नवरात्र में करें मां दुर्गा का सरलतम अनुष्ठान दया शंकर मिश्र शक्ति तत्व के द्वारा ही यह संपूण्र् ा ब्रह्मांड संचालित है। सृष्टि, रक्षा तथा संहार ये तीनों क्रियाएं शक्ति द्वारा ही संपन्न होती हैं। इसीलिए देवी को त्रिगुणात्मक कहा गया है।
तंत्र शास्त्र में तीन गुणों की चर्चा होती है- सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण। सत्वगुण प्रकाशमय है। इसमें केवल प्रकाश, ज्ञान और अच्छाई है अर्थात केवल सद्गुण है।
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‘‘क्रिया’’ रजोगुण है तथा ‘‘स्थिति’’ अर्थात एक आकार प्राप्त कर लेना तमोगुण है। इन तीन गुणों की देवियां हैं- महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली। ये तीनों अलग-अलग स्वरूप अंततः एक रूप में समाहित हो जाते हैं और वह रूप है ‘दुर्गा’ जिसकी आराधना हम मातृरूप में करते हैं क्योंकि मातृरूप में कोमलता, संवेदनशीलता, स्नेह, करुणा, प्रेम ये सभी गुण दिखाई देते हैं।
इसीलिए भारतीय संस्कृति में ईश्वर के रूप की प्रथम कल्पना मातृरूप में की गई है जिसमें कोई दूषित भावना और छल-कपट नहीं रहता। रहे हंै केवल प्रेम, कोमलता, स्नेह, संवेदनशीलता और करुणा। शक्ति उपासना भी उतना ही प्राचीन है जितना वेद। यही कारण है कि ऋग्वेद में इंद्र, वरुण, यम, सूर्य, विष्ण् ाु, अग्नि एवं रुद्र आदि देवों से संबद्ध सूक्तों के साथ इंद्राणी, वरुणानी, यमी, उषस् एसं रुद्राणी की भी समान रूप से उपासना की गई है तथा ‘स्वाहा’ को अग्नि की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया है।
वस्तुतः देव हों या देवियां, सभी की स्तुति में शक्ति की आराधना ही उसका मूलाधार है। विश्व का बड़े से बड़े व्यक्तित्व क्यों न हो, शक्ति से रहित होने पर कोई अपने को तद्विहीन नहीं मानता या विष्णु हीन या ब्रह्महीन नहीं कहता। सभी शक्तिहीन कहे जाते हैं।
इसकी व्यापकता इसी से सिद्ध होती है कि केवल एक स्थान में ही नहीं प्रत्युत गांव-गांव में, घर-घर में देवियों का किसी न किसी रूप में स्थान है, किसी न किसी रूप में उनकी पूजा होती है।
वेद हो या तंत्र, ज्ञान हो या भक्ति, निर्गुण हो या सगुण, लोकाचार हो या वेदांत सर्वत्र शक्ति की ही प्रमुखता देखी जाती है। पौराणिक साहित्य में उनका वर्णन कहीं देव-पत्नी में कहीं अप्सरा तो कहीं परावाक्, काली, दुर्गा, श्रद्धा, माया, सीता, सावित्री, अन्नपूर्णा, लक्ष्मी, सरस्वती, पीतांबरा, बगलामुखी, घूमावती, राज-राजेश्वरी, त्रिपुरसंुदरी या भगवती भुवनेश्वरी रूप से मिलता है। अतएव कामार्थी, मोक्षार्थी सभी के लिए भगवती उपासना परमावश्यक है।
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गुण की अपेक्षा गुणत्रय की साम्यावस्था उत्कृष्ट और तद्रूपा माया या प्रकृति ही जिसका स्वरूप है, उस भगवती की उपासना ही परमोत्कृष्ट है। वही ब्रह्मविद्या है, वही जगज्जननी है, उसी से सारा विश्व व्याप्त है। वाराणसी में स्वयं शिव ‘दुर्गा’ का तारक महामंत्र देकर ही मोक्षपद प्रदान करते हैं।
व्यास जी को देवी दुर्गा ने सहस्रदल कमल पर अंकित अपने देवी पुराण का दर्शन कराया था जिसे व्यास जी ने उसी प्रकार देवी पुराण में उदघृत् किया। अतः शक्ति की उपासना के लिए दुर्गा सप्तशती से बड़ा कोई शास्त्र नहीं है जो अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष दायिनी है।
चैत्र मास में नवरात्रि तथा आश्विन मास में नवरात्रि दिव्य शक्ति की उपासना के दो पावन एवं महत्वपूण्र् ा अवसर माने जाते हैं। राम नवमी को श्री राम की पूजा होती है और दुर्गा नवरात्रि में मां दुर्गा की। जहां राम भगवान के अवतार हैं वहीं मां दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं।
देवी पूजा समग्र ब्रह्मांड तथा चराचर जगत के मूल कारण की पूजा है जो सब के लिए कल्याणकारी है। इस पर व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण विश्व का कल्याण निर्भर है। नवरात्रि के समय हम स्वयं को इस सत्य के प्रति पुनः प्रतिबद्ध करते हैं कि ईश्वरेच्छा सदा विजयी होती है।
मां सब की है- अच्छे, बुरे, धनी, गरीब, पापी, धर्मात्मा सब उसकी संतान हैं। मां से प्रेम सर्वोपरि है और यही सबकी रक्षा करता है, अज्ञान का आवरण हटाता है और मुक्ति प्रदान करता है। मां की पूजा या उपासना इस प्रेम की अभिव्यक्ति है। पूजा का विधान तांत्रिक विधान होता है जिसकी संपूण्र् ा विधा प्रार्थना, दीपक. अगरबत्ती, फूल, पूजा का क्रम एवं मंत्र, सबकी एक स्पष्ट व्यवस्था है जिसके द्वारा हम दैवी शक्तियों को जाग्रत करते हैं।
मंत्र का उच्चारण शुद्ध तथा लय सुनिश्चित होने अन्यथा विनाश की स्थिति आ सकती है। शक्ति की उपासना केवल उनकी सुखप्रद शक्तियों को जाग्रत करने के लिए ही की जानी चाहिए। मां की पूजा शीघ्र फलीभूत होती है अतः नियमों का पालन अवश्य होना चाहिए।
श्रद्धा एवं भक्ति से की गई पूजा सर्वश्रेष्ठ होती है। दुर्गा सप्तशती बताती है कि हमारे जीवन में देवी आराधना की प्रासंगिकता, महत्व और प्रयोजन क्या है। इसमें सात सौ श्लोक हैं तथा इसमें मां की आराधना की विधि और उनकी महिमा का गुणगान किया गया है।
दुर्गा जीवन की दुर्गति को दूर करती है अर्थात दुर्गा साक्षात दुर्गतिनाशिनी है जो ‘अर्थ’ और ‘काम’ की दुर्गति को दूर कर ‘धर्म’ और ‘मोक्ष’ की भावना मनुष्य जीवन में स्थापित करती है। जो शक्ति ऐसा करती है उसे दुर्गा शक्ति कहते हैं तथा इसी की आराधना दुर्गा सप्तशती में दी गई है। दुर्गासप्तशती में एक कहानी आती है जिसके अनुसार महिषासुर के आतंक से परेशान होकर देवताओं ने अपने-अपने तेज को समाहित कर अर्थात अपनी-अपनी संकल्प शक्ति को समाहित कर मां दुर्गा का रूप दिया।
दुर्गा का स्वरूप एक विश्व रूप है अर्थात शक्ति का विश्वरूप है जिसे सभी देवताओं ने मिलकर अपनी-अपनी प्रतिभा, सामथ्र्य, बुद्धि और बल से युक्त किया। नवरात्रि पर्व हमें जीवन को समझने का प्रयास करने का संदेश देता है।
इस अवसर पर दुर्गा सप्तशती का विधिवत पाठ किया जाता है जो अपने सामान्य तरीके से काफी समय लेता है तथा आम तौर पर अत्यंत कठिन प्रतीत होता है। दुर्गा सप्तशती के पाठ की आज के जनजीवन में आवश्यकता तथा समयाभाव की जीवनशैली ध्यान में रखते हुए इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि कोई ऐसी विधि हो जिसमें कम से कम समय में संपूण्र् ा पाठ पूरा किया जा सके और पाठ पूरी तरह शुद्ध, संपूर्ण एवं फलदायक हो तो अधिकाधिक संख्या में लोग इस ओर प्रवृत्त होंगे तथा अपने जीवन को मां दुर्गा की कृपा से भर कर सफलता प्राप्त कर सकेंगे।
यहां पर एक स्वानुभूत गुप्त पाठ विधि का वर्णन किया जा रहा है, जो शाबर तंत्र के अनुसार निष्कीलित पाठ विधि है। यह विधि पूर्णतया दोष रहित एवं कम से कम समय में पूर्ण फलदायी है। सप्तशती के प्रथम अध्याय में ध्यान महाकाली का तथा बीज मंत्र महासरस्वती का दिया हुआ है।
यही कीलित है। नवार्ण मंत्र से प्रणव ‘¬’ को हटा कर तंत्र के प्रणव ‘ह्रीं’ को लगा कर दस वर्ण से नौ वर्ण में परिवर्तित किया गया है। शाबर तंत्र आधारित दुर्गा सप्तशती पाठ की निष्कीलित विधि गुरु स्मरण, इष्ट नमन:
1. कीलकम्
2. अर्गला
3. कवचम्
4. ‘ह्रीं क्लीं ऐं चामुंडायै विच्चे’ का एक माला जप (माला-कनकलाक्ष या रुद्राक्ष की होनी चाहिए)
5. द्वितीय अध्याय के श्लोक 9 से 36 तक (गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक से) का पाठ।
6. चतुर्थ अध्याय का पाठ
7. ‘ह्रीं क्लीं ऐं चामुण्डायै विच्चे’ का एक माला जप।
8. प्रथम अध्याय के 72 से 87 तक के श्लोकों का पाठ।
9. ‘ह्रीं क्लीं ऐं चामुंडायै विच्चे’ का एक माला जप।
10. एकादश अध्याय का पाठ
11. ‘ह्रीं क्लीं ऐं चामुण्डायै विच्चे’ का एक माला जप
12. वेदोक्त एवं तांत्रोक्त देवी का एक माला जप।
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