वास्तु शास्त्र के मूलभूत तत्व
वास्तु शास्त्र के मूलभूत तत्व

वास्तु शास्त्र के मूलभूत तत्व  

सुल्तान फैज ‘टिपू’
व्यूस : 8029 | दिसम्बर 2014

वास्तु विज्ञान पृथ्वी तत्वों के गुण विशेष बल, घूर्णन, चुंबकीय ध्रुवों, जल, अग्नि व वायु तत्वों के प्रवाह अर्थात् उनके बहाव की दिशाएं, सूर्य-किरणों की महत्ता या उनके उदित व अस्त होने की प्रभावकारिता तथा ब्रह्मांडीय परिधि के मध्य जीवात्मा या प्राण तत्व के रूप में स्वीकृत आवासीय स्वरूप अर्थात गृह निर्माण की एकरूपता व संतुलन प्रदान करने की एक विशिष्ट सिद्धांतीय प्रक्रिया है जो वर्षों पूर्व इस उपमहाद्वीप में रह रहे यौगिकीय साधकों व अनुसंधानकर्ताओं के अथक प्रयासों व साधनाओं के मध्य एक उपलब्धि स्वरूप फलित हुई जिसकी प्रमाणिकता ऋग्वेद, मत्स्य पुराण आदि जैसे प्राचीनतम ग्रंथों में देखी जा सकती है। ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीन गुरुकुल की शिक्षा के अंतर्गत आने वाले चैसठ कलाओं अर्थात विषयों के रूप में वास्तु शास्त्र की विद्या भी संलग्न थी।

अतः इस परिप्रेक्ष्य में भारत के प्राचीन मंदिरों में तिरूपति के भगवान वेंकटेश्वर, उज्जैन के महाकालेश्वर, मदुरई के मीनाक्षी आदि मंदिरों तथा मिश्र के पिरामिडों की निर्माण कला शैली वास्तु विद्या के अति महत्वपूर्ण उदाहरणों में शामिल हैं। वास्तु शास्त्र के अर्थ विशेष वास्तु वस्तु से उत्पन्न हुआ एक शब्द है, जिसकी कल्पना एक विशेष सत्ता के रूप में की गई है जिसमें नगर निर्माण की योजनाओं से लेकर भवन व छोटे-छोटे गृहों की निर्माण तक की योजनाएं भी सम्मिलित हैं। कहीं-कहीं वास्तु शब्द की तुलना वस शब्द अर्थात् ‘‘वास’’ से भी हुई है। संस्कृत भाषा की शाब्दिकता में वास्तु शब्द की गणना मनुष्य व देवताओं के निवास स्थान के रूप में की गई है।

अतः वास्तु कोई पर्यायवाची संबोधन नहीं है और न ही इस प्रक्रिया का तात्पर्य गृह निर्माण की सुंदरता, भव्य आकाश की छूती ऊंचाइयों, ऐश्वर्य, ऐशो आराम जैसी भौतिक संसाधनों से परिपूर्णता व उसमें सम्मिलित की गई मजबूत सामग्रियों से है, बल्कि इसका तात्पर्य उस स्थान पर रह रहे मनुष्यों की मानसिक शांति, आपसी स्नेह, उत्तम स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि से है। वास्तु सिद्धांत का स्वरूप वास्तु सिद्धांत पृथ्वी की चारो दिशाओं, उनके वर्गाकार चारों कोणों व उन कोणों के केंद्र बिंदु तथा पंच महाभूतों आकाश, भू, वायु, जल, अग्नि आदि व सहायक तत्व-चुंबकीय दो महाध्रुवों व उसके प्रवाह के मध्य संतुलित सत्ता के निर्माण की एक प्रक्रिया है, जिनके विधिवत विवरण निम्नगत किए जा रहे हैं- पूर्व दिशा यह भाग सूर्य के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आता है।

नव उदित सूर्य की स्वास्थ्य वर्धक, मानसिक व आत्मिक शांति प्रदायक महत्वपूर्ण रश्मीय ऊर्जा का प्रवेश क्षेत्र होने के कारण वास्तु शास्त्र में इस दिशा का अति महत्वपूर्ण स्थान है। दूसरी तरफ इस दिशा को पितृ व वंशदायक स्थान की संज्ञा भी दी गई है। अतः नवीन ऊर्जा व स्फूर्तिदायक तत्वों के प्रवेश हेतु इस दिशा की ओर प्रवेश द्वार व बड़ी-बड़ी खिड़कियों का होना अत्यंत अनिवार्य है। पश्चिम दिशा यह शनि ग्रह के प्रतिनिधित्व की दिशा है जिसे सुख-समृद्धि, व्यक्तित्व के विकास, भव्यता, यश वृद्धि, धन, चंचलता व वायु तत्व के सूचक के रूप में स्वीकारा गया है।

उत्तर दिशा पैतृक स्थान के रूप में स्वीकृत यह दिशा ध्रुव तारे की तरह स्थिरता का प्रतीक है। बुध ग्रह व कुबेर के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आने वाली इस दिशा को धन-धान्य, विज्ञान-ज्ञान व सुख-समृद्धि हेतु मुख्य रूप से विचारणीय माना गया है। चुंबकीय तत्व या गुरुत्वाकर्षण शक्ति की ऊर्जा का संचार इसी दिशा की ओर से होता है। इस दिशा की ओर खाली स्थान छोड़ना व दरवाजे, खिड़की लगाना अति लाभप्रद माने गए हैं।

दक्षिण दिशा इस दिशा को यम-निवास के रूप में स्वीकारा गया है जिसे पृथ्वी तत्व की संज्ञा दी जाती है। शत्रुभय, रोग, कष्ट आदि जैसे हानिकारक विषय इसी दिशा के अंतर्गत आते हैं। इस कारण इस दिशा की ओर खिड़की, दरवाजे आदि के निर्माण को सर्वदा वर्जित माना गया है। ईशान कोण पूर्व व उत्तर दिशा का यह त्रिकोणात्मक कोण गुरु ग्रह के अंतर्गत आता है।

मुख या मस्तिष्क के रूप में तुल्य यह कोण यश, कामना, पौरूष, सामाजिक प्रतिष्ठा, पारिवारिक समृद्धि आदि जैसे विषयों हेतु मुख्य रूप से विचारणीय है। इस कारण इस स्थान की स्वच्छता को अति अनिवार्य माना गया है। भूमिगत टंकी, बोरिंग, जल स्थान, अध्ययन कक्ष व मुख्य प्रवेश द्वार के निर्माण हेतु यह क्षेत्र अत्यंत उपयुक्त है। आग्नेय कोण शुक्र ग्रह के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आने वाले इस दक्षिण-पूर्व कोण को ताप, ऊर्जा, अग्नि आदि जैसे विषयों हेतु मुख्य रूप से विचारणीय माना गया है। उत्तम स्वास्थ्य, तेज व शारीरिक प्रबलता जैसे तत्व इसी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।

रसोई, विद्युत आदि जैसे अग्नि या ऊर्जा से संबंधित कार्य इसी कोण में संपन्न होने चाहिए। इस कोण की दीवार का रंग लाल अथवा गुलाबी होना चाहिए। वायव्य कोण उत्तर-पश्चिम दिशा के इस त्रिकोणात्मक भाग को व्यावहारिक संबंध, सामाजिक उत्कृष्टता व पारिवारिक समृद्धिदायक कोण की संज्ञा दी गई है। मेहमान-वास, राशन भंडार व मनोरंजन कार्यों हेतु यह कोण अत्यंत उपयुक्त है। नैर्ऋत्य कोण दक्षिण-पश्चिम का यह कोण राहु व केतु ग्रहों के प्रतिनिधित्व के अंतर्गत आता है। आचार-विचार, वाणी आदि जैसे महत्वपूर्ण विषय इसी भाग के अधीन माने गए हैं।

अति संवेदनशील समझे जाने वाले इस क्षेत्र को पिता, कुंवारांे व छात्रों के निवास हेतु अत्यंत उपयुक्त कहा गया है। सुख-समृद्धि हेतु इस भाग के सतह का ऊंचा होना अति अनिवार्य है। भारी सामान के रखने, शौचालय, सेप्टिक टैंक आदि के निर्माण कार्य भी इस स्थान पर पूर्ण कराए जा सकते हैं। प्रवेश द्वार हेतु यह कोण वर्जित है। केंद्र चारों दिशाओं व उनके चारों कोणों के बीच की इस केंद्र बिंदु अर्थात ‘‘नाभि’’ को ब्रह्म स्थान के तुल्य माना गया है जिसे प्रेम, स्नेह, एकीकरण अर्थात् संयुक्त परिवार की एकता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।

चांद-सितारों के कारण, शीतल तत्वों के प्रवेश तथा आकाश-पाताल के मध्य प्राकृतिक संतुलन की क्रिया इसी केंद्र स्थान के द्वारा नियंत्रित होती है। यह भाग आंगन के लिए उपयुक्त है। इस भाग की सतह कच्ची या मिट्टी की होनी चाहिए। आकाश क्षितिज अर्थात आकाश या गगन का तात्पर्य गृह या भवन पर पड़ने वाली वृक्ष, खंभे, देवालय आदि की छाया व उनके शुभ व अशुभ प्रभावों से है। भू-तल भूतल का तात्पर्य पृथ्वी तत्व की शुद्धता व तात्विक गुणवत्ता से है।

इस आधार पर मिट्टी के रंग, आर्द्रता, गंध, उर्वराशक्ति, भूमि की निश्चित गहराई व उसमें दबी अवांछित सामग्रियों के गृह या भवन पर पड़ने वाले प्रकोप मुख्य रूप से विचारणीय माने गए हैं।

वास्तु विद्या के उपयोगी सूत्र :

- भूमि खुदाई के समय चींटी, दीमक, सांप की हड्डी, पुराने कपड़े, कौड़ी, राख या जली लकड़ी व जंग लगे लोहे का मिलना शुभ नहीं होता।

- भूमि की ढलान उत्तर से पूर्व तथा घर के छत की ढलान ईशान कोण की ओर होनी चाहिए।

- भूखंड के उत्तर व पूर्व की ओर मार्ग या रास्ते का होना शुभ माना गया है।

- गृह के उत्तर-पूर्व व ईशान कोण पर सर्वदा हल्के सामान रखें।

- सोते समय सिर दक्षिण की ओर रख कर सोयें। उत्तर दिशा की ओर सिर रखकर सोना वास्तु नियमों में वर्जित है।

- घर में अनुपयोगी वस्तु जैसे- खाली पलंग, टूटा शीशा या दर्पण व जंग लगे लोहे की कोई वस्तु न रखें।

- नैर्ऋत्य कोण के भाग में किरायेदार या अतिथि को नहीं ठहराएं।

- दिन में उत्तर तथा रात्रि काल में दक्षिण दिशा की ओर मुख करके मल, मूत्र आदि का त्याग करें।

- भोजन सर्वदा पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके करें।

- धन अर्थात तिजोरी के मुख को उत्तर दिशा की ओर रखें।

- सीढ़ियों के नीचे पूजा घर, शौचालय व रसोई घर का निर्माण न करें।

- ईशान कोण में सीढ़ियों का निर्माण वर्जित है।

- दरवाजे व खिड़कियों के खोलते समय आवाज का आना तथा उनका स्वतः खुलना या बंद होना अशुभ माना गया है।

- आग्नेय कोण में यदि रसोई घर न हो तो उस स्थान की दीवार पर लाल बल्ब जलाएं।

फेंग शुई द्वारा वास्तु-दोषों का निराकरण :

- प्रवेश द्वार के सामने खंभा व गड्ढा या अन्य कोई दोष उत्पन्न हो रहा हो तो मुख्य द्वार पर पाकुआ दर्पण लगाएं। हो तो उस कक्ष की दीवार पर बागुआ यंत्र लगाएं।

- घर में बीम-दा ेष के प्रभाव को कम करने हेतु लाल रिबन में बांसुरी बांधकर बीम में टांगें। ध्यान रहे बांसुरी का मुंह नीचे की ओर हो।

घर से नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने हेतु प्रवेश द्वार पर फेंग शुई द्वारा वास्तु-दोषों का निराकरण :

- शयन कक्ष में यदि किसी भी प्रकार का कोई वास्तु दोष उत्पन्न हो रहा विंड चाईम अर्थात पवन घंटी टांगें।

- मिट्टी या शीशे के पात्र में नमक रखकर शौचालय के अंदर की ऊंची सतह पर रखें। ऐसा करने से इस स्थान पर नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव कम हो जाता है।

- भोजन कक्ष की दीवार पर दर्पण लगाएं।

- रसोई घर में दर्पण न लगाएं।

- घर में कांटेदार पौधे नहीं लगाएं।

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