लघु कथाएं
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फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 6666 | फ़रवरी 2013

1- जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमतृ की पा्रप्तक लिय क्षीरसागर को मथ रहे थे, तब भगवान ने कच्छपके रूप में अपनी पीठपर मंदराचल धारण किया। उस समय पर्वत के घूमने के कारण उसकी रगड स उनकी पीठ की खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणों तक सुखकी नींद सो सके।।

2- देवताओं के मन से भय मिटाने के लिये उन्होंने नृसिंह का रूप धारण किया। फड़कती हुई भौहों और तीखी दाढ़ों से उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकश्यपु उन्हें देखते ही हाथ में गदा लेकर उनपर टूट पड़ा। इस पर भगवान् नृसिंह ने दूर से ही उसे पकड़कर अपनी जांघों पर डाल लिया और उसके छटपटाते रहने पर भी अपने नखों से उसका पेट फाड़ डाला।।

3- बड भारी सरावे र म महाबली गा्र ह ने गजन् दर का परै पक लिया। जब बहतु थककर वह घबरा गया, तब उसने अपनी सूंड़ में कमल लेकर भगवान् को पुकारा - ‘हे आदिपुरुष ! हे समस्त लाके क स्वामी ! ह श्रवणमात्र से कल्याण करने वाले !’ उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान् चक्रपाणि गरुड़ की पीठ पर चढ़कर वहां आये और अपने चक्र से उन्होंने ग्राह का मस्तक उखाड़ डाला। इस प्रकार भक्त वत्सल भगवान् ने अपने शरणागत गजेन्द्र का सूंड़ पकड़कर उस विपत्ति से उसका उद्धार किया।।

4- भगवान् वामन अदिति के पुत्रों में सबसे छोटे थे, परंतु गुणों की दृष्टि से सबसे बड़े थे क्योंकि यज्ञपुरुष भगवन ने इस अवतार में बलि के संकल्प छोड़ते ही संपूर्ण लोकों को अपने चरणों से ही नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वी के बहाने बलि से सारी पृथ्वी ले तो ली, परंतु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्ग पर चलने वाले पुरुषों को छल के सिवा और किसी उपाय से समर्थ पुरुष भी अपने स्थान से नही हटा सकत, एश्वर्य स च्युत नहीं कर सकते।

5- दैत्यराज बलि ने अपने सिर पर स्वयं वामन भगवान का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थिति में उन्हें जो देवताओं के राजा इंद्र की पद्वी मिली, इसमें कोई बालि का पुरुषार्थ नहीं था। अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी वे अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए। और तो क्या, भगवान का तीसरा पग पूरा करने के लिये उनके चरणों में सिर रखकर उन्होंने अपने-आपको भी समर्पित कर दिया।

6- स्वनामधन्य भगवान् धन्वन्तरि अपने नाम से ही बड़े-बडे रोगियों के रोग तत्काल नष्ट कर देते थे। उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओं को अमर कर दिया और दैत्यों के द्व ारा हरण किये हुए उनके यज्ञ-भाग उन्हें फिर से दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसार में आयुर्वेद का प्रवर्तन किया।।

7- जब संसार में ब्राह्मणद्रोही आर्य मर्यादा का उल्लंघन करने वाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाश के लिये ही दैववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वी के कांटे बन जाते हैं, तब भगवान् महापराक्रमी परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धारवाले फरसे से इक्कीस बार उनका संहार करते हैं।

8- मायापति भगवान् हमपर अनुग्रह करने के लिये अपनी कलाओं, भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण के साथ श्रीराम के रूप में इक्ष्वाकु के वंश में अवतीण्र् होते हैं। इस अवतार में अपने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिये अपनी पत्नी और भाई के साथ वे वन में निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध करके रावण उनके हाथों मरता है।

9- लकं का भस्म करन क लिय श्रीराम समुद्रतट पर पहुंचते हैं, उस समय सीता के वियोग के कारण बढ़ी हुई क्रोधाग्नि से उनकी आंखें इतनी लाल हो जाती हैं कि उनकी दृष्टि से समुद्र के मगरमच्छ, सांप और ग्राह आदि जीव जलने लगते हैं और भय से थर-थर कांपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें मार्ग दे देता है। जब रावण की कठोर छाती से टकराकर इंद्र के वाहन ऐरावत के दांत चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएं सफेद हो गयी थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंड से फूलकर हंसने लगा था।

वही रावण जब श्रीरामचंद्रजी की पत्नी सीताजी को चुराकर ले जाता है और लड़ाई के मैदान में उनसे लड़ने के लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान् श्रीराम के धनुष की टंकार से ही उसका वह घमंड प्राणों के साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है।



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