कालसर्प योग-प्रारूप, प्रभाव व निराकरण डॉ. टीपू सुल्तान कुंडली देखकर कालसर्प योग की पहचान करना आसान है परंतु व्यक्ति विशेष की स्थिति और अन्य लक्षणों के आधार पर इसकी पहचान तथा संबंधित दोष निवारण कैसे करें इसकी विधिवत जानकारी इस लेख से प्राप्त करें। अतरिक्ष में सताईस नक्षत्रों व उनसे निर्मित बारह राद्गिायों व उनके भावों की स्थिति व उनके स्थान - परिर्वतन व प्रत्येक भाव में कारक व अकारक ग्रहों की उपस्थिति व उनकी अवस्थाओं तथा मेलजोल के परिणाम स्वरूप गोचर में कई प्रकार के योगों का निर्माण होता है, जिनमें कालसर्प भी एक योग है।
व्यवहारिक तौर पर यह छाया ग्रह राहु व केतु तथा सर्प अर्थात विनाद्गाकारी काल की गति से जुड़ी एक अवस्था है जिसके कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं तो अधिकांद्गा अत्यन्त अद्गाुभ व हानिकारक भी। प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों, वेदों व पुराणों में हिरण्यकद्गिापु की पुत्री सिंहिका के पुत्र व इस योग के कारक ग्रह राहु को दानव के रूप में स्वीकारा गया है तो दूसरी तरफ महर्षि भृगु ने अपने ''भृगु सूत्र'' के आठवें अध्याय के ग्यारहवें व बारहवें श्लोक में जन्म कुण्डली में पंचम भाव में स्थित होकर मंगल से दृष्ट राहु को जीवन काल में संतान हानि या अभाव का कारक माना है।
कालसर्प योग के लक्षणः- रात्रि कालीन निद्रा काल में प्रायः स्वप्न में सांप, बिल्ली व कुत्ते के काटने, या पीछा करने, चौकने, कुएं, तालाब, दरिया, समुद्र आदि में डूबने, झगड़े, विवाद, उलझन, शारीरिक पीड़ा, पुराने खंडहरों, मकानो व उसकी छत व पेड़, पौधे आदि के गिरने, मृत्यु की आद्गांका तथा मृत पूर्वजों को देखना इस योग की स्थिति को स्पष्ट करते हैं।
इसके अतिरिक्त संतान हानि, कार्यों में अवरोध, परिवार में प्रतिपल कलह, आर्थिक हानि या धन रहते हुए भी उसके सुखों से वंचित, काफी अध्ययनों के पद्गचात भी द्गिाक्षण कार्यों में असफलताएं, रोग-पीड़ा तथा चेहरे का काला, नीला या उदासीन दिखना ये सारे लक्षण कालसर्प योग के विद्यमान होने को दद्गर्ााते हैं।
अतः जन्म कुण्डली के अभाव में इन्हीं आधारभूत लक्षणों व अवस्थाओं के अनुभवों के आधार पर जातक को अपने ऊपर व्याप्त इस योग का निराकरण करना चाहिए। कालसर्प योग की निष्पत्ति व प्रकारः- जन्म कुण्डली में राहु-केतु के सर्वदा एक दूसरे से सप्तम होने व इन दोनों ग्रहों की गति वक्र होने के परिणाम स्वरूप इन के मध्य सात भावों के अर्न्तगत आने वाले सभी ग्रह इन के मुख-ग्रस्त हो जाते हैं, जिससे कालसर्प योग की निष्पत्ति होती है।
अर्थात् राहु लग्न में हो, केतु सप्तम में व इन के मध्य शेष सभी ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि स्थित हो तो पूर्ण रूपेण कालसर्प योग का निर्माण होता है तथा इन्हीं प्रथम व द्वादद्गा भावों के गुण-विद्गोषों तथा इनमें इन भिन्न-भिन्न ग्रहों की उपस्थिति व अवस्थाओं के परिणाम स्वरूप यह योग बारह प्रकार के कालसर्प योगों में विभक्त हो जाता है।
प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों, वेदों व पुराणों में हिरण्यकद्गिापु की पुत्री सिंहिका के पुत्र व इस योग के कारक ग्रह राहु को दानव के रूप में स्वीकारा गया है तो दूसरी तरफ महर्षि भृगु ने अपने ''भृगु सूत्र'' के आठवें अध्याय के ग्यारहवें व बारहवें श्लोक में जन्म कुण्डली में पंचम भाव में स्थित होकर मंगल से दृष्ट राहु को जीवन काल में संतान हानि या अभाव का कारक माना है।
1. अनंत कालसर्प योगः- जन्म कुण्डली में राहु लग्न स्थान अर्थात प्रथम व केतु सप्तम में तथा शेष सभी ग्रह एक ओर विराजमान हों तो इस योग की निष्पत्ति होती है। प्रायः इस योग से प्रभावित जातक काले वर्ण के, दूसरों का दोष निकालने वाले व धूर्त प्रवृत्ति के होते हैं। धन का अभाव या धनवान होते हुए भी धन के सुखों से वंचित रहते हैं तथा जीवन में संतान पक्ष से कष्ट आदि का सामना करना पड़ता है।
2. कुलिक कालसर्प योगः- द्वितीय भाव में राहु व अष्टम में केतु व इन दोनों के बीच में शेष सभी ग्रह के स्थित होने से यह योग निर्मित होता है। प्रायः इस योग में चोट, दुर्धटना, पैतृक धन के सुखों से वंचित, कुटुम्ब सुख का अभाव, अत्यधिक मेहनत व न्यूनतम फल की अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं।
3. वासुकी कालसर्प योगः- जब तृतीय भाव में राहु व नवम में केतु हो तथा शेष सातों ग्रह एक ओर स्थित हों तो इस योग की अवस्था निर्मित होती है। इस योग से प्रभावित जातक डरपोक, कायर व ढोंगी प्रवृत्ति के होते हैं।
इन के जीवन में अचानक यद्गा, तो कभी अपयद्गा व कभी राजा तो कभी रंक जैसी अवस्थाएं उत्पन्न हो सकती हैं। ऐसे जातक को अपने हाथों धन को नष्ट करने में ज़्ारा-सा भी समय नही लगता तथा ये मानसिक तनाव व गुप्त आदि रोगों से सर्वदा परेद्गाान रहते हैं।
4. शंखपाल कालसर्प योगः- जब राहु चतुर्थ भाव में व केतु दद्गा्म में तथा दोनों ग्रहों के मध्य किसी एक ओर शेष सातों ग्रह विराजमान हो तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग से प्रभावित जातक के जीवन में संतान, जीवन साथी, द्गिाष्य आदि का अभाव रहता है। कम आयु में माता-पिता के सुखों से वंचित हो जाने की परिस्थिति, कार्यो में असफलता व अपमानजनक घटनाएं जातक को चैन से नही रहने देतीं।
5. पद्म कालसर्प योगः- पंचम भाव में राहु व केतु एकादद्गा में तथा शेष सभी ग्रह एक तरफ स्थित हों तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग में संतान अभाव, गर्भपात की स्थिति, आर्थिक कष्ट, शारीरिक पीड़ा, द्गिाक्षा में बाधाएँ, उदर रोग, आप्रेद्गान, व्यर्थ की कल्पना तथा भाइयों से छल जैसी समस्याओं व धटनाओं से जातक सर्वदा परेद्गाान रहता है।
6. महापदम कालसर्प योगः- इस योग का निर्माण कुण्डली में राहु के षष्ठ व केतु के द्वादद्गा भाव में तथा शेष सभी ग्रहों के एक ओर स्थित होने से होता है। इस योग से प्रभावित जातक को विषैली वस्तु से सर्वदा सावधान रहना चाहिए। राहु के पुरूष राद्गिा में स्थित होने से दुर्घटना, कोढ़, रक्त-पित्त, उदर व मस्तिष्क रोग के उत्पन्न होने की अधिक संभावनाएं होती हैं। विवाह के बाद ऐसे जातक का भाग्य उदय होता है।
7. तक्षक कालसर्प योगः- कुण्डली में राहु सप्तम भाव में व केतु लग्न स्थान पर स्थित हो तथा शेष सभी ग्रह एक ओर विराजमान हों तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग के जातक मानसिक रूप से चंचल व शर्मीले स्वभाव के व विधवा स्त्रियों से संबंध स्थापित करने वाले होते हैं। राहु यदि पुरूष राद्गिा में स्थित हो तो संपूर्ण जीवन में धन का अभाव, घर में सदैव असंतोष की स्थिति बनी रहती है।
8. कर्कोटक कालसर्प योगः- राहु अष्टम भाव में, केतु द्वितीय में तथा शेष सभी ग्रह एक ओर स्थित हों तो इस योग की निष्पत्ति होती है। यह योग कुटुम्ब से अलगाव, रोग व शत्रु पीड़ा का कारक माना गया है। ऐसे जातक लाटरी व जुआ अर्थात् अकस्मात धन की प्राप्ति में अधिक रूचि लेते हैं। यह योग स्त्री की कुण्डली में हो तो उसका दाम्पत्य जीवन नरकतुल्य होता है।
9. शंखनाद कालसर्प योगः- कुण्डली में नवम भाव में राहु व तृतीय में केतु तथा शेष सभी ग्रह इनके बीच में स्थित हों तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग से प्रभावित जातक दुःसाहसी, स्वयं को मृत्यु के मुख में झोंक देने वाले, भाग्य के साथ न देने पर हीन भावना से ग्रसित, तर्कवादी, नास्तिक व लापरवाह प्रवृत्ति के होते हैं।
10. पातक कालसर्प योगः- दद्गाम भाव में राहु व केतु चतुर्थ में हो तथा शेष ग्रह एक ओर विराजमान हों तो यह योग निर्मित होता है। इस योग से प्रभावित जातक का प्रारम्भ का जीवन उतार-चढ़ाव में व्यतीत होता है, परन्तु प्रौढ़ अवस्था में आते ही इन्हें धन, कीर्ति व सम्मान आदि की प्राप्ति होने लगती है। इन्हें स्वतंत्र व्यवसाय व बिना पूँजी के कार्यों से अधिक लाभ प्राप्त होता है। स्त्री राद्गिा में यदि राहु स्थित हो तो माता-पिता से जायदाद प्राप्त नही होती या प्राप्त हो भी जाए तो वह यथावत नही रह पाती।
11. विषाक्त कालसर्प योगः- राहु एकादद्गा भाव में व केतु पंचम में तथा शेष सभी ग्रह एक ओर विराजमान हों तो इस योग की निष्पत्ति होती है। इस योग में राहु के पुरूष राद्गिा में स्थित होने से द्गिाक्षण कार्य में व्यवधान, संतान-प्राप्ति में बाधा, स्त्री के बांझ होने आदि समस्याओं की अधिक संभावनाएं बढ़ जाती हैं। अमीर बनने की अधिक लालसा रखने वाला ऐसा जातक अन्धाधँुध रिद्गवत लेने व दूसरे का धन हड़पने में ज़्ारा-भी संकोच नही करता।
12. शेषनाग कालसर्प योगः- जब कुण्डली में राहु द्वादद्गा भाव में व केतु षष्ठ में स्थित हो व शेष ग्रह एक ओर विराजमान हों तो इस योग का सृजन होता है। इस योग से प्रभावित जातक को मानसिक पीड़ा, नेत्र एलर्जी आदि रोगों के उत्पन्न होने की अधिक संभावनाएं होती हैं। फिज़्ाूल खर्ची व कर्ज़्ा में डूबने के कारण इनका पारिवारिक जीवन हमेद्गाा अद्गाांत रहता है।
कालसर्प योग के सकारात्मक पहलूः- अंतरिक्ष के चक्र में इस योग का वर्ष में कई बार निर्माण होता है तथा असंखय ऐसे जातक हैं जो इस योग में जन्म लेते हैं तथा उन के प्रति कभी भी ऐसी आद्गाा नही की जा सकती कि ये सभी दुखः, पीड़ा व असफलताओं के द्गिाकार हों। तृतीय, षष्ठ व एकादद्गा भाव में स्थित राहु अनिष्ट-भंग योग का निर्माण करता है, जिससे सर्वाधिक प्रगति व समृद्धि की अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं।
कुण्डली में कारक या मित्र ग्रह, स्वगृही व उच्च के होकर स्थित हों राहु त्रिकोण में व मित्र राद्गिा में या किसी शुभ स्थान में स्थित हो या कन्या राद्गिा में विराजमान हो तो ऐसा योग शुभ परिणामदायी होता है। तुला लग्न व वृष राद्गिा में जन्म लेने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कुण्डली भी कालसर्प योग से प्रभावित थी। इस के अतिरिक्त देद्गा के पूर्व प्रधान मंत्री श्री पी0 वी0 नरसिम्हाराव व श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी उन प्रसिद्धि प्राप्त लोगों में हैं जिन्होंने कालसर्प योग में जन्म लिया। कालसर्प योग के निवारण हेतु
उपायः- सूर्य जब नीच राद्गिा में स्थित हो या धरातल से कुछ दिनों के लिए उसकी दूरी अधिक हो चुकी हो या वह अदृद्गय हो चुका हो अर्थात रात्रि की बेला हो तो प्रकाद्गा उर्जा के अभाव में छाया ग्रह राहु व केतु के प्रभावों से निर्मित कालसर्प योग की छायावी शक्ति और अधिक प्रभावकारी हो जाती है तथा खासकर इस योग से पीड़ित जातकों की परेद्गाानियँा और भी अधिक बढ़ जाती हैं तथा इस परिस्थिति के निवारण हेतु हर किसी के लिए पुरोहितों के द्वारा हवन, अपनी आस्था के अनुसार इबादत या पूजा व आयतों अर्थात मंत्रों की पूर्णरूपेण से साधना करवा पाना सम्भव नही हो पाता। इसी लिए इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इस योग के निवारण हेतु कुछ उपाय इस प्रकार हैं।
घर के पूर्व व दक्षिण कोण अर्थात आग्नेय कोण की स्वच्छता का विद्गोष ध्यान रखें व इस स्थान पर रात्रिकाल में नित्य लाल बल्ब जलाकर रखें। प्राण-प्रतिष्ठा कराकर कालसर्प दोष निवारण ''नागपाद्गा'' यंत्र को गले में धारण करें। प्रत्येक शनिवार को काले कुत्ते व बिल्ली को भोजन दें। बुध, शुक्र व शनि यदि लग्न के कारक ग्रह हों तो लोहे अथवा पंच धातु में निर्मित नाग व उसके साथ गोमेद रत्न को हरे धागे में डालकर गले में धारण करना चाहिए।
सूर्य, चन्द्र, मंगल व गुरू यदि लग्न के कारक ग्रह हों तो ताँबे अथवा स्वर्ण में निर्मित नाग की अंगूठी दाहिनी हाथ की अनामिका उँगली में धारण करनी चाहिए। काले व गाढ़े नीले रंग के वस्त्र का अधिक प्रयोग ना करें।