महालक्ष्मी को समस्त देवियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। श्रीचक्रनगरसाम्राज्ञी पराम्बा षोडशी श्रीविद्याभगवती राजराजेश्वरी श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरी को महालक्ष्मी का सर्वश्रेष्ठ रूप माना जाता है। दीपावली के शुभ मुहूर्त में इनकी उपासना से आर्थिक दृष्टि व जीवन के अन्य क्षेत्रों में सफलता हेतु इनका शुभाशीष प्राप्त करना श्रेयस्कर होगा।
श्री विद्या का स्वरूप
गिरामाहुर्देवी द्रुहिणगृहिणीमागमविदो, हरेः पत्नीं पद्मां हरसहचरीमद्रितनयाम्। तुरीया कापि त्वं दुरधिगमनिःसीममहिमा, महामाया विश्वं भ्रमयसि परब्रह्ममहिषी।।
भगवत्पाद आचार्य शंकर कहते हैं कि सरस्वती ब्रह्मा की गृहिणी हैं, विष्णु की पत्नी पद्मा, शिव की सहचरी पार्वती हैं। किंतु आप तो कोई अनिवर्चनीय तुरीया हैं। समस्त विश्व को विवर्त करने वाली दुरधिगम निस्सीम-महिमा महामाया परब्रह्म की पट्टमहिषी पटरानी हैं।
एषाऽऽत्मशक्तिः । एषाविश्वमोहिनी । पाशांकुश धनुर्बाणधरा । एषाश्रीमहाविद्या ।
ये ही परमात्मा की शक्ति हैं। ये ही विश्वमोहिनी हंै। ये पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये श्रीमहाविद्या हैं। योगीजन भगवती त्रिपुरसुंदरी को कुण्डलिनी के रूप में देखते हैं भगवान शंकराचार्य ने कहा है-
महींमूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतं आकाशमुपरी। मनोऽपि भरूमध्ये सकलमपि भित्वा कुलपथम सहस्त्रारे पदमे सह रहसि पत्या विहरसे ।।
हे भगवति! आप मूलाधार में पृथ्वीतत्त्व को, मणिपूर में जलतत्त्व को, स्वाधिष्ठान में अग्नितत्त्व को, हृदय में स्थित अनाहत में मरुत्तत्त्व को, ऊपर के विशुद्धिचक्र में आकाश तत्त्व को तथा भचक्र (आज्ञाचक्र) में मनस्तत्त्व को इस प्रकार सारे चक्रों का भेदन कर सुषुम्ना मार्ग को भी छोड़कर सहस्त्रारपद्म में सर्वथा एकान्त में अपने पति सदाशिव के साथ विहार करती हो।
श्रीविद्या का मूल-मंत्र
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् में श्रीविद्या के गोपनीय मंत्र को निम्नांकित श्लोक में अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त किया गया है -
कामो योनिः कमला वज्रपाणि र्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूश्च्यैशा विश्वमातादिविद्योम।।
काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि = इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं)। ह, स - वर्ण, मातरिश्वा = वायु (क), अभ्र (इ), इन्द्र (ल), पुनःगुहा (ह्रीं)। स, क, ल - वर्ण और माया (ह्रीं), यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और यह ब्रह्म रूपणी है। यह मंत्र सब मंत्रों का मुकुटमणि है और मंत्र शास्त्र में ‘पंचदशीकादि श्री विद्या के नाम से प्रसिद्ध है।
।। ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं ।।
इसी मंत्र का षोडषी स्वरूप निम्न है -
।। ऊँ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ऊँ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।।
तंत्रों में महाषोडशी (श्रीविद्या) के मंत्र का एकबार भी उच्चारण महाफलप्रद लिखा है। लोक में इस विद्या के सामान्य ज्ञान वाले कुछ साधक तो सुलभ हैं पर विशेष ज्ञाता अत्यंत दुर्लभ हैं। कारण वह अत्यन्त रहस्यमयी गुप्त विद्या है और शास्त्रों ने इसे सर्वथा गुप्त रखने का निर्देश किया है।
ब्रह्माण्ड पुराण में लिखा है -
राज्यं देयं शिरो देयं न देया षोडशाक्षरी।
राज्य दिया जा सकता है, सिर भी समर्पित किया जा सकता है परन्तु श्रीविद्या का षोडशाक्षरी मंत्र कभी नहीं दिया जा सकता। तब प्रश्न होगा कि फिर यह संसार को कैसे प्राप्त हुआ! तो नित्यषोडशिकार्णव कहता है -
कर्णात् कर्णोपदेशेन सम्प्राप्तमवनीतले।
यह विद्या कर्णपरम्परा से अर्थात् गुरु परम्परा से भूतल पर आयी।
श्रीविद्या की उपासना
इन भगवती की उपासना श्रीचक्र (श्रीयंत्र) पर की जाती है। कहा जाता है- ‘श्रीचक्रम् शिवयोर्वपुः’। यह चक्र शिवाशिव दोनों का शरीर है। सुविख्यात श्रीयंत्र में समग्र ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति तथा विकास दिखलाए गये हैं और साथ ही साथ यह यंत्र मानव-शरीर का भी द्योतक है। इस श्रीयंत्र के क्रमों तथा महत्व को लेकर अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं। श्रीयंत्र में नौ चक्र होते हैं जिन्हें नव आवरणों के नाम से जाना जाता है। इस श्रीयंत्र की नव आवरणमयी पूजा सर्वश्रेष्ठ पूजा मानी जाती है। इस पूजा पद्धति का संगोपांग विवेचन सुभगोदय स्तुति, सौन्दर्यलहरी तथा ललितात्रिशति आदि ग्रन्थों में मिलता है।
श्रीविद्या साधना का क्रम इस प्रकार है:
- सर्वप्रथम भूत शुद्धि व प्राणायाम करें।
- कुण्डलिनी स्तुति व गुरु प्रदत्त अजपाजप विधि संपन्न करें।
- गायत्री, गणेश, बटुकभैरव, कुलदेवता, कुलदेवी, मातंगी, वार्ताली, बालात्रिपुरसुंदरी आदि का स्मरण करें।
- संकल्प करके देहरक्षा के मंत्रों का उच्चारण करें।
- श्रीयंत्र की प्राणप्रतिष्ठा करके, उपस्थान सहस्त्राक्षरी व प्रस्तार सहस्त्राक्षरी का पाठ करें।
- विभिन्न न्यास, पात्रासाधन, विशेषाघ्र्य, श्रीचक्रान्तर्याग, आवाहन, षोडशोपचार पूजन व चतुरायतन पूजा करें।
- अब नवआवरणमयी पूजा संपन्न करें। इसे महापूजा कहा जाता है जिसमें मुद्राओं का प्रयोग आवश्यक रूप से होता है। श्रीयंत्र के नव आवरण नवचक्र कहलाते हैं। त्रैलोक्यमोहन, सर्वाशापरिपूरक, सर्वसंक्षोभण, सर्वसौभाग्यदायक, सर्वार्थसाधक, सर्वरक्षाकर, सर्वरोगहर, सर्वसिद्धिप्रद और सर्वानंदमय। इनकी अधिष्ठात्री नवचक्रेश्वरी है। श्रीचक्र की आवरणपूजा से पूर्व लयांग पूजा, षडंगार्चन, नित्यादेवीपूजन और गुरुमंडलार्चन होता है। बाद में नवावरणमयी पूजा होती है। नवावरण के पश्चात पंचलक्ष्मी, पंचकोशाम्बा, पंचकल्पलता, पंचकामदुघा और पंचरत्नाम्बा का पूजन होता है। बाद में षडदर्शन विद्या षडाधार पूजा एवं आम्नाय समष्टि पूजा होती है।
- उपरोक्त आवरणमयी पूजा के बाद गुरु, परमगुरु व परमेष्ठी गुरु का पूजन करके श्रीविद्या के मंत्र का जप करें
- भावनोपनिषद्, ललितासहस्त्र्रनाम व ललितात्रिशति का पाठ।
- तत्पश्चात् त्रैलोक्यमोहन कवच का पाठ करें।
- पूजा का समापन श्रीसूक्त, अरूणोपनिषद व सौंदर्यलहरी के पाठ से करें।
श्रीविद्या के अधिकारी
श्रीचक्रनगरसाम्राज्ञी पराम्बा षोडषी श्रीविद्या भगवती राजराजेश्वरी श्रीललितामहात्रिपुरसुन्दरी की साधना के सभी अधिकारी हैं। चारों वर्ण, चारों आश्रम, ज्ञानी-अज्ञानी, शुद्धचित्त और अशुद्धचित्त, यजनशील और अयजनशील (शुद्रादि) भी इस साधना के अधिकारी हैं। इस श्रीविद्या की उपासना करने वाला स्वर्ग की अपेक्षा ही नहीं रखता, क्योंकि इस उपासना से इसी शरीर में उसे स्वर्ग से भी बढ़कर ब्रह्मानंद रस का आस्वाद होने लगता है। इस साधना में गुरु दीक्षा का होना परमावश्यक है।
आदि गुरु शंकराचार्य ने श्रीयंत्र की अधिष्ठात्री देवी श्रीविद्या की विधिवत् उपासना के लिए चार शांकर पीठों में अनवरत श्रीविद्या उपासना की व्यवस्था की जो आज भी चल रही है। इन चार पीठों में जगद्गुरु शंकराचार्य की गद्दी पर आसीन गुरु से श्रीविद्या की दीक्षा प्राप्त की जा सकती है। जिनके पास दीक्षा नहीं है वे सौन्दर्यलहरी, ललितासहस्त्रनाम, त्रिपुरसुन्दरी अष्टकम्, श्रीसूक्त, अरुणोपनिषद्, भावनोपनिषद्, षोडशोपचार मानसपूजा आदि स्तोत्रों में से किसी एक का नित्यप्रति पारायण करके अथवा इनका नाम जपकर भी इनका अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं।
दीपावली पर विशेष
आप रत्न, स्फटिक या स्वर्णयुक्त श्री यंत्र घर में स्थापित करें। इसे पंचामृत व गंगाजल से शुद्ध कर रोली से पूजन करें। श्री सूक्त व लक्ष्मी सूक्त का पाठ करें। स्फटिक माला पर श्रीविद्या दीक्षा न होने की स्थिति पर निम्न मंत्र का जप करें।
ऊँ श्री श्री ललितामहात्रिपुरसुन्दर्यै श्री महालक्ष्म्यै नमः।। या ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः।।
दीक्षित होने पर आप उपरोक्त षोडशी महामंत्र का जप भी कर सकते हैं। इस प्रकार आप श्रीविद्या साधना कर अपने जीवन को धन-धान्य एवं ऐश्वर्य सम्पन्न कर सकते हैं।