों, परन्तु अगर उपयुक्त दशा एवं गोचर ही न आये तो योग फलीभूत नहीं हो पायेंगे। सामान्यतः, निम्न दशाओं में विवाह हो सकता है:
1. सप्तम भाव से सम्बंधित ग्रह (जैसे सप्तमेश, सप्तम स्थित ग्रह, सप्तमेश युत ग्रह)
2. द्वितीय भाव से संबंधित ग्रह (जैसे द्वितीयेश, द्वितीय स्थित ग्रह, द्वितीयेश युत ग्रह)
3. द्वादश भाव से सम्बंधित ग्रह (जैसे द्वादशेश, द्वादश स्थित ग्रह, द्वादशेश युत ग्रह)
4. लग्नेश, राहु, गुरु, शुक्र
5. डी 9 नवांशेश
6. डी 9 सप्तमेश इसके अतिरिक्त ग्रहों की स्थिति एवं बल के अनुसार असहायक दशा का आंकलन भी करना चाहिये। जैसे, सूर्य-सात्विकता, केतु-आध्यात्मिकता और शनि-वैराग्यता की ओर प्रेरित कर सकते हैं अगर वे बली हों तो। अब हमारे समक्ष महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इन सब दशाओं में विवाह के अनुकूल दशा का चयन कैसे करें? इसके लिए, सर्वप्रथम यह देखें कि उपरोक्त सूची में से किस ग्रह की दशा चल रही है और फिर देखें कि उस महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यंतरदशा के स्वामियों का निम्न भाव/भावेशों से सम्बन्ध है:
1. जन्मकुंडली या नवांश के लग्न या लग्नेश से, और
2. जन्मकुंडली या नवांश के सप्तम या सप्तमेश से शुक्र, राहु और गुरु के लिये उपरोक्त सम्बन्ध देखने की आवश्यकता नहीं है। अनुकूल योग एवं अनुकूल दशा के पश्चात अनुकूल गोचर भी विवाह समय निर्धारण की आवश्यक कड़ी है जिसका विवरण आगे है।
3. उपयुक्त गोचर विवाह जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं के फलीभूत होने के लिए गुरु और शनि का गोचरवश सम्बन्ध जन्मकुंडली या नवांश के लग्न/लग्नेश एवं सप्तम/ सप्तमेश से होना चाहिये। अगर ऐसा नहीं होता है तो अनुकूल गोचर आने तक इंतजार करना पड़ता है। इस कुंडली का विश्लेषण भी हम उपरोक्त वर्णित तीन चरणों में ही करेंगे: 1.
चरण-1: आयु खंड शुभ घटक
Û लग्न एवं लग्नेश शनि बली हैं क्योंकि शनि लग्न में ही है
Û गुरु की भी सप्तम पर दृष्टि है
Û शुक्र, चतुर्थ भाव में स्वराशिस्थ होकर बली हैं
Û नवांश में नवांशेश शनि स्वराशिस्थ होकर बली हैं
Û नवांश में नवांशेश शनि है और लग्न में ही स्थित है
Û नवांश में, सप्तम भाव एवं जन्मकुंडली में सप्तमेश सूर्य पर गुरु की दृष्टि है
Û नवांश में, शुक्र नवम भाव में स्थित मुदित अवस्था में हंै।
Û नवांश में, सप्तमेश चन्द्र द्वितीय भाव में हैं और द्वितीयेश लग्न से सप्तम को दृष्ट कर रहे हैं।
अशुभ घटक
Û शनि और मंगल की सप्तम भाव पर दृष्टि है
Û सप्तमेश सूर्य की पंचम में स्थिति तो अच्छी है परन्तु सूर्य दीन अवस्था (सम) में हैं और राहु/केतु अक्ष पर भी हैं।
Û कारक शुक्र की मंगल के साथ युति है
Û नवांश में भी शनि की सप्तम पर दृष्टि है
Û नवांश में, सप्तमेश चन्द्र पर मंगल की दृष्टि है
विवाह का योग तो स्पष्ट है। जन्मकुंडली और नवांश में शुभ और अशुभ प्रभावों का मिश्रण है परन्तु शनि का दोनों कुंडलियों में पूर्ण प्रभाव है इसलिये सामान्य आयु खंड के अंत में या उससे कुछ विलम्ब की सम्भावना दिखती है। अर्थात, 1964़29= लगभग 1991-1993 के आस-पास अगर उपयुक्त दशा और गोचर भी मिल जाये। आइये, अगले चरणों में इस अवधि के आस-पास दशा और गोचर का आकलन करते हैं।
2. चरण-2: दशा निर्धारण महादशा: 1976-1996 तक शुक्र की महादशा थी जो कि कारक की दशा है और विवाह के लिये उपयुक्त है
Û अन्तर्दशा: अप्रैल-1989 से जून-1992 तक शनि की अन्तर्दशा थी, शनि दोनों कुंडलियों में बली है और लग्न एवं सप्तम से दृष्टि सम्बन्ध में भी है। यह भुक्ति भी काफी उपयुक्त लग रही है। प्रत्यंतर: जुलाई-91 से जनवरी-92 तक राहु का प्रत्यंतर था जो कि बिना शर्त के विवाह का कारक होता है, अर्थात, उपयुक्त है। इसके बाद जून-92 तक गुरु का प्रत्यंतर है जिसका सम्बन्ध दोनों कुंडलियों में सप्तम भाव से है, अर्थात यह प्रत्यंतर भी उपयुक्त है। आइये, अगले चरण में इस अवधि के दौरान गोचर से पुष्टि करते हैं।
3. चरण-3: गोचर अक्तूबर-1991 का गोचर: गोचरवश शनि मकर में थे। नवांश लग्न से लग्न/लग्नेश और सप्तम भाव को प्रभावित कर रहे थे। गुरु गोचरवश सिंह राशि में थे। नवांश में गुरु की दृष्टि नवांश के सप्तमेश पर थी और जन्मकुंडली में गुरु सप्तम भाव में बैठकर सप्तम, लग्न और लग्नेश को प्रभावित कर रहे थे। अर्थात, यह गोचर उपयुक्त लगता है। नियमों के अनुसार जातक का विवाह 1991 के उत्तरार्द्ध या 1992 के पूर्वार्द्ध में होने की सम्भावना दिख रही है।