श्री शुकदेव जी ने महाराज परीक्षित को कथा श्रवण कराते हुए कहा - राजन् ! श्री ब्रह्माजी ने अनेक प्रकार की सृष्टि की, परंतु सृष्टि का विस्तार न हो सका। श्री ब्रह्माजी दैव के विषय में विचार करने लगे, उसी समय अनेक शरीर के दो भाग हो गए और दोनों विभागों से एक स्त्री-पुरूष का जोड़ा प्रकट हुआ। ये दोनों सार्वभौम सम्राट स्वायम्भुव मनु व महारानी शतरूपा के नाम से विख्यात हुए। तब बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर उन्होंने श्री ब्रह्माजी से कहा भगवन! आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिए आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो सके। श्री ब्रह्माजी ने कहा पृथ्वी पते। तुम दोनों का कल्याण हो।
तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती संतति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो। मनुजी ने कहा- पापनाशक पिताजी ! आप मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिए स्थान बतलाइये। संपूर्ण जीवों को धारण करने वाली पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। श्री ब्रह्माजी विचार करने लगे कि जिसके संकल्प मात्र से मेरा जन्म हुआ है वे सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान् श्री हरि ही मेरा यह कार्य पूर्ण करें। श्री ब्रह्माजी अभी यह चिंतन कर ही रहे थे कि अकस्मात् उनके नासाछिद्र से अंगूठे के बराबर आकार का वराह-शिशु निकला और देखते ही देखते क्षण भर में हाथी के बराबर हो गया तथा आकाश में खड़ा हुआ वराह स्वरूप मुनिजन, सनकादि मनु महाराज सभी को आश्चर्यचकित व आनंदित करने लगा।
सभी उनकी स्तुति करने लगे और भगवान् यज्ञपुरूष पर्वताकार होकर घोर गर्जना करने लगे। फिर देवताओं के हित के लिए गजराज की सी लीला करते हुए जल में प्रविष्ट हो गए। तब भगवान यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुंचे जहां समस्त जीवों की आश्रयश्रूता पृथ्वी स्थित थी। भगवान श्री हरि जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आने लगे। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। इधर लीलाबिहारी की लीला और उधर स्वर्ण की भारी गदा हाथों में लिए वह दिति का पीली आंखों वाला काले पर्वत के समान व महान् बलशाली छोटा पुत्र हिरण्याक्ष देवर्षि नारद से पूछ रहा था- ‘‘आपको विष्णु का कुछ पता है’’? मैं उससे युद्ध करने के लिए लालायित हूं।
जिसकी हुंकार मात्र से ही देवता स्वर्गलोक त्यागकर अन्यत्र छिप गए थे, वरुणदेव भी अपने क्रोध पर नियंत्रण कर यही कह सके-भाई! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है। भगवान् पुराण पुरूष के सिवा हमें और कोई ऐसा दिखता भी नहीं, जो तुम जैसे रणकुशल महान वीर योद्धा को युद्ध में संतुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हीं के पास जाओ और मृत्यु को वरण करो। देवर्षि नारदजी ने कहा- भगवान विष्णु अभी-अभी श्वेत वाराह रूप धारण करके इसी समुद्र में सीधे पृथ्वी को रसातल से लेने के लिए जा रहे हैं। तुम शीघ्रता करो तो पकड़ लोगे। देवर्षि ने दैत्य को देखा। भगवान् श्रीहरि के पार्षद जय और विजय ने सनकादि कुमारों को सातवीं ड्यौढ़ी पर दिगम्बर वृत्ति में देखकर उनकी हंसी उड़ायी और बेंत अड़ाकर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया।
ऋषियों ने यह कहते हुए कि तुम्हारी बुद्धि अत्यंत मंद है,अतः तुम अपनी मंद बुद्धि के दोष से इस वैकुंठ लोक से निकलकर उन पापपूरित योनियों में जाओ, जहां काम, क्रोध एवं लोभ प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं। वैकुंठनिवास श्रीहरि ने समदर्शी सनकादि ऋषियों के वचनों का अनुमोदन करते हुए कहा - ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होंने आपका अपराध किया है। आपने इन्हें दंड देकर उचित ही किया है। अब ये दिति के गर्भ से महर्षि कश्यप के पुत्र रूप में प्रगट हुए हैं। उनमें एक तो यही है। देवर्षि नारदजी को दया आयी। भगवान् के हाथ से मरकर यह दूसरा जन्म ले। तीन ही जन्म में तो फिर अपने रूप को पा लेगा। इन जन्मों से जितनी जल्दी छूटे, उतना ही अच्छा।
बाबा ने हिरण्याक्ष के उद्धार के लिए ही उसे सूकर रूपधारी भगवान् नारायण के पास भेज दिया। श्री हरि नारायण वाराह रूप से पृथ्वी को दाढ़ों की नोक पर रखे हुए रसातल से ऊपर की ओर आ रहे थे, तभी ‘अरे सूकररूप धारी सुराधम।’ चिल्लाते और भगवान की ओर तेजी से दौड़ते हुए हिरण्याक्ष ने कहा - मेरी शक्ति के सम्मुख तुम्हारी योगमाया का प्रभाव नहीं चल सकता। मेरे देखते तू पृथ्वी को लेकर नहीं भाग सकता। निर्लज्ज कहीं का।’ श्री भगवान् ने दुर्जय दैत्य के बाग्बाणों की चिंता न कर भयभीत पृथ्वी को उचित स्थान पर स्थापित कर और उसमें अपनी आधार शक्ति का संचार किया।
उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही भगवान पर देवगण पुष्प वृष्टि और ब्रह्माजी उनकी स्तुति करने लगे। भगवान वाराह ने कहा दैत्यराज ! मैं तो तेरे सामने कुछ भी नहीं। अब तू अपने मन की कर ले। वीरवर हिरण्याक्ष एवं भगवान् वाराह में भयानक संग्राम हुआ। हिरण्याक्ष और माया से वाराहरूप धारण करने वाले भगवान् विराट् विराटेश्वर का युद्ध देखने के लिए मुनियों सहित ब्रह्माजी वहां आ गए। उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की, ‘प्रभो ! शीघ्र इसका वध कर डालिए।’ विधाता के भोलेपन पर श्री भगवान् ने मुस्कुराकर हिरण्याक्ष की कनपटी पर एक तमाचा मारा और उपेक्षा से मारे गए तमाचे की चोट से ही हिरण्याक्ष के नेत्र बाहर निकल आए। वह कटे वृक्ष की तरह धाराशायी हो गया। उसके प्राण निकल गए।
गोलोकधाम गमन हुआ। ब्रह्मादि देवताओं ने हिरण्याक्ष के भाग्य की सराहना की और कहा- ‘‘इसने भगवान् के कमल सदृश मुखारबिंद के दर्शन करते हुए जो गति योगेन्द्र मुनीन्द्र महामहिम परमेश्वर का ध्यान करके प्राप्त करते हैं, इस दैत्यराज ने प्राप्त की है। धन्य है यह।’’ सुर-समुदाय महावराह प्रभु की स्तुति व पुष्प वृष्टि करने लगा- विहाय रूपं वाराहं तीर्थ कोकेति विश्रुते। वैष्णवानां हितार्थय क्षेत्रं तद्गुप्तमुत्तमम्।।
पृथ्वी के उसी पुनः प्रतिष्ठा काल से इस श्वेत वाराहकाल की सृष्टि प्रारंभ हुई है। उत्तर कुरूवर्ष में भगवान् यज्ञ पुरुष वाराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं। साक्षात पृथ्वी देवी वहां के निवासियों सहित उनकी अत्यंत श्रद्धा भक्ति से उपासना व स्तवन करती रहती हंै। उन ओंकार स्वरूप शुक्ल कर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरूषोत्तम भगवान् वाराह को बार-बार नमस्कार है।