जन्माष्टमी के दिन, श्री कृष्ण जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में, मंदिरों को नव वधू (दुल्हन) की भांति सजाया जाता है। भगवान के विग्रहों को अद्वितीय शृंगार से पूर्ण किया जाता है। भगवान के विभिन्न लीला चरित्रों की अलौकिक छटाओं से युक्त विशेष झांकियां भी मंदिरों में, दर्शनार्थियों के दर्शनार्थ सजायी जाती हैं। भगवान श्री कृष्ण के आगमन पर सुंदर-सुंदर मरकत मणियों से खचित स्वर्ण, रजत, चंदन और अन्यान्य प्रकार के पालने विभिन्न प्रकार के पत्र-पुष्पादि (कमल-चम ेली-व ेला-कद ंब-ग ुलाब गेंदा) से सुसज्जित किये जाते हैं, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के बाल रूप को भक्तजन, रेशमी डोरी को खींच कर, झुलाते हुए, अपने मानव जीवन को कृतार्थ कर, पापों से मुक्त हो जाते हैं। मंदिरों और पालनों के चहुं ओर एवं मार्गों पर बिजली से चलित विभिन्न प्रकार की लड़ियों, बल्बों और आधुनिक साज-सज्जा से युक्त गोलाकार मूर्तिनुमा, त्रिभुजाकार, आयताकार, षटवलययुक्तादि मनमोहक चित्र, विचित्र स्वचालित यंत्रांे-खिलौनों को इस प्रकार स्थान-स्थान पर भव्य रूप से स्थित कर दिया जाता है कि भक्त जनों का मन बरबस ही उधर खींच जाता है और, उस जगत् के क्षणिक रूप सौंदर्य का नेत्रों से पान करता हुआ, वह वहां पहुंच जाता है, जहां जन-जन के आराध्य, भगवान श्री कृष्ण का विग्रह विराजमान होता है। भक्त उस स्वरूप को एक टक देखता ही रह जाता है। वह अपनी सुध-बुध खो देता है। श्रीकृष्ण का दिव्य आशीर्वाद प्राप्त कर भक्त भाव विभोर हो, नृत्य, गायन, वादन की क्रीड़ाओं में सहज ही प्रविष्ट हो जाता है।
मंदिरों में श्रीमद् भागवत कथा, भजन, संगीत आदि के कार्यक्रम भी बड़ी ही धूमधाम से आयोजित किये जाते हैं। श्री कृष्ण की जन्म कथा: द्वापर युग में जब पृथ्वी पापियों, अत्याचारियों, दुष्टों, राक्षसों के भार से दबने लगी एवं आततायी कंसादि की क्रूरता नग्न तांडव नृत्य करने लगी तथा ब्राह्मणों, संतों, गायों पर अत्याचार होने लगे, स्वर्गादि में असुरों का साम्राज्य स्थापित होने लगा तब पृथ्वी माता गाय का रूप धारण कर, सृष्टिकर्ता विधाता के पास जा कर, अपनी मर्मांतक पीड़ा के अश्रु प्रवाहित नेत्रों से युक्त हो, वाणी के द्वारा बखान करने लगी। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं के सम्मुख पृथ्वी के करुण क्रंदनरूप कथा को सुना दिया। तब ब्रह्मा जी के साथ सभी देवगण, गौ को साथ ले कर, विष्णु के पास आये। ब्रह्मा जी ने पृथ्वी मां की वेदना को कह कर उसके निवारण के लिए प्रार्थना की। विष्णु जी ने पृथ्वी एवं देवगणों से कहा कि मैं स्वयं शीघ्र ही ब्रज मंडल में, कंस के कारागार में, वासुदेव गोप की भार्या कंस की चचेरी बहन देवकी के गर्भ से जन्म लूंगा। अतः तुम भी, उनकी लीला में सहायक बनने के लिए, यदु वंश में अपना-अपना शरीर धारण करो। सभी देवता तथा पृथ्वी ब्रज में आ कर नंद, यशोदा, गोप, गोपी, वृक्ष, लता, पताकादि के रूप में पैदा हुए। कुछ दिन व्यतीत हुए। आहुक के पुत्र देवक के 4 पुत्र (देववान, उपदेव, सुदेव, देववर्धन) तथा 7 कन्याओं (धृतदेवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा, देवकी) एवं देवक के भाई उग्रसेन से 9 पुत्रों (कंस, तुष्टमान, सुनामा, सृष्टि, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल) एवं 5 कन्याओं (कंसा, कंसवती, केका, सुरभू, राष्ट्रपालिका) का जन्म हुआ।
देवमीढ़ के पुत्र शूर की पत्नी मरिषा से, वासुदेव सहित 10 पुत्रों का जन्म हुआ। इन्हीं का दूसरा नाम आनक दुंदुभि था, क्योंकि वसुदेव के जन्म के समय नगाड़े, नौबत स्वयं बजने लगे थे। वसुदेव ही श्री कृष्ण के पिता बने। देवक की सातों कन्याओं का विवाह वसुदेव के साथ हुआ। कंस अपने चाचा की छोटी लड़की देवकी को, विवाह होने पर, ससुराल पहुंचाने जा रहा था रास्ते में आकाशवाणी हुई तुम जिसे इतने प्यार एवं उत्साह से पहुंचाने जा रहे हो, उसी का आठवां पुत्र तेरा काल होगा!’ इस आकाशवाणी से बलशाली कंस चैंका। दिग्विजय कंस मृत्यु के भय से आक्रांत हो उठा। कायरता के भावों ने मन, अंतःकरण, बुद्धि को कुंठित कर दिया। वह अपनी लाडली, दुलारी, स्नेहमयी बहन का वध करने को उद्यत हो गया। म्यान से तलवार निकाली ही थी कि वसुदेव जी कंस को धर्मोपदेश देने लगे कि हे कंस ! अबला पर शस्त्र प्रहार करना वीरों की वीरता नहीं है। नारी जाति का वध करना धर्म शास्त्र के विरूद्ध है। ऐसे निंदनीय कृत्य के द्वारा अपयश और निंदा का पात्र बनना पड़ेगा। आप वीर पुरुष हैं। देवकी से कोई भय तुम्हें नहीं है। यदि भय है, तो देवकी के आठवें लाल से। वासुदेव जी ने सद्योजात शिशु कंस को देने का वचन दिया और देवकी के प्राणों की रक्षा की। उन्होंने पतिव्रत धर्म का पालन किया। वसुदेव और देवकी विदा हो गये। शिशु का जन्म हुआ। बालक को ले कर वसुदेव कंस के पास आये।
कंस ने बालक को कर कमलों में ले कर निहारा और वापस वसुदेव को यह कह कर दे दिया कि मेरा काल आठवां बालक है। इससे मुझे कोई भय नहीं है। वसुदेव प्रसन्न हृदय से बालक को ले कर लौट गये। देवर्षि नारद लोक कल्याण की कामना से विचार करने लगे कि यदि कंस देवकी के बालकों का वध नहीं करेगा, तो अधर्म कैसे होगा? अतः देवर्षि, उसे अधर्म में प्रयत्नशील करने हेतु, कंस के राजमहल में पधारे और एक गोले में 8 बिंदुओं को स्थापित कर एक-एक कर अंतिम बिंदु तक बार-बार गिनने लगे और इस क्रम में प्रत्येक बिंदु आठवां बिंदु हो गया। उसकी बुद्धि भ्रमित हो गयी। देवर्षि से प्रश्न किया कि महात्मन् ! आपके मंतव्य से तो कोई भी बालक आठवां हो कर जन्म ले लेगा, तो क्या मैं सभी बालकों की हत्या करूं? देवर्षि वीणा को बजाते हुए, श्रीमन नारायण का ध्यान कर, वहां से चले गये। कंस वह है, जो दूसरों का सुख-चैन लूट ले। कृष्ण वह है, जो दूसरों का दुःख-दर्द लूट ले। कंस की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। उसने देवकी के बालक को गोदी से छीन लिया और उसे मौत के घाट उतार दिया और वसुदेव-देवकी को कारागार में बंद कर दिया। विरोध करने पर अपने ही पिता उग्रसेन को भी उसने बंदी बनाया। वह स्वयं मथुरा का नरेश बन गया। बच्चे होते, तो सत्यभीरु वसुदेव जी उसे कंस के सम्मुख ला कर रख देते, जिसे वह उठा कर शिला पर पटक देता। हत्या से शिलातल कलुषित होता गया। 6 शिशु मरे। सातवें गर्भ में भगवान शेष पधारे।
योगमाया ने उन्हें आकर्षित कर के गोकुल में रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। जगत में शोर मच गया। देवकी का सातवां बालक गिर गया। अष्टम गर्भ में अखिलेश आया। देवों ने देवकी को आश्वस्त किया कि नव मास पूर्ण होने पर पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् का अवतार होगा। कंस अभिमानी है। जीवमात्र को बंद किये रहता है। सभी जीव संसाररूपी कारागार में बंद हंै। वसुदेव शुद्ध सत्व गुण स्वरूप है। विशुद्ध चित्त ही वसुदेव है। निष्काम बुद्धि ही देवकी है। वसुदेव कारागार में जागते हैं। देवकी के आठवें गर्भ की बात जान कर कंस सावधान हो गया। उसने उन्हें विशेष कारागार में डाल कर कड़ा पहरा लगवा दिया। कंस के कारागार में, भाद्र कृष्ण अष्टमी की मेघाच्छन्न अर्धनिशा को, रोहिणी नक्षत्र, चंद्रोदय के साथ चारों पुरूषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को सिद्ध करने वाले चतुर्भुज स्वरूप ले कर श्री कृष्ण प्रकट हुए। शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान् के तेजोमय प्रकाश से कारागार प्रकाशित हो गया। वसुदेव-देवकी का जीवन धन्य हो गया। पुराण पुरुषोत्तम की स्तुति करने लगे। बंदियों के नेत्र धन्य हो गये। लीलाधारी भगवान् की यह लीला देख वसुदेव-देवकी उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान कहने लगे: माताजी ! मैं तो आपका बालक हूं। देवकी ने हंस कर कहा: बालक तो छोटा होता है। आप तो चतुर्भुज स्वरूप हैं। छोटे बालक बन गये प्रभु। देवकी से कहाः अब तो पुत्र स्नेह दो। देवकी ने पुनः कहा: बालक तो नंगे होते हैं।
तुमने तो वस्त्र धारण किये हैं। माता को परमात्मा ने समझाया: मैं तो इसलिए वस्त्र पहन कर आया हूं कि मामा तो मुझे मारने को बैठा है। फिर कुर्ता-टोपी कौन लायेगा? माता ने कहा: बेटा, धीरे-धीरे बोलो। कंस ने सुन लिया, तो दौड़ता हुआ आ जाएगा। श्री कृष्ण कहने लगे: माते ! यदि कंस से डरती हो, तो कंस का माथा फोड़ दूं। मैं यहां डर कर रहना नहीं चाहता, सो मुझे गोकुल पहुंचा दो। देखते-देखते भगवान नग्न शिशु बन गये। वसुदेव-देवकी मोहित हो गये। शिशु को प्यार करने लगे। माता स्तन पान कराने लगी। शृंखलाएं स्वतः शिथिल हुईं। द्वार उन्मुक्त हुआ। वसुदेव जी उस हृदय धन को गोकुल जा कर नंद भवन में रख आये। कंस को मिली यशोदा की कन्या और जब योगमाया कंस कन्या को शिलातल पर पटक रहा था, तभी वह गगन में सायुधाभरण अष्टभुजा हो कर बोली: हे कंस ! तुम्हें मारने वाला तो गोकुल में बहुत समय पूर्व ही पैदा हो चुका है। गोकुल की गलियों में आनंद उमड़ा। आनंदघन नंदरानी की गोद में जो उतर आया था। शांडिल्य ऋषि के साथ एकादशी महाव्रत की पूर्णता से ही श्री कृष्ण का जन्म हुआ है, जिनकी चरण धूलि को सत्पुरुष अपने सिर पर धारण करने की इच्छा करते हैं, फिर भी वह चरण रज प्राप्त नहीं हो पाती।
वही श्री कृष्ण आज, यशोदा के आंगन की शोभा बढ़ाते हुए, संपूर्ण ब्रज मंडल को आनंदित कर रहे हैं। क्यों न करें? कृष्णावतार की गंूज ब्रज मंडल में व्याप्त हो गयी। ब्रजवासी नाना भांति सज-संवर कर, उपायन देते हुए, आनंद मना रहे हैं। इन्हीं भगवान कृष्ण ने पूतना, तृणावर्त, शकटासुर का उद्धार किया। यदुवंश पुरोहित गर्गाचार्य जी ने कृष्ण-बलराम का नामकरण संस्कार किया। श्री कृष्ण के जातकर्म, अन्नप्राशन, केशच्छेदन, उपनयन, वेदारंभ, समावर्तन, विवाह, गृहाश्रमादि संस्कार विधिवत् संपन्न हुए। विविध लीलाएं जैसे माखन चोरी, मिट्टी भक्षण, ऊखल बंधन, चीर हरण, गोवर्धन धारण, गोचारण, दावानल पान आदि प्रसिद्ध लीलाएं हैं। अवंति जा कर श्री कृष्ण ने सांदीपनि गुरु से शिक्षा प्राप्त की। गुरु दक्षिणा में गुरु का मृत पुत्र पुनः प्रदान कर आये। कंस वधोपरांत जरासंध का 17 बार पराभव एवं कालयवन को मुचकंुद की नेत्राग्नि से भस्म कराना, 18वीं बार जरासंध के आने पर रण छोड़ कर भागना और रणछोड़ नाम से प्रसिद्ध होना भी श्याम सुंदर की अद्वितीय लीलाएं हैं।