देवशयनी एकादशी व्रत
देवशयनी एकादशी व्रत

देवशयनी एकादशी व्रत  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 4263 | जुलाई 2016

शयनी या देवशयनी एकादशी व्रत आषाढ़ शुक्लपक्ष एकादशी को किया जाता है। यह एकादशी महान पुण्यदायी, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाली एवं संपूर्ण पापों का हरण करने वाली है। एक समय नंद नंदन मुरली मनोहर भगवान श्रीकृष्ण से धर्मराज युधिष्ठिर ने सादर पूछा, ‘भगवान ! आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करने की विधि क्या है? भगवान यशोदानंदन गोविंद ने कहा, ‘हे युधिष्ठिर, जो कथा ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद जी को उनकी जिज्ञासा शांत करने हेतु सुनाई थी, वही कथा मैं तुमसे कहता हूं।’ ब्रह्माजी ने कहा पुत्र नारद ! जो मनुष्य एकादशी व्रत करना चाहे वह दशमी को शुद्ध चित्त हो दिन के आठवें भाग में सूर्य का प्रकाश रहने पर भोजन करे, रात्रि में भोजन न करें।

दशमी को मन और इंद्रियों को वश में रखकर भगवान से प्रार्थना करें कि कमल के समान नेत्रों वाले भगवान अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आपकी पूजा करूंगा, आप ही मेरे रक्षक हैं।’ ऐसी प्रार्थना कर रात्रि में‘¬ नमो नारायणाय’ मंत्र का जप करें। एकादशी के दिन प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व ही नित्यकर्म आदि से निवृत्त होकर स्नान-पूजन आदि करते हुए भगवान से प्रार्थना करें, ‘हे केशव! आज आपकी प्रसन्नता प्राप्ति के लिए किए गए इस व्रत के नियम-संयम का मेरे द्वारा पालन हो, यही प्रार्थना है। हे पुरुषोत्तम! यदि किसी अज्ञानतावश मुझसे व्रत पालन में कोई बाधा हो जाए तो आप मुझे क्षमा करें, फिर कमल पुष्पों से कमललोचन भगवान विष्णु का विधिवत् संकल्प लेकर षोडशोपचार पूजन करें।

हरि संकीर्तन एवं हरि कथाओं का आनंद लें। रात्रि में जागरण करें। इस प्रकार निश्चय ही इस व्रत के प्रभाव से समस्त पाप उसी प्रकार भस्म हो जाती है, जैसे एक अग्नि की चिंगारी से रूई का विशालकाय ढेर जलकर राख हो जाता है। यह व्रत करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होकर मनवांछित फल देते हैं। इस शयनी एकादशी को पद्मा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इसके पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - हे धर्मराज, अब एकाग्रचित्त होकर ब्रह्माजी के द्वारा कही हुई कथा का श्रवण करो- सूर्यवंश में मान्धाता नाम का एक चक्रवर्ती राजा हुआ जो सत्यवादी और महा प्रतापी था। वह अपनी प्रजा को अपनी संतान मानता था। उसकी प्रजा सुखी थी।

उसके राज्य में कभी अकाल नहीं पड़ता था। लेकिन एक समय उस राजा के राज्य में तीन वर्ष तक वर्षा नहीं हुई और अकाल पड़ गया। अन्न की कमी से प्रजा में हाहाकार मच गया। अन्न के न होने से राज्य में यज्ञादि भी बंद हो गए। एक दिन प्रजा राजा के पास जाकर कहने लगी- ‘हे राजन ! प्रजा अकाल से मर रही है, परेशान है, इसलिए कोई ऐसा उपाय करें, जिससे प्रजा का कष्ट दूर हो।’ राजा मान्धाता ने कहा, ‘आप लोग ठीक कह रहे हैं, वर्षा से ही अन्न उत्पन्न होता है और आप लोग वर्षा न होने से अत्यंत दुःखी हो रहे हैं। मैं आप लोगों का कष्ट समझता हूं।’

ऐसा कहकर राजा कुछ सेना लेकर वन की तरफ चल दिया। वह अनेक ऋषियों के आश्रम से भ्रमण करता हुआ अंत में ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचा। वहां उसने घोड़े से उतर कर अंगिरा ऋषि को प्रणाम किया। मुनि ने उसे आशीर्वाद देकर उससे आश्रम में आने का कारण पूछा। राजा ने हाथ जोड़कर विनीत भाव से कहा, ‘‘ भगवान! सब प्रकार से धर्म का पालन करने पर भी मेरे राज्य में अकाल पड़ गया है, इससे प्रजा अत्यंत दुःखी है। राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट मिलता है, ऐसा शास्त्रों ने कहा है। जब मैं धर्मानुसार राज्य करता हूं तो मेरे राज्य में अकाल क्यों पड़ गया? मैं आपके पास इसी समस्या के निवारण के लिए आया हूं। कृपा करके प्रजा के कष्ट को दूर करने का उपाय बताइए। ऋषि ने कहा, ‘हे राजन ! यदि तुम उपाय जानना चाहते हो तो सुनो।

आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की पद्मा (शयनी) नाम की एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करो। व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी और प्रजा सुख पाएगी क्योंकि इस एकादशी का व्रत हर प्रकार की सिद्धि देने वाला तथा समस्त उपद्रवों का नाश करने वाला है। इस एकादशी का व्रत तुम प्रजा, सेवक तथा मंत्रियों के साथ करो।’ मुनि के इस वचन को सुनकर राजा अपने नगर वापस आया और उसने विधिपूर्वक पद्मा एकादशी का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वर्षा हुई और प्रजा को सुख पहुंचा। अतः इस मास की एकादशी का व्रत सब मनुष्यों को करना चाहिए। यह व्रत इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाला है। इस एकादशी की कथा पढ़ने और सुनने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है।

इसी एकादशी से चातुर्मास्य व्रत भी प्रारंभ होता है। इसी दिन से भगवान विष्णु क्षीर सागर में शेषनाग की शय्या पर तब तक शयन करते हैं, जब तक कार्तिक शुक्ल मास की एकादशी नहीं आ जाती है। अतः आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक मनुष्य को भलीभांति धर्म का आचरण भी अवश्य करना चाहिए।



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