नदी से बाढ़ का रिश्ता युगयुगीन है और अत्यधिक जल प्रवाह से ही बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। इस तरह जाना समझा जा सकता है कि ‘बाढ़’ संपूर्ण देश में एकमेव वह नगरी है जिसके किस्मत की तार बाढ़ से ही बनती बिगड़ती रही और इसी बाढ़ क्षेत्र के प्रधान देवता श्रीउमानाथ जी हैं जिनका देवालय रेलवे स्टेशन से कोई ढाई कि.मी. दूरी पर वार्ड नं. 15 में लिवापुर के बगल में उमानाथ क्षेत्र में है। यहां आने के लिए रेलवे स्टेशन से छोटे-बड़े वाहन सहज में उपलब्ध हैं। ऐसे राष्ट्रीय राजमार्ग 31 पर अवस्थित रहने से सड़क मार्ग से यहां देश भर से आना संभव है।
संपूर्ण उत्तर भारत से बंगाल क्षेत्र से आने वाले पुराने मार्ग पर गंगा के दक्षिण में बसा बाढ़ पुराकाल से ही सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहा है। पालकालीन शासन के इस चर्चित स्थल ने मुगल काल आते-आते व्यापारिक मंडी व धर्म के स्थल के रूप में ख्याति अर्जित की जहां आज भी अनाज की मंडियां व एक प्रकार के खास तरह के मिष्टान्न ‘लाई’ की चर्चा चहुं ओर है। बाढ़ में अलखनाथ घाट, सीढ़िया घाट, सामने घाट (बाबा अजगैबीनाथ घाट), पोस्ट आॅफिस घाट, बनारसी घाट, सती स्थान घाट, गौरी शंकर घाटादि भी हैं पर धार्मिकता व सांस्कृतिक समागम के दृष्टिकोण से उमानाथ घाट पर अवस्थित श्री उमानाथ मंदिर समूह में भक्तों के आगमन से सालों भर चहल-पहल बना रहता है।
भगवान शिव शंकर से जुड़े श्रावण, शिवरात्रि, बसंतपंचमी के साथ-साथ माघ पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, गंगा दशहरा, छठ व शादी ब्याह के दिनों में जहां भक्तों के आगमन से मेला लग जाता है। बाढ़ के श्री उमानाथ की महत्ता यहां बनारस की भांति है। मंदिर से जुड़ी एक प्राचीन लोकोक्ति उद्धत करने योग्य है- बाढ़ बनारस एक है बसंत उत्तरवाहनी गंगा के तीर। बाबा उमानाथ के दर्शन से काया कंचन होत शरीर। आज भी इस क्षेत्र में ऐसे कितने हैं जो नित्य गंगा स्नान के बाद बाबा दर्शन कर ही अपनी दिनचर्या की शुरूआत करते हैं। उमानाथ तीर्थ को कहीं-कहीं अमरनाथ के नाम से भी अभिहित किया गया है। शिवशंकर पूजन के अष्टादश स्थलों में परिगण्य ‘उमानाथ’ की चर्चा शिव पुराणा में है। ऐसे श्री रूद्रावृकम के सातवें श्लोक में भी उमानाथ का स्पष्ट अंकन है।
देवी पुराण, वामन पुराण आदि में उमा की व्याख्या करते बताया गया है कि पार्वती द्वारा शिवशंकर प्राप्ति के उद्देश्य से घोर तपस्या में आने के गंभीर निर्णय के उपरांत माता मैना स्तंभित रह गईं। उन्होंने तपोसाधना करने से रोका और उनके मुख से अचानक निकल पड़ा ‘उ’ ‘मा’। यही उमा कहलायीं जिनके नाथेश्वर श्री भोले भंडारी हैं। भारतवर्ष में जहां जहां स्वयंभू शिवलिंग की चर्चा है उनमें उमानाथ भी एक हैं जो बड़े ही जाग्रत हैं। कसौटी पत्थरों से निर्मित चमकदार व सवा बीता व्यासधारी बाबा उमानाथ आशुफलदाता कहे जाते हैं जिनके मंदिर के शिखर पर ‘‘ऊँ 1935 हरि’’ लिखा हुआ है। सम्प्रति इसके अरघे को धातुखंड से मंडित कर देने के कारण इसकी सुंदरता में और भी श्री वृद्धि हुई है।
पास ही त्रिशूल, डमरू व नंदी प्रतिमा भी शोभित है। इस प्रधान देवालय के प्रदेश खंड के ऊपर ताखे पर लक्ष्मी व गणेश की प्रतिमा एक अलंकृत पाषाण खंड पर अंकित है जो किसी प्राचीन मंदिर के खंड जान पड़ते हैं। शेष कुछ अन्य प्राच्य स्तंभ व मंदिर के खंड का दर्शन मनोकामना महादेव स्थान के चबूतरे के पास किया जा सकता है। यहीं से सामने गंगा नदी की ओर जाने के मार्ग बने हैं। उमानाथ के ठीक सामने माता पार्वती की विग्रह भी आकर्षक व प्रभावोत्पादक है। प्रभु के देवालय के बगल में बजरंग बली, पीछे संतोषी माता मंदिर व सूर्य नारायण का देवालय है।
मंदिर के प्रदेश खंड में सबसे पहले सिद्धनाथ महादेव के सुंदर मंदिर का दर्शन होता है जिसके आंतरिक शिखर पर चित्रकारी किया गया है। इसी के आगे सती मंदिर है और इसके सामने श्री विश्वकर्मा मंदिर है। श्री उमानाथ के सामने विशाल सभा भवन के एक तरफ भैरव तो दूसरे तरफ पंचमुखी शिव ताखे में शेभायमान हैं। इसके साथ पीछे के दीवार पर, वृक्ष के चबूतरे पर व किनारे में पूर्व शिल्प विराजित हैं। मंदिर के पाशर््व में एक प्राचीन कूप है जिसका निर्माण मंदिर के समय में ही हुआ बताया जाता है। मंदिर के वयोवृद्ध पुजारी विश्वनाथ गिरि बताते हैं कि गंगा माई से प्राकट्य इस तेजरूप लिंग को पहली बार 1333 में रक्षित करते हुए मंदिर का रूप दिया गया जो 1934 के भूकंप में तहस-नहस हो जाने के कारण 1934 ई में पुनर्निर्मित किया गया। इसी समय यहां उत्तर की ओर श्मशान घाट में सती स्थान का भी निर्माण हुआ।
ज्ञातव्य है कि पास के बेढ़ना गांव की रूप यौवना पति वियोग में इसी वर्ष यहां सती हो गयी जिन्हें देवी अवतार माना जाता है। ऐसे इसके पहले भी एक देवी वाराही (बाढ़ वाली देवी) की जानकारी मिलती है जिनके स्थान की स्थापना 1250 ई. में ही स्थानीय लोगों द्वारा किया गया था। मंदिर परिसर और मंदिर के ठीक पास में ही यात्रियों के सुविधार्थ धर्मशालायें हैं। सुंदर व आकर्षक मीनाकारी से युक्त इस मंदिर के बाह्य दर्शन से ही मन मस्तिष्क में शिव भक्ति का भाव स्वतः जाग्रत होता है और ठीक बगल में कल-कल बहती मां गंगा की निर्मल धारा और ऊपर से चलती कभी तेज व कभी मंद हवा जहां बार-बार आने को आमंत्रण प्रदान करता प्रतीत होता है।
इस पूरे क्षेत्र में गंगा किनारे पीपल वृक्षों का बाहुल्य है जिसपर खगवृन्दों के कलरव से गुलजार बना रहता है। बाढ़ व उमानाथ की चर्चा बिहार एण्ड ओडिशा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर के साथ कितने ही स्थानों पर हुआ है। यहां की कथा एक धर्मनिष्ठ वृद्ध महिला से जुड़ी है जिसका उमा नामक एक संतान था वो युवापन में ही स्वर्ग सिधार गया तभी से वृद्धा विक्षिप्त रहने लगी। एक दिन सपने में जानकारी मिली कि उमा मरा नहीं बस अपनी कुटिया के बीच में थोड़ी जमीन खोदो। बाबा का रूप देख वृद्धा कृत-कृत हो उसने गंगा जल व पास के कंदमूल-फलफूल सहित बाबा की प्रथम पूजा की। कहते हैं वृद्धा इतनी धर्मनिष्ठ व शिवास्था की आधार थीं कि मृत्योपरांत स्वयं शिव जी ने भेष बदल मुखाग्नि संस्कार संपन्न किया था।
मुगलकाल में यहां की प्रसिद्धि यथावत् बनी रही और मुगल शासकों ने भी इसे किसी न किसी रूप में संरक्षण प्रदान किया, यह यहां के यशः महिमा का ही सुप्रभाव है। आज यहां के मंदिर का कलेवर बड़ा ही मन भावन हो गया है। दिनोंदिन भक्तों की बढ़ती संख्या इस बात के प्रमाण हैं कि बाबा का दरबार भक्तों के मनः भाव को पूर्ण करता है। कुल मिलाकर प्रकृति और धर्म के इस संगम तीर्थ में भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और उमानाथ जी की कृपा से कठिन मार्ग भी सरल हो जाते हैं।