संधिकाल या संक्रमण काल सदैव से ही अशुभ, हानिकारक, कष्टदायक एवं असमंजसपूर्ण माना जाता रहा है। संधि से तात्पर्य है एक की समाप्ति तथा दूसरे का प्रारंभ, चाहे वह समय हो या स्थान हो या परिस्थिति हो। ऋतुओं के संधिकाल में रोगों की उत्पत्ति होती है। दिन व रात्रि के संधिकाल में ईश वंदना की जाती है। शासन प्रशासन के संधिकाल में जनता को कष्टों का सामना करना पड़ता है। कमरे व बरामदे के मध्य (दहलीज पर) शुभ कार्य वर्जित है। दो प्रकार के मार्गों के मिलन स्थल पर सावधानी सूचक चेतावनी पट्ट लगे होते हैं। वरदान प्राप्त करने पर भी हिरण्यकश्यप का जिस प्रकार अंत हुआ वह भी संधि का ही उदाहरण है।
ज्योतिष में ऐसी ही संधिकालीन स्थिति के अनेक उदाहरण हैं, जैसे सूर्य संक्रांति, नक्षत्र संधि, राशि संधि, तिथि संधि, लग्न संधि, भाव संधि दशा संधि आदि। ऐसी संधियों में जन्मे जातक को भारी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार के संधिकालों में शुभ कार्य, विवाह, यात्रा आदि वर्जित हैं। हम यहां ऐसी संधि पर विचार करेंगे जिसमें दो प्रकार की संधियां यथा नक्षत्र संधि तथा राशि संधि एक साथ आती है।
राशियों में 27 नक्षत्रों का वितरण करने के लिए भचक्र को 120 अंश के तीन तृतीयांशों में बांटा गया है। एक तृतीयांश (120 अंश) में 9 नक्षत्र, 36 चरण तथा 4 राशियां आती हैं। तीनों तृतीयांशों में 9-9 नक्षत्रों की आवृत्ति नक्षत्र स्वामी के अनुसार समान रूप से है। प्रत्येक तृतीयांश केतु के नक्षत्र (कमशः 1 आश्विनी, 10 मघा तथा 19 मूल) से प्रारंभ होता है तथा बुध के नक्षत्र (क्रमशः 9 आश्लेषा, 18 ज्येष्ठा तथा 27 रेवती) पर समाप्त होता है।
यदि हम राशियों के वितरण पर ध्यान दें तो स्पष्ट होगा कि प्रत्येक तृतीयांश अग्नि तत्व राशि (क्रमशः मेष, सिंह तथा धनु) से प्रारंभ तथा जल तत्व प्रधान राशि (क्रमशः कर्क, वृश्चिक तथा मीन) पर समाप्त होता है। 0 अंश, 120 अंश तथा 240 अंश को इसी आधार पर जन्मकुंडली में भी त्रिकोणों की संज्ञा दी जाती है। ये बिंदु क्रमशः लग्न, पंचम तथा नक्षत्र भावों के प्रारंभ माने जाते हैं। ये तीनों बिंदु ऐसे स्थानों पर हैं जहां नक्षत्र व राशि दोनों एक साथ समाप्त एवं प्रारंभ होते हैं अर्थात ये बिंदु नक्षत्र एवं राशि के संयुक्त संधि स्थल हं। 1. 0 अंश पर रेवती (मीन) समाप्त होकर अश्विनी (मेष) से प्रारंभ होता है। 2. 120 अंश पर अश्लेषा (कर्क) समाप्त होकर मघा (सिंह) से प्रारंभ होता है। 3. 240 अंश पर ज्येष्ठा (वृश्चिक) समाप्त होकर मूल (धनु) से प्रारंभ होता है।
उपर्युक्त समाप्त होने वाले नक्षत्रों (रेवती, अश्लेषा व ज्येष्ठा) का स्वामी बुध है तथा तीनों संबंधित राशियां (मीन, कर्क तथा वृश्चिक) जल तत्व प्रधान हैं। इसी प्रकार प्रारंभ होने वाले नक्षत्रों (अश्विनी, मघा, व मूल) का स्वामी केतु है तथा तीनों संबंधित राशियां (मेष, सिंह व धनु) अग्नि प्रधान हैं। बुध के नक्षत्र रजोगुणी तथा केतु के नक्षत्र तमो गुणी हैं। इस प्रकार ये बिंदु राशियों के अनुसार अग्नि तथा जल के संगम स्थल तथा नक्षत्रों के अनुसार रज और तम के हैं। इन्हीं के आधार पर ये संधि स्थल क्षोभपूर्ण, अशांत, विस्फोटक एवं तूफानी होने के कारण अशुभ माने जाते हैं।
अतः नक्षत्रों के ये तीन युग्म यथा रेवती+अश्विनी, आश्लेषा+मघा तथा ज्येष्ठा+मूल गंडमूल संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं। यदि जातक का तात्कालिक चंद्र स्पष्ट उपर्युक्त राश्यांशों में हो तो उसका जन्म गंडमूल नक्षत्र में माना जाना चाहिए। बड़े व छोटे मूल: मूल, ज्येष्ठा व अश्लेषा बड़े मूल कहलाते हैं तथा अश्विनी, रेवती व मघा छोटे मूल हैं। बड़े मूलों में जन्मे जातक के लिए जन्म के 27 दिन बाद चंद्रमा जब उसी नक्षत्र में आता है तब मूल शांति कराई जाती है। तब तक पिता बालक का मुंह नहीं देखता। छोटे मूलों की शांति 10वें दिन अथवा 19वें दिन जब उसी स्वामी का दूसरा या तीसरा नक्षत्र (अनुजन्म या त्रिजन्म) आता है तब कराई जा सकती है।
गण्डांत मूल: संधि के अधिकाधिक निकट गंडमूलों की अशुभता में और भी वृद्धि हो जाती है। 0, 120 व 240 अंश तो अत्यंत ही संवेदनशील बिंदु हैं, क्योंकि वहीं जल और अग्नि का वास्तविक मिलन होता है। ऐसे समय में जातक का जन्म होना अत्यंत ही दुविधाजनक होता है। या तो ऐसा बालक जीता ही नहीं, यदि जी जाए तो फिर विशेष रूप से विख्यात होता है। परंतु माता-पिता के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। सारावली के इस श्लोक से उक्त की पुष्टि होती है। ‘‘जातो न जीवति मरो मातुर पथ्यो भवेत्स्वकुलहन्ता। यदि जीवति गण्डान्ते बहुगजतुरगो भवेद् भूयः।।’’ संधि के अत्यंत निकट वाले भाग को गण्डांत मूल की संज्ञा दी जाती है।
प्राचीन विद्वानों के अनुसार नक्षत्र युग्म के पिछले नक्षत्र की अंतिम 2 घटियां तथा अगले नक्षत्र की प्रथम दो घटियां (लगातार 4 घटियां) गंडान्त मूल की श्रेणी में आती हैं। इन विद्वानों ने प्रत्येक नक्षत्र में चंद्रमा का भभोग 60 घटी मानकर व्यक्त किया होगा परंतु चंद्रमा का प्रत्येक नक्षत्र में भभोग समान नहीं रहता। अतः इस समय सीमा के बजाय कोणात्मक मान में परिवर्तन करना उपयुक्त रहा। 60 घटी में से 2 घटी का अर्थ 800 कला का 2/60 अर्थात 800 X1/30 अर्थात 800 X 1/30 = 26 कला 40 विकला कोणात्मक मान होता है। उपर्युक्त गणना के आधार पर गंडांत मूल संज्ञक नक्षत्रों का कोणात्मक विस्तार निम्नानुसार होना चाहिए।
अभुक्त मूल: ज्येष्ठा नक्षत्र के अंत की एक घटी (24 मिनट) तथा मूल नक्षत्र की प्रथम एक घटी (24 मिनट) अभुक्त मूल कहलाती है। उपर्युक्त गणनानुसार 2 घटी का कोणात्मक मान 26 कला 40 विकला होता है, अतः एक घटी का कोणात्मक मान 13 कला 20 विकला हुआ। इसके अनुसार अभुक्त मूल का कोणात्मक विस्तार निम्नानुसार होता है। अलग-अलग विद्वानों के अनुसार उक्त घटियों की संख्या भिन्न-भिन्न हैं। परंतु कुल मिलाकर देखा जाए तो ज्येष्ठा का चतुर्थ चरण तथा मूल का प्रथम चरण सर्वाधिक हानिकारक है।
सामान्य रूप से तृतीयांशों के अंतिम नक्षत्रों (रेवती, अश्लेषा व ज्येष्ठा) के प्रथम चरणों से ज्यों-ज्यों चतुर्थ चरणों की ओर (संधि के निकट) बढ़ते हैं तो अशुभता बढ़ती जाती है। इसके विपरीत तृतीयांशों के प्रारंभिक नक्षत्रों (आश्विनी, मघा व मूल) के प्रथम चरणों से चतुर्थ चरणों की ओर संधि से दूर बढ़ने पर अशुभता कम होती जाती है। अभुक्त मूल में जन्मे बालक का मुंह पिता द्वारा 3 वर्ष तक देखना वर्जित है। इसलिए प्राचीन काल में ऐसे बालकों को त्याग दिया जाता था। इसी प्रकार के दो जातक आगे चलकर महासन्त तुलसीदास एवं कबीर के नाम से अमर हो गए। गंडमूल संज्ञक नक्षत्रों के चरणानुसार जन्मफल नीचे दिए जा रहे हैं।
इन फलों में जहां पिता, माता, ज्येष्ठ भ्राता या अनुज भ्राता शब्द आए हैं, लड़कों के लिए है और लड़कियों के लिए इन्हें कुरूपा, श्वसुर, सास, जेठ या देवर समझा जाना चाहिए।