पुंसवन व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर मार्गशीर्ष की अमावस्या को पूर्ण होता है। श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को इस व्रत का वर्णन सुनाते हुए कहा था कि यह व्रत समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। स्त्री को चाहिए कि वह अपने पति की आज्ञा लेकर यह व्रत प्रारंभ करे। पहले मरुद्गण के जन्म की कथा सुनकर ब्राह्मणों से आज्ञा ले, फिर प्रतिदिन प्रातः काल दांतुन कर के स्नान करे, दो सफेद वस्त्र धारण करे और आभूषण भी पहन ले। बिना खाये-पीये ही प्रातःकाल में भगवान लक्ष्मीनारायण की पूजा करे। इस प्रकार प्रार्थना करे- ‘प्रभो! आप पूर्ण काम हैं, अतएव आपको किसी से भी कुछ लेना-देना नहीं है।
आप समस्त विभूतियों के स्वामी और सकल सिद्धि स्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूं। माता लक्ष्मी जी! आप भगवान की अद्र्धांगिनी और महामाया स्वरूपिणी हैं। भगवान के सारे गुण कृपा, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आप में निवास करते हैं। महाभाग्यवती जगन्माता! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूं।’ इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचिŸा से- ‘¬ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि’ मंत्र के द्वारा प्रतिदिन विष्णु भगवान का आवाहन, अघ्र्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि निवेदन करके पूजन करे। जो नैवेद्य बचा रह जाए उससे- ‘¬ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहा’ मंत्र बोलकर अग्नि में बारह आहुतियां दे। इस प्रकार परम वरदानी भगवान लक्ष्मीनारायण की स्तुति करके वहां से नैवेद्य हटा दे और आचमन करके पूजा करे। तदनंतर भक्तिभाव से भगवान की स्तुति करे और यज्ञावशेष को सूंघकर फिर भगवान की पूजा करे।
भगवान की पूजा के बाद अपने पति को साक्षात भगवान समझकर परम प्रेम से उसकी प्रिय वस्तुएं सेवा में उपस्थित करे। पति का भी यह कर्तव्य है कि वह आंतरिक प्रेम से अपनी पत्नी के प्रिय पदार्थ ला-लाकर उसे दे और उसके छोटे-बड़े सब प्रकार के काम करता रहे। पति-पत्नी में से एक भी कोई काम करता है, तो उसका फल दोनों को होता है। इसलिए यदि पत्नी (रजोधर्म आदि के समय) यह व्रत करने के अयोग्य हो जाए तो पति को ही पूरी एकाग्रता और सावध् ाानी से इसका अनुष्ठान करना चाहिए। यह भगवान विष्णु का व्रत है। इसका संकल्प लेकर बीच में कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जो भी यह नियम ग्रहण करे, वह प्रतिदिन माला, चंदन, नैवेद्य और आभूषण आदि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों और सुहागिनों का पूजन करे तथा भगवान विष्णु की भी पूजा करे। इसके बाद भगवान को उनके धाम में पधरा दे, विसर्जन कर दे। तदनंतर आत्मशुद्धि और समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए पहले से ही उन्हें निवेदित किया हुआ प्रसाद ग्रहण करे।
साध्वी स्त्री इस विधि से पूरे साल भर इस व्रत का पालन करके मार्गशीर्ष की अमावस्या को उद्यापन संबंधी उपवास और पूजन आदि करे। उस दिन प्रातः काल ही स्नान करके पूर्ववत विष्णु भगवान का पूजन करे और उसका पति पाकयज्ञ की विधि से घृत मिश्रित खीर की अग्नि में बारह बार आहुति दे। इसके बाद जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दे, तो बड़े आदर से सिर झुकाकर उसे स्वीकार करे। भक्तिभाव से माथा टेककर उनके चरणों में प्रणाम करे। पहले आचार्य को भोजन कराए, फिर ब्राह्मण व आचार्य की आज्ञा लेकर मौन होकर भाई-बंधुओं के साथ स्वयं भोजन करे। इसके बाद हवन से बची हुई घृतमिश्रित खीर अपनी पत्नी को दे। वह प्रसाद स्त्री को सत्पुत्र और सौभाग्यवान करने वाला होता है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- ‘परीक्षित! भगवान विष्णु के इस पुंसवन व्रत का जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु ्राप्त हो जाती है। स्त्री इस व्रत का पालन करके सौभाग्य, सन्तान, संपŸिा, यश और मान प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है। इस व्रत का अनुष्ठान करने वाली कन्या संपूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त पति प्राप्त करती है और विधवा इस व्रत से निष्पाप होकर वैकुंठ में जाती है। जिसके बच्चे मर जाते हों, वह स्त्री इसके प्रभाव से चिरायु पुत्र प्राप्त करती है। धनवती किंतु अभागिनी स्त्री को सौभाग्य प्राप्त होता है और कुरूपी को सुन्दर रूप मिल जाता है।
रोगी इस व्रत के प्रभाव से रोगमुक्त होकर बलिष्ठ शरीर और श्रेष्ठ इन्द्रियशक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य श्राद्धकर्मों में इसका पाठ करता है, उसके पितर और देवता अनंत तृप्ति लाभ प्राप्त करते हैं। वे संतुष्ट होकर हवन के समाप्त होने पर व्रती की सभी कामनाएं पूर्ण कर देते हैं। वे सब तो संतुष्ट होते ही हैं, समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता भगवान लक्ष्मीनारायण भी संतुष्ट हो जाते हैं और व्रती की सभी अभिलाषाएं पूरी कर देते हैं। इस दिव्य व्रत का अनुष्ठान महर्षि कश्यप जी ने दिति को बताया था, जिसके करने से दिति को उनचास मरुद्गण की प्राप्ति हुई थी। मरुदगण उत्पŸिा की कथा इस प्रकार है। मरुद्गण जन्म कथा श्री शुकदेव जी कहने लगे- ‘परीक्षित! भगवान विष्णु ने इंद्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु को मार डाला।
अतः दिति शोक व क्रोध से युक्त होकर इस प्रकार सोचने लगी ‘सचमुच इंद्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है। राम! राम! उसने अपने भाइयों को ही मरवा डाला! वह दिन कब आएगा, जब मैं भी उस पापी को मरवाकर आराम से सोऊंगी। अब मैं वह उपाय करूंगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इंद्र का घमंड चूर-चूर कर दे। दिति अपने मन में ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय, प्रेम और जितेंद्रियता आदि के द्वारा निरंतर अपने पति के हृदय का एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुस्कान भरी तिरछी चितवन से उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। कश्यप जी महाराज बड़े विद्वान और विचारवान होने पर भी चतुर दिति की सेवा से मोहित हो गए और उन्होंने विवशतः यह स्वीकार करते हुए कहा कि- ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा’।
अनिन्द्य सुन्दरी प्रिये! मैं तुम पर प्रसन्न हंू। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे मांग लो। पति के प्रसन्न हो जाने पर पत्नी के लिए कोई भी वस्तु लोक या परलोक में दुर्लभ नहीं है। शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि पति ही स्त्रियों का परमाराध्य इष्टदेव है। स्त्रियों के लिए स्वयं भगवान ने पति का रूप धारण किया है। प्रिये! लक्ष्मीपति भगवान वासुदेव समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं। कल्याणी! तुमने बड़े प्रेमभाव से, भक्ति से पातिव्रत्य धर्म का पालन करने वाली पतिव्रता स्त्रियों की ही तरह अनन्यभाव से मेरी पूजा की है। यही स्त्री का धर्म है। पति ही उसका परमेश्वर है। अब मैं तुम्हारी सभी अभिलाषाएं पूर्ण कर दूंगा।
असतियों के जीवन में ऐसा होना अत्यंत कठिन है।’ दिति ने कहा- ‘ब्रह्मन! इंद्र ने विष्णु के हाथों मेरे दो पुत्रों को मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिए यदि आप मुझे मुंह मांगा वर देना चाहते हैं, तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिए, जो इंद्र को मार डाले। दिति की बात सुनकर कश्यप जी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन ही मन कहने लगे- ‘हाय! हाय! आज मेरे जीवन में बहुत बड़े अधर्म का अवसर आ पहुंचा। स्त्री रूपिणी माया ने मेरे चिŸा को अपने वश में कर लिया है। अवश्य ही अब मुझे नरक में गिरना पड़ेगा। इस स्त्री का कोई दोष नहीं है, क्योंकि इसने तो अपने जन्मजात स्वभाव का ही अनुसरण किया है। अब तो मैं कह चुका हूं कि जो तुम मांगोगी, दूंगा।
मेरी बात असत्य नहीं होनी चाहिए। कश्यप जी गहन विचार-विमर्श के बाद बोले- ‘देवी! यदि तुम मेरे बतलाए हुए व्रत का एक वर्ष तक विधिपूर्वक पालन करोगी’ तो तुम्हें इंद्र को मारने वाला पुत्र प्राप्त होगा। परंतु यदि किसी प्रकार नियमों में त्रुटि हो गई तो देवताओं का मित्र बन जाएगा। दिति ने कहा- ‘स्वामी! मैं उस व्रत का पालन करूंगी। आप मुझे संपूर्ण विधि-विधान समझाइए।’ कश्यप जी ने कहा- ‘प्रिये! इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वाणी या क्रिया के द्वारा सताएं नहीं, किसी को शाप या गाली न दे, असत्य भाषण न करे, शरीर के नख और रोएं न काटे और किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे। जल में घुसकर स्नान करे, क्रोध न करे, दुर्जनों से बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने।
जूठा न खाए, भद्रकाली का प्रसाद या मांसयुक्त भोजन न करे। शूद्र का लाया हुआ और रजस्वला का देखा हुआ अन्न भी न खाए और अंजलि से जलपान न करे। जूठे मुंह बिना आचमन किए संध्या के समय, बाल खोले हुए, बिना शृंगार के, वाणी का संयम किए बिना और बिना चादर ओढ़े घर से बाहर न निकले। बिना पैर धोए, अपवित्र अवस्था में गीले पांवों से, उŸार या पश्चिम सिर करके, दूसरे के साथ, नग्नावस्था में तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिए। इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे और सभी सौभाग्य चिह्नों से सुसज्जित रहे। प्रातःकाल कलेवा करने के पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान नारायण की पूजा करे।
इसके बाद पुष्पमाला, चंदनादि सुगंध् िात द्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादि से सुहागिनों की पूजा करे तथा पति की पूजा करके उसकी सेवा में संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में स्थित है’। प्रिये! इस व्रत का नाम ‘पुंसवन’ है। यदि एक वर्ष तक तुम इसे बिना किसी त्रुटि के पालन कर सकोगी, तो तुम्हारी कोख से इंद्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा।’ सर्वसमर्थ कश्यप जी ने तनिक रुष्ट होकर दिति से मन ही मन अपनी भत्र्सना करके दोनों बात बनाने का उपाय सुझा दिया।
श्री शुकदेवजी कहते हैं- ‘राजन्! दिति बड़ी मनस्विनी और दृढ़ निश्चय वाली थी। उसने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर व्रत के नियमों का पालन करना शुरू किया। तभी देवराज इंद्र भी अपनी मौसी दिति का अभिप्राय जानकर बड़ी बुद्धिमानी से अपना भेष बदलकर दिति के आश्रम पर आकर उनकी सेवा इस कामना के साथ करने लगे कि दिति के व्रत में कोई त्रुटि हो जाए, जिससे यह व्रत खण्डित हो जाए। समयानुसार प्रतिदिन इंद्र भी वन से फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पŸो, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवा में समर्पित करते रहे। व्रत समय भी पूर्ण होने को था परंतु दिति के व्रत नियमों में कोई भूल नहीं हुई। इंद्र विचलित हो गए। वे सोचने लगे- ‘मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूं, जिससे मेरा कल्याण हो?’ दिति व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गई। विधाता ने भी उसे मोह में डाल दिया।
इसलिए एक दिन संध्या के समय जूठे मुंह, बिना आचमन किए और बिना पैर धोए ही वह सो गई। योगेश्वर इंद्र ने स्वर्णिम अवसर जान योगबल से दिति के गर्भ में प्रवेशकर सोने के समान चमकते हुए गर्भ के ब्रज के द्वारा सात टुकड़े कर दिए। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ कहकर सातों टुकड़ों में से एक-एक के और भी सात टुकड़े कर दिए। इंद्र जब उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सभी ने हाथ जोड़कर उनसे कहा- ‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं।’ तब इंद्र ने अपने भावी अनन्य प्रेमी पार्षद मरुद्गण से कहा- ‘अच्छी बात है, तुम लोग मेरे भाई हो। अब मत डरो।’
श्री हरि की कृपा से, जिस प्रकार परीक्षित अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम्हारी रक्षा हुई, उसी प्रकार उन्हीं भगवान श्री हरि की कृपा से दिति का गर्भ वज्र के द्वारा टुकड़े-टुकड़े होने पर भी मरा नहीं क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान नारायण की आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है, फिर दिति ने तो कुछ कम ही सही एक वर्ष तक भगवान की आराधना की थी। अब वे उनचास मरुद्गण इंद्र के साथ मिलकर पचास हो गए। इंद्र ने भी सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया। जब दिति की आंख खुली तब उसने देखा कि उसके अग्नि के समान तेजस्वी उनचास बालक इंद्र के साथ हैं। इससे सुंदर स्वभाव वाली दिति को बड़ी प्रसन्नता हुई। दिति ने तब इंद्र को संबोधन करके कहा-‘बेटा! मैं इस इच्छा से इस अत्यंत कठिन व्रत का पालन कर रही थी कि तुम अदिति के पुत्रों को भयभीत करने वाला पुत्र उत्पन्न हो।
मैंने केवल एक ही पुत्र के लिए संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गए? बेटा इंद्र! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो। झूठ न बोलना।’ इंद्र ने कहा- ‘माता! मुझे इस बात का पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्य से व्रत का पालन कर रही हो। इसीलिए अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए स्वर्ग छोड़कर अधर्म की भावना से युक्त होकर तुम्हारी सेवा में लीन हो गया। इसी से तुम्हारे व्रत में त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भ के टुकडे़-टुकड़े कर दिए। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गए। इसके बाद फिर मैंने एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिए, तब भी वे न मरे। यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मुझे विश्वास हो गया कि परमपुरुष भगवान की उपासना का ही यह दिव्य फल है। भगवान जगदीश सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने आप तक का दान कर देते हैं। मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार से मेरी पूज्या हो, मैंने मूर्खतावश बड़ी दुष्टता का काम किया है। तुम मेरे अपराध को क्षमा कर दो।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- ‘परीक्षित! दिति देवराज इंद्र के शुद्ध भाव से संतुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा लेकर देवराज इंद्र ने मरुद्गणों के साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्ग चले गए।’ ‘राजन् यह पंुसवन व्रत व मरुद्गण जन्म बड़ा ही मंगलमय है। जो इस पुंसवन व्रत का पालन करता है, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।’