प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष क्या है?
उत्तर: ज्योतिष में भविष्य कथन की कई पद्धतियां हैं जिन्हें भिन्न-भिन्न महर्षियों ने अपने-अपने अनुसंधानोंके आधार पर तैयार किया है। महर्षि जैमिनी ने भी फलकथन की एक ऐसी ही पद्धति विकसित की जिसे जैमिनी ज्योतिष के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष अन्य पद्ध तियों से कैसे भिन्न है?
उत्तर: जैमिनी ज्योतिष में फलक. थन के लिए कारक ग्रह, राशियों की दृष्टि, चर दशा अर्थात राशियों की दशा-अंतर्दशा, कारकांश, पद और उपपद लग्नों का उपयोग किया जाता है जबकि अन्य पद्धतियों में भावों के स्वामी, ग्रहों की दृष्टि, ग्रहों की दशा-अंतर्दशा और गोचर का उपयोग किया जाता है।
प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष में कारक ग्रह कैसे जाने जाते हैं?
उत्तर: राहु और केतु को छोड़कर अन्य सभी सात ग्रहों को उनके अंशों के आधार पर सात कारक बनाए गए हैं जो इस प्रकार हैं- सबसे अधिक अंशों वाला ग्रह आत्मकारक, उससे कम अंशों वाला अमात्यकारक फिर इसी क्रम से आगे भ्रातृकारक मातृकारक, पुत्रकारक, ज्ञातिकारक, दाराकारक बनाए गए हैं।
प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष में राशियों की दृष्टियां कैसे ली जाती है?
उत्तर: जैमिनी सूत्र में राशियांे की दृष्टि उनके स्वभाव पर आधारित है अर्थात् सभी चर राशियां अपनी अगली स्थिर राशि को छोड़कर अन्य सभी स्थिर राशियों को देखती हैं। सभी स्थिर राशियां अपनी पिछली चर राशि को छोड़कर अन्य सभी चर राशियों को देखती है। सभी द्विस्वभाव राशियां परस्पर एक दूसरी को देखती हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार चर राशियों में- मेष राशि सिंह वृश्चिक और कुंभ को। कर्क वृश्चिक, कुंभ और वृष को । तुला कुंभ, वृष और सिंह को तथा मकर वृष, सिंह और वृश्चिक को देखती है। दूसरी तरफ स्थिर राशियां वृष कर्क, तुला और मकर को सिंह तुला, मकर और मेष को वृश्चिक मकर, मेष और कर्क को तथा कुंभ राशि मेष, कर्क और तुला को देखती है। द्विस्वभाव राशियां । मिथुन कन्या, धनु व मीन को, कन्या: धनु, मीन, मिथुन को, धनु कन्या, मीन व मिथुन को, और मीन मिथुन, कन्या और धनु को देखती है।
प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष में चर दशाएं कैसे जानी जाती हैं?
उत्तर: जैमिनी ज्योतिष के अनुसार राशियांे की अपनी दशाएं होती हैं। इन राशियों की दशाओं के क्रम को दो भागों में बांटा गया है:
1. सव्य क्रम अर्थात् सीधा क्रम
2. अपसव्य अर्थात् उलटा क्रम लग्न में मेष, सिंह, कन्या, तुला, कुंभ और मीन राशियां सव्य लग्न वर्ग की और लग्न में वृष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु और मकर राशियां अपसव्य लग्न की राशियां कहलाती हैं।
प्रत्येक लग्न के लिये चर दशा का क्रम इस प्रकार है:
मेष: मेष, वृष, मिथुन...............
मीन वृष: वृष, मेष, मीन ..................
मिथुन मिथुन: मिथुन, वृष ...................
कर्क कर्क: कर्क, मिथुन..........................
सिंह सिंह: सिंह, कन्या ......................
कर्क कन्या: कन्या, तुला .....................
सिंह तुला: तुला, वृश्चिक ..................
कन्या वृश्चिक: वृश्चिक, तुला .................
धनु धनु: धनु, वृश्चिक........................
मकर मकर: मकर, धनु .......................
कुंभ कुंभ: कुंभ मीन ............................
मकर मीन: मीन, मेष .............................
कुंभ प्रश्न: राशियों की दशाओं में अंतर्दशा का क्रम कैसे चलता है?
उत्तर: प्रत्येक राशि की महादशा में अंतर्दशाओं का क्रम भी वैसा ही होता है जैसा महादशा का अर्थात् सव्य राशि दशा के क्रम, सव्य और असव्य राशि दशा के क्रम तथा अपसव्य अंतर्दशाओं के क्रम में और महादशाओं के क्रम में एक विशेष भिन्नता यह है कि प्रत्येक राशि की अपनी महादशा में अपनी अंतर्दशा सबसे अंत में आती है अर्थात् मेष राशि की महादशा में सर्वप्रथम अंतर्दशा वृष राशि की और अंत में मेष राशि की आएगी। इसी प्रकार सव्य अपसव्य प्रत्येक राशि की महादशा में उसकी अपनी अंतर्दशा अंत में आती है।
प्रश्न: चर राशियों की अवधि की गणना कैसे करें?
उत्तर: राशियों की अवधि की गणना के लिए राशि के दो वर्ग बना लें- सव्य और अपसव्य। राशियों की गणना के लिए सव्य राशियां मेष, वृष, मिथुन, तुला, वृश्चिक और धनु राशियां सव्य और कर्क, सिंह, कन्या, मकर, कुंभ और मीन अपसव्य मानी गई हैं। चर राशियों में सबसे पहले लग्न राशि की दशा प्रारंभ होती है अर्थात लग्न राशि की दशा सर्वप्रथम उपरांत सव्य या अपसव्य क्रम में अन्य राशियों की दशा।
दशा अवधि के लिए सर्वप्रथम लग्न राशि की दशा की गणना की जाती है। लग्न राशि यदि सव्य वर्ग की है तो गणना सव्य और अपसव्य है तो अपसव्य होगी अर्थात् लग्न यदि सव्य है तो लग्न से लग्नेश तक सव्य क्रम में गणना कर एक घटा देने से राशि की अवधि मालूम हो जाती है। इसी तरह प्रत्येक राशि के स्वामी तक सव्य और अपसव्य गणना कर 1 वर्ष घटा देने से राशि की अवधि मालूम होती है।
उदाहरण के लिए मान लें कि मिथुन लग्न की कुंडली है और मिथुन स्वामी बुध पंचम भाव में स्थित है। मिथुन सव्य वर्ग राशि है। तो मिथुन से पंचम तथा सव्य क्रम से गणना करने से पांच आया। इसमें 1 घटा देने पर चार शेष रहा अर्थात् मिथुन राशि की अवधि 4 वर्ष हुई।
इसके बाद दशा वृष राशि की होगी। इसी तरह शुक्र जहां स्थित है वहां तक गिनने और उसमें से एक घटा देने पर जो शेष रहे वह अवधि वृष राशि की होगी। इसी प्रकार सभी राशियों की दशाओं को निकालने और लग्न से द्वादश तक सभी राशियों की दशा अवधि को क्रम से जन्म तारीख में जोड़ देने पर सभी राशियों की दशाओं के समाप्ति काल मालूम हो जाएंगे।
प्रश्न: चर दशाओं में अंतर्दशाओं की गणना कैसे करें?
उत्तर: अंतर्दशा की अवधि की अवधि गणना महादशा की अवधि के अनुपात में ही करनी होगी। महादशा की अवधि अधिक से अधिक 12 वर्ष और कम से कम 1 वर्ष होती है। सभी दशाओं की अवधि को निकाल लें। जिस राशि को जितने वर्ष की अवधि प्राप्त है उस राशि की अंतर्दशा उतने ही मास की मानी जाएगी।
अर्थात् यदि राशि ग्रह दशा की अवधि 12 वर्ष है तो उसकी अंतर्दशा अवधि 12 मास मानी जाएगी और प्रत्येक राशि की अंतर्दशा 12 मास ही रहेगी। अर्थात प्रत्येक अंतर्दशा की अवधि बराबर रहेगी। इसी तरह प्रत्यंतर दशा की अवधि 1 मास होगी। अर्थात प्रत्येक राशि की प्रत्यंतर दशा बराबर और एक मास की होगी। इसी तरह यदि राशि की महादशा अवधि 1 वर्ष है तो प्रत्येक राशि की अंतर्दशा 1 मास होगी और प्रत्येक प्रत्यंतर्दशा दो दिन बारह घंटे की रहेगी।
प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष में कारकांश लग्न कुंडली क्या होती है?
उत्तर: आत्मकारक ग्रह नवांश कुं. डली में जिस राशि में स्थित होता है वह राशि कारकांश कहलाती है। इस राशि को लग्न मान कर सभी ग्रहों की स्थित जन्म कुंडली की तरह अर्थात राशियों में स्थित करने से जो कुंडली बनती है उसे कारकांश लग्न कुंडली कहते हैं जिसका प्रयोग विभिन्न महत्वपूर्ण भविष्यवाणियों के लिए किया जाता है।
प्रश्न: पद या आरूढ़ लग्न क्या होता है?
उत्तर: लग्नेश लग्न से जितने भावों के आगे स्थित हो, उस भाव से उतने ही भाव आगे गिनने पर जो भाव आए उसे आरूढ़ या पद लग्न कहते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि किसी जातक का लग्नेश पंचम भाव में है तो पंचम से पांचवां अर्थात नवम भाव उस जातक का पद लग्न कहलाता है। यदि नवम भाव में स्थित राशि को लग्न मान कर जन्म कालीन ग्रहों को रखा जाए तो उस कुंडली को आरूढ़ या पद लग्न कुंडली कहते हैं। पद लग्न का भी उपयोग महत्वपूर्ण भविष्यवाणियों के लिए किया जाता है।
प्रश्न: उप-पद लग्न कैसे निकालते हैं?
उत्तर: जन्मकुंडली में द्वादशेश द्व ादश भाव से जितने भावों के आगे स्थित होते हंै उस भाव से उतने ही भाव आगे गिनने पर जो भाव आए उसे उप-पद कहते हैं। इस भाव को लग्न मान कर बनने वाली कुंडली को उप-पद लग्न कुंडली कहते हैं। इसका उपयोग भी विशेष भविष्यवाणियों के लिए किया जाता है।
प्रश्न: चर दशा गणना में और किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर: चर दशा गणना में वृश्चिक और कुंभ राशियों की अवधि निकालने में कुछ विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है क्योंकि इन दोनों राशियों के दो-दो स्वामी है अर्थात् वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल और केतु एवं कुंभ राशि के स्वामी शनि और राहु। इन राशियों की गणना करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें। मान लें वृश्चिक राशि की दशा की गणना करनी है।
यदि मंगल स्वगृही हो और केतु किसी अन्य राशि में स्थित हो तो मंगल को छोड़ दें और केतु जिस राशि में स्थित हो उस राशि तक गणना करें। यदि केतु स्वगृही हो और मंगल अन्य किसी राशि में हो तो केतु को छोड़कर मंगल जिस राशि में स्थित हो उस राशि तक गणना करें। यदि मंगल और केतु दोनों वृश्चिक राशि में हों तो वृश्चिक राशि की दशा पूरे बारह वर्ष की होगी। यदि मंगल और केतु दोनों किसी अन्य राशि में एक साथ युक्त हों तो दोनों जिस राशि में स्थित हों उस राशि तक गणना करें। कुंभ राशि की गणना मंे भी वृश्चिक राशि की गणना के नियम लगाएं।
प्रश्न: जैमिनी ज्योतिष से भविष्य कथन के क्या नियम है?
उत्तर: सर्वप्रथम जन्मकुंडली का निर्माण कर सभी ग्रहों के अंशों को लगा लें और राहु-केतु को छोड़ कर सभी सात कारकों को क्रम से जान लें। इसके बाद कारकांश लग्न, पद या आरूढ़ लग्न और उप-पद लग्न कुंडली बना लें। फिर चर दशाओं की गणना कर सभी राशियों की महादशा अवधि, अंतर्दशा अवधि, और प्रत्यंतर दशा अवधि निकाल कर दशाओं के समाप्ति और प्रारंभिक काल निकाल कर लें।
यह भी देखें कि जन्म समय जो दशा चल रही है वह जन्म लग्न से किसी भाव से संबंधित है और वर्तमान दशा किस भाव से संबंध रखती है। जिस राशि की दशा चल रही होती है उस राशि से सभी कारक जिस-जिस स्थान पर होते हैं दशा उन्हीं भावों से संबंधित फल देती है। फलित करते समय अंतर्दशा और प्रत्यंतर दशा से भी कारकों की स्थिति को जानना चाहिए।
कारक ग्रहों पर भिन्न-भिन्न अन्य ग्रहों की दृष्टि पड़ रही है या नहीं। यह भी जान लेना चाहिए। महादशा राशि एवं अंतर्दशा राशि की परस्पर दृष्टि संबंध और उनके स्वामी किस के कारक हैं और उनका आपसी संबंध क्या है भविष्य कथन के लिए यह जानना भी आवश्यक है। नवांश कुंडली में भी उपर्युक्त सभी स्थितियों को जानना आवश्यक है। भविष्य कथन में चर राशियों के अतिरिक्त पराशरी विंशोत्तरी दशा द्वारा भी फल कथन की पुष्टि करनी चाहिए भले ही तकनीकी भिन्न-भिन्न हों।
प्रश्न 15: यदि जातक के व्यवसाय के विषय को जानना हो तो कैसे जानें?
उत्तर: व्यवसाय के विषय को जानने के लिए अमात्यकारक का विशेष महत्व है। कुंडली में देखें कि अमात्यकारक लग्न से किस स्थिति में बैठा है अर्थात लग्न से किस भाव में स्थित है। अमात्यकारक पर किस-किस ग्रह की दृष्टि पड़ रही है। और आत्मकारक के साथ किस ग्रह की युति है अर्थात् कौन-कौन ग्रह उस के साथ बैठे हैं यह देखना आवष्यक होता है। शोध और प्रयोगों से यह देखा गया है कि यदि अमात्यकारक लग्न से केंद्र, त्रिकोण या ग्यारहवें भाव में स्थित हो तो जातक व्यवसाय में बिना बाधा आगे बढ़ता है।
अमात्यकारक पर जिस तरह के ग्रहों की दृष्टि होगी जातक के जीवन में उसी के अनुरूप उतार चढ़ाव आएंगे अर्थात अशुभ ग्रह की दृष्टि रुकावट और शुभ ग्रह की दृष्टि प्रगति की ओर ले जाएगी। अमात्यकारक से युत ग्रहों से भी जातक के व्यवसाय के विषय में जानकारी मिलती है।
अमात्यकारक यदि कोई अशुभ ग्रह हो, अशुभ स्थान में हो और उस पर अशुभ दृष्टि हो तो जातक को व्यवसाय में कठिनाइयां आती रहेंगी और अनुकूल स्थितियों में ही लाभ होगा। अमात्यकारक यदि शुभ ग्रह हो, शुभ स्थान में हो, शुभ दृष्टि में हो और शुभ ग्रहों से युक्त हो, तो जातक व्यवसाय में प्रगति करता है।
अमात्यकारक का षष्ठेश से संबंध हो पर अष्टमेश से संबंध न हो तो यह स्थिति दर्शाती है कि ऐसा जातक जीवन में अनुकूल दशा और परिस्थिति में संघर्ष करने की योग्यता रखता है।
प्रश्न: व्यवसाय में विशेष सफलता कब प्राप्त होगी यह कैसे जानें?
उत्तर: चर दशा जिस राशि की चल रही हो उससे यदि अमात्यकारक केंद्र त्रिकोण या ग्यारहवें में हो, तो उस दशा में जातक को विशेष लाभ होगा और प्रगति होगी। मान लें चंद्र अमात्यकारक है और चर दशा कन्या की चल रही है और चंद्र कन्या से ग्यारहवें भाव में शुभ ग्रहों से दृष्ट है। तो यह स्थिति यह दर्शाती है कि जातक को कन्या राशि की दशा में व्यवसाय में विशेष लाभ होगा।
प्रश्न: जातक के विवाह के विषय में जानने के लिए जैमिनी चर दशा कैसे देखें?
उत्तर: विवाह के विषय को जानने के लिए दाराकारक विशेष महत्व रखता है। दाराकारक जिस नवांश राशि में हो, वह राशि जिस राशि पर दृष्टि रखती हो उसकी दशा में दारा पद राशि की अंतर्दशा में विवाह होने की संभावना होती है। इसके अतिरिक्त दाराकारक जिस राशि में स्थित हो उस राशि की दशा या दारा पद से सप्तम भाव की दशा और नवांश कुंडली की सप्तम भाव राशि की अंतर्दशा में विवाह होता है।
प्रश्न: क्या जैमिनी ज्योतिष में योग का भी महत्व है?
उत्तर: जैमिनी ज्योतिष में भी योगों का प्रयोग होता है। वे इस प्रकार हंै।
1. आत्मकारक और अमात्यकारक की युति
2. आत्मकारक और पुत्रकारक
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