श्रीहनुमान जी की जयंती तिथि के विषय में दो विचारधााराएं विशेष रूप से प्रचलित हैं- चैत्र शुक्ल पूर्णमासी और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी। हनुमज्जयंती के पावन पर्व पर अंजनी नंदन श्री हनुमान जी की आराधना श्रद्धा, प्रेम और भक्तिपूर्वक करनी चाहिए।
व्रत विधि: व्रती को चाहिए कि वह व्रत की पूर्व रात्रि को ब्रह्मचर्य की अवस्था में पृथ्वी पर शयन करे तथा हनुमान जी की कृपा हेतु प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में जागकर श्री राम, जानकी तथा हनुमान जी का स्मरण कर स्नानादि नित्यक्रिया से निवृŸा हो। निष्काम या सकाम, जो भी भावना मन में हो, उसी के अनुरूप संकल्प कर हनुमान जी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कर सविधि गणेश गौरी आदि देवताओं के पूजनोपरांत सविधि ‘‘¬ हनुमते नमः’’ मंत्र से षोडशोपचार पूजन करें।
श्री हनुमान जी के विग्रह का मंत्रोच्चार करते हुए सिंदूर से शृंगार करना चाहिए क्योंकि हनुमान जी को सिंदूर अति प्रिय है। नैवेद्य में विशेष रूप से गुड़, भीगे या भुने चने तथा देशी घी में निर्मित बेसन के लड्डू चढ़ाएं। इस दिन वाल्मीकीय रामायण अथवा तुलसीकृत श्री रामचरित मानस के सुंदरकांड अथवा श्री हनुमान चालीसा के अखंड 108 पाठ का आयोजन करना चाहिए।
साथ ही हनुमान जी के मंत्रों का जप, लीला चरित्रों का गुणगान, भजन एवं संकीर्तन करना चाहिए। पूजनोपरांत ब्राह्मण भोजन कराकर स्वयं प्रसाद ग्रहण करें। हनुमान जी की भक्ति करने वाले को बल, बुद्धि और विद्या सहज में ही प्राप्त हो जाती है। भूत-पिशाचादि भक्त के समीप नहीं आते।
हनुमान जी जीवन के सभी क्लश्े ाा ंे का े दरू कर दते े ह।ंै जिस प्रकार भगवान श्री राम जी के कार्यों को पूर्ण किया उसी प्रकार भक्त के कार्यों को भी वायुनंदन पूर्ण करते हैं। हनुमान जी की महिमा का गुणगान वाणी के द्वारा किया ही नहीं जा सकता। इनकी महिमा तो अपरंपार है।
इसी महिमा के कारण सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग में निरंतर श्री हनुमान जी की आराधना होती रही है और होती रहेगी। हनुमान जी एकादश रुद्र के रूप में संपूर्ण लोकों में वंदनीय हैं। इनके विषय में एक सुंदर कथा इस प्रकार है।
श्री रामावतार के समय ब्रह्माजी ने देवताओं को वानरों और भालुओं के रूप में धरा पर प्रकट होकर श्री राम जी की सेवा करने का आदेश दिया था। इस आज्ञा का पालन कर उस समय सभी देवता अपने-अपने अंशों से वानर और भालुओं के रूप में उत्पन्न हुए। इनमें वायु के अंश से स्वयं रुद्रावतार महावीर हनुमान जी ने जन्म लिया था।
इनके पिता वानरराज केसरी और माता अंजनीदेवी थीं। जन्म के समय नन्हे शिशु को क्षुधापीड़ित देखकर माता अंजना वन से कंद, मूल, फल आदि लेने चली गईं, उधर सूर्योदय के अरुण बिम्ब को फल समझकर बालक हनुमान ने छलांग लगाई और पवन वेग से सूर्यमंडल के पास जा पहंुचे। उसी समय राहु भी सूर्य को ग्रसने के लिए सूर्य के समीप पहंुचा था। हनुमान जी ने फलप्राप्ति में अवरोध समझकर उसे धक्का दिया तो वह भयभीत होकर इंद्र के पास जा पहंुचा।
देवराज इंद्र ने सृष्टि की व्यवस्था में विघ्न समझकर हनुमान पर वज्र का आघात किया, जिससे हनुमान जी की बायीं ओर की ठुड्डी (हनु) टूट गई। अपने प्रिय पुत्र पर वज्र के प्रहार से वायुदेव अत्यंत क्षुब्ध हो गए और उन्होंने अपना संचार बंद कर दिया। वायु ही प्राण का आधार है, वायु के संचरण के अभाव में समस्त प्रजा व्याकुल हो उठी।
त्राहि-त्राहि व चीत्कार मच गई। ऐसी भयानक स्थिति में समस्त प्रजा को व्याकुल देख प्रजापति पितामह ब्रह्मा सभी देवताओं को लेकर वहां गए, जहां वायुदेव अपने मूच्र्छित शिशु हनुमान को लेकर क्षुब्धावस्था में बैठे थे। ब्रह्माजी ने अपने हाथ के स्पर्श से शिशु हनुमान को सचेत कर दिया। उसी समय वायुदेव व शिशु हनुमान की प्रसन्नता हेतु सभी देवताओं ने शिशु हनुमान को अपने अस्त्र-शस्त्रों से अवध्य कर दिया।
पितामह ने वरदान देते हुए कहा- ‘मारुत! तुम्हारा यह नन्हा पुत्र शत्रुओं के लिए भयंकर होगा। युद्ध क्षेत्र में इसे कोई पराजित नहीं कर सकेगा। रावण के साथ युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाकर यह श्री राम जी की प्रसन्नता बढ़ाएगा।’
जो कोई भी श्रद्धाभाव से हनुमान जी की सेवा आराधना करता है, उसकी मनोकामनाएं निश्चय ही पूर्ण होती हैं। उसके चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सिद्ध हो जाते हैं। हनुमान जी की कृपा प्राप्ति के लिए निम्न श्लोकों का पाठ करना चाहिए।
जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबलः।
राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः।।
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्ट कर्मणः।
हनूमा´्शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः।।
न रावणसहस्रं मे युद्धे प्रतिबलं भवेत्।
शिलाभिश्च प्रहरतः पादपैश्च सहस्रशः।।
अर्दयित्वा पुरीं लंकामभिवाद्य च मैथिलीम्।
समृद्धार्थो गमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम्।। (वा.रा. 5/42/33-36)
हनुमान वाहक के पाठ से सभी पीड़ाएं दूर हो जाती हैं। हनुमान जी की भक्ति स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध सभी समान रूप से कर सकते हैं। भक्त की भक्तवत्सलता, श्रद्धा भाव, संबंध, समर्पण ही श्री हनुमान जी की कृपा का मूल का मंत्र है।
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