रात्रिकाल में खगोल मंडल में असंख्य देदीप्यमान पिंडों या तारों में कुछ संख्या पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमशः स्थित उन बहुमूल्य तारों की भी है जिन्हें पुरातन काल से ही ज्योतिषीय सिद्धांत में नक्षत्र की संज्ञा देकर उनके द्वारा प्रसारित रश्मियों के प्राकृतिक जगत पर पड़ने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष शुभाशुभ प्रभावों के आधारभूत श्रोतों को उल्लेखित किया जाता रहा है। वस्तुतः ज्ञान की यह खोज प्राचीन भारतीय ज्योतिर्विदों की 5000 वर्ष पूर्व की एक उच्च-स्तरीय कृति है, जिसके पूर्ण अवलोकन के लिए शास्त्रीय अनुभवों, भौगोलिकीय जानकारी तथा अक्षांशीय व देशान्तरीय स्थिति का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
नक्षत्र ज्ञान की प्राचीनता वैदिक काल में वार के स्थान पर ‘‘नक्षत्र दिवस’’ के प्रयोग की परंपरा नक्षत्र ज्ञान की प्राचीनता का साक्षात उदाहरण है। शास्त्रों से विदित होता है, उस काल में वर्तमान व भविष्य के दिशा निर्देशन या फलादेश में राशियों की जगह नक्षत्रों या तारों को ही मुख्य रूप से प्रधान व प्रभावकारी माना जाता था। इसके अतिरिक्त रामायण कथा में श्री राम के बनवास के पूर्व राजा दशरथ के द्वारा - ‘‘अंगारक (मंगल) ग्रह मेरे नक्षत्र को पीड़ित कर रहा है ’ के कथन तथा महाभारत काल में श्री कृष्ण व कर्ण के भेंट के उपरांत कर्ण के द्वारा ग्रह स्थिति के वर्णन - ‘‘शनि रोहिणी नक्षत्र से मंगल ग्रह को पीड़ित कर रहा है।
मंगल ग्रह ज्येष्ठा नक्षत्र में वक्री होकर अनुराधा नक्षत्र से युति कर रहा है।’’ आदि के उल्लेख भी नक्षत्र ज्ञान की प्राचीनता के मुख्य रूप से परिचायक हैं। ज्योतिषीय पृष्ठभूमि ज्येतष शास्त्र मे नक्षत्र की शाब्दिकता ‘‘न’’ क्षरति इति नक्षत्रम’’ से है, अर्थात जो यथावत व अविचल हो। इसी स्थिरता के कारण आकाश मंडल के कुछ बहुमूल्य तारों व नक्षत्रों को इस विद्या में काल मापक व योग विश्लेषण जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के हेतु अत्यंत उपयोगी साधन के रूप में प्रयुक्त किया गया तथा चंद्रमा जिस नक्षत्र में जितनी अवधि तक विराजमान रहा उस काल या अवधि को उसी नक्षत्र के अंतर्गत स्थापित कर दिया गया।
परंतु पृथ्वी की दशा व चंद्रमा की स्पष्ट गति की सूक्ष्मता सदा एक समान न होने के कारण इन नक्षत्रों का मान या आदि व अंत के निश्चित सीमा का गणित सर्वदा एक समान नहीं रहता, जो समय व काल के अनुसार प्राकृतिक तौर पर बदलता रहता है। इसके अतिरिक्त इस शास्त्र में नक्षत्रों के साथ जुड़ी ग्रहों की क्रियाएं व उनके स्वामित्व की महत्ताओं के साथ-साथ कुंडली में नक्षत्र के आधार पर नाम, नाड़ी, योनि, गोत्र, गण आदि का निर्धारण व जन्म महादशा का प्रारंभ तथा नक्षत्रों की प्रवृत्ति उनके विभिन्न चरणों के प्रभाव आदि की प्रधानताएं भी मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं।
नक्षत्रों की संख्या अथवर्व दे केनक्षत्र कल्प परिशिष्ट सचूी मे नक्षत् की सख्ंया 28 तक बर्ताइ गई है। इसी के समान समकालीन जैन ग्रंथों में भी 28 नक्षत्रों की पूर्ण पुष्टि होती है। यदि प्रथम नक्षत्र की ओर दृष्टि ले जाई जाए तो ईसा से 6-7 शताब्दि पूर्व वेदांग ज्योतिष काल में नक्षत्रों की आरंभिक सूची में धनिष्ठा नक्षत्र का नाम सर्वप्रथम लिया जाता था। एसे विदित हातेा है कि महाभारत युग के अग्रज भीष्म पितामह भी अपने प्राण त्यागने तक इसी उत्तरायण की प्रतीक्षा में शर-शैय्या पर लेटे रहे।
ऐतिहासिक तथ्यों से ऐसा ज्ञात होता है कि विभिन्न कालों में प्रथम नक्षत्र बनने का सौभाग्य भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को प्राप्त हुआ। कहीं बसंत सम्पात जिस नक्षत्र से प्रारंभ हुआ तो उसे ही प्रथम नक्षत्र की संज्ञा दे दी गई तो यदि कहीं शरद सम्पात अथवा मकर संक्रांति उत्तरायण का प्रारंभ हुआ तो उसे ही प्रथम नक्षत्र के रूप मे स्वीकार लिया गया। किंतु कालांतर में यह सम्पात कृतिका से भरणी फिर अश्विनी से हातेा हुआ अतं रवे ती के यागे नक्षत्र तक पहचं गया तथा तभी से धीरे धीरे अश्विनी नक्षत्र को प्रथम नक्षत्र मानने की परंपरा की शुरूआत होने लगी।
ऐसे तो प्रारंभ में इन नक्षत्रों की संख्या क्रमशः 28 थी किंतु कालांतर में ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों के आते-आते ज्योंहि भारतीय ज्योतिषीय विद्या में बेबीलोन व यूनानी ज्ञानों का समावेश हुआ, इन नक्षत्रों के साथ राशिगत प्रक्रिया भी समन्वित होने लगी। परंतु हर एक राशि में 30 अंश होने के परिणाम स्वरूप 12 राशियों के साथ 28 नक्षत्रों का गणितीय समायोजन कर पाना संभव न हो सका, जिस कारण इस सूची से अभिजीत नक्षत्र को हटाकर इन नक्षत्रों की संख्या 27 कर दी गई जिसमें प्रथम 9 नक्षत्रों अर्थात अश्विनी से अश्लेषा के 36 चरणों से प्रथम चार राशियां मेष से कर्क, अगले 9 नक्षत्रों मघा से ज्येष्ठा के 36 चरणों से अगली चार राशियां सिंह से वृश्चिक तथा अंतिम 9 नक्षत्रों मूल से रेवती के 36 चरणों से अंतिम चार धनु से मीन के अंतर्गत व्यवस्थित हुई।
इस प्रकार वृत्ताकार भचक्र तीन समान अंशात्मक भागों में विभक्त हुआ तथा प्रत्येक 120 अंश के एक भाग को तृतीयांश की संज्ञा दी गई। भचक्र में नक्षत्र, उनकी राशियां व स्वामी ग्रहों की वृत्ताकार रेखांकित सूची- नक्षत्रों से संबंधित कुछ योग व मुहूर्त ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्रों के स्वभावों व उनकी प्रवृत्तियों तथा तिथि, वारों, ग्रहों आदि के सम्मिश्रण से बने योगों व उनसे उत्पन्न प्रभावों को मुख्य रूप से प्रधानता दी गई है।
अतः इस प्रकरण में नक्षत्रों के गुण- विशेषताओं व उनकी भूमिकाओं के संयोगों से निर्मित कुछ निम्नांकित योगों व मुहूर्तों के विवरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं: ध्रुव व स्थिर नक्षत्र र विवा र के दिन पड़ने वाले उत्तरा-फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद व रोहिणी नक्षत्र को ध्रुव व स्थिर नक्षत्र की संज्ञा दी जाती है। गृह निर्माण, वास्तु-शांति, बाग लगाने आदि जैसे कार्यों के लिए यह योग अत्यंत शुभ है। मूल संज्ञक नक्षत्र मूल, ज्येष्ठा, रेवती, मघा, अश्विनी व अश्लेषा को मूल संज्ञक नक्षत्र के रूप में स्वीकारा गया है। अतः इन नक्षत्रों में यदि किसी बालक का जन्म हो तो यौगिकीय व धार्मिक क्रिया के विधिवत् विधानों से अवश्य ही शांति करा लेनी चाहिए।
घात नक्षत्र मेष राशि के लिए मघा, मिथुन के लिए स्वाति, कर्क के लिए अनुराधा, सिंह के लिए मूल, कन्या के लिए श्रवण, तुला के लिए शतभिषा, वृश्चिक के लिए रेवती, धनु के लिए भरणी, मकर के लिए रोहिणी, कुंभ के लिए आद्र्रा तथा मीन के लिए अश्लेषा नक्षत्र घात नक्षत्र होते हैं। इसलिए इन राशियों के जातक को किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करते समय इन नक्षत्रों के प्रति विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। गुरु पुष्य योग गुरुवार के दिन यदि पुष्य नक्षत्र हो तो इस दिन पुष्य गुरु योग घटित होता है। व्यापार प्रारंभ, यात्रा, गृह प्रवेश आदि जैसे कार्यों के हेतु इस योग को अत्यंत शुभ माना गया है।
रवि पुष्य योग रविवार के दिन यदि पुष्य नक्षत्र हो तो इस संयोग से रवि पुष्य योग की उत्पत्ति होती है। यौगिक क्रियाओं या मंत्रादि साधनाओं हेतु इस योग को अत्यंत लाभप्रद माना गया है। पुष्कर योग सूर्य विशाखा नक्षत्र में व चंद्र कृत्तिका नक्षत्र में हो तो इस संयोग से अति दुर्लभ समझे जाने वाले पुष्कर योग की सृष्टि होती है। यह महत्वपूर्ण योग शुभ कार्यों के हेतु अत्यंत ही सिद्धि दायक है। द्विपुष्कर योग मंगल, शनि व रविवार को तिथि 2, 7 या 12 हो तथा उस दिन मृगशिरा, चित्रा या धनिष्ठा नक्षत्र पड़े तो इस संयोग कार्य या घटना के घटित होने पर उसके दो बार होने की, पुनः पुनरावृत्ति अथवा दोहरे लाभ या हानि की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
त्रिपुष्कर योग मंगल, शनि या रविवार को तिथि 2, 7 या 12 हो तथा उस दिन कृत्तिका, उत्तरा फाल्गनुी, उत्तराषाढा व पनवर्सु विशाखा या पूर्वा भाद्रपद पड़े तो इस संयोग से त्रिपुष्कर योग की उत्पत्ति होती है। इस योग में होने वाले किसी भी प्रकार के शुभ या अशुभ कार्य अथवा घटनाओं के तीन बार पुनः घटित होने की आशंकाएं प्रबल हो जाती हैं। पंचक नक्षत्र धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद व रेवती नक्षत्रों में पंचक उत्पन्न होते हैं।
इस योग में किसी भी घटना या कार्य की पाचं बार पनुरावृत्त होने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। विवाह संस्कार हेतु शुभ नक्षत्र रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तरा फाल्गुनी, स्वाति, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद व रेवती नक्षत्रों को विवाह कार्य हेतु शुभ माना गया है। यात्रा हेतु शुभ नक्षत्र यात्रा हेतु हस्त, मृगशिरा, अनुराधा, श्रवण, अश्विनी, पुष्य, रेवती, धनिष्ठा व पुनर्वसु नक्षत्रों को अत्यंत शुभ तथा रोहिणी, तीनों उत्तरा, तीनों पूर्वा, ज्येष्ठा, मूल व शतभिषा नक्षत्रों को मध्य श्रेणी का कहा गया है।
यात्रा हेतु दिशा-शूल नक्षत्र पूर्व में ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ा व उत्तराषाढा़, दक्षिण मे विशाखा, श्रवण व पवू दप्र द, पश्चिम में रोहिणी, पुष्य व मूल, उत्तर मे पर्वू फाल्गनु, उत्तरा फाल्गनु , हस्त व विशाखा को यात्रा शूल नक्षत्र माना गया है। ये नक्षत्र यात्रा हेतु वर्जित हैं। इसके साथ-साथ जन्म नक्षत्र, विपत्, प्रत्यरि व वध (1, 3, 5, 7) नक्षत्रों को भी यात्रा हेतु वर्जित बताया गया है। यात्रा हेतु वार-शूल नक्षत्र रवि को मघा, सोम को विशाखा, मंगल को आद्र्रा, बुध को मूल, गुरु को कृतिका, शुक्र को रोहिणी तथा शनिवार को हस्त नक्षत्र को यात्रा हेतु वर्जित बताया गया है।