रंभा या रमा एकादषी व्रत
रंभा या रमा एकादषी व्रत

रंभा या रमा एकादषी व्रत  

ब्रजकिशोर शर्मा ‘ब्रजवासी’
व्यूस : 4294 | अकतूबर 2006

रमा एकादषी व्रत कार्तिक मास कृष्णपक्ष एकादशी को किया जाता है। जो मनुष्य एकादशी व्रत करना चाहे, वह दशमी को शुद्ध चित्त होकर दिन के आठवें भाग में सूर्य का प्रकाश रहने पर भोजन करे। रात्रि में भोजन न करे। दशमी को कांस्य पात्र में भोजन न करे तथा उड़द, मसूर, चना, कोदो, साग, शहद, दूसरे का अन्न, दो बार भोजन और मैथुन का त्याग करे। ¬ नमो नारायणाय तथा गुरु प्रदत्त मंत्रा का जप करे। एकादशी के दिन बार-बार जलपान, हिंसा, अपवित्रता, असत्य भाषण, पान चबाने, दातून करने, दिन में शयन, मैथुन, जुआ खेलने, रात्रि में सोने और पतित मनुष्यों से वार्तालाप जैसी क्रियाओं का त्याग करे। एकादशी को रात्रि में जागरण कर एकादशी कथा का श्रवण करना चाहिए।

‘हे भगवान ! हे अच्युत ! हे केशव ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा, मेरे आप ही रक्षक हैं।’ ऐसी प्रार्थना कर केशव भगवान का षोडशोपचार पूजन और प्रदक्षिणा कर उन्हें नमस्कार करे। प्रत्येक पहर में आरती करे। गीत, वाद्य तथा नृत्य के साथ रात्रि जागरण कर गीता, विष्णु सहस्रनाम, ¬ नमो नारायणाय, ¬ नमो भगवते वासुदेवाय आदि का पाठ तथा जप करे। द्वादशी को शु( चित्त होकर पुनः भगवान का षोडशोपचार पूजन कर ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन, द्रव्य, दक्षिणादि से संतुष्ट कर स्वयं भी भोजन करे। इस व्रत को पूर्ण विधान से करने पर सभी पापों का क्षय होता है तथा स्वर्ग में जाने पर रमा, रंभा आदि अप्सराएं उसकी सेवा करती हैं।’

एकादशी माहात्म्य कथा: प्राचीन समय में मुचुकंुद नाम का दानी, धर्मात्मा, न्यायप्रिय एवं विष्णुभक्त राजा राज्य करता था। उसे एकादशी व्रत का पूरा विश्वास था, इसलिए वह कृष्ण व शुक्ल पक्षों की प्रत्येक एकादशी का व्रत किया करता था। यही नियम राज्य की प्रजा पर भी लागू था। राजा की चंद्रभागा नाम की एक कन्या थी। उसका विवाह राजा चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक समय शोभन श्वसुर के घर आया। राजाज्ञा के कारण क्षुधा-पिपासा की पीड़ा को सहन करने में असमर्थ होने पर भी शोभन ने रमा एकादशी का व्रत किया। परंतु क्षीणकाय होने के कारण भूख से व्याकुल होकर शोभन व्रत का पालन करते-करते ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। इससे राजा, रानी और पुत्री को अत्यंत कष्ट हुआ। राजा ने व्यथित मन से सुगंधित चंदनादि के काष्ठ से चिता तैयार कर शोभन का अन्त्येष्टि संस्कार कर संपूर्ण मृत कर्मों को पूर्ण करा दिया। चंद्रभागा असहनीय पीड़ा को सहन करती हुई व्रत नियमादि से भगवत् आराधना में लीन रहने लगी।

शोभन को मंदराचल पर्वत पर स्थित देव नगर में आवास मिला। वहां रंभादि अप्सराएं शोभन की सेवा करने लगीं। एक बार महाराज मुचुकुंद के राज्य में रहने वाला ब्राह्मण तीर्थयात्रा करता हुआ मंदराचल पर्वत पर पहुंच गया और शोभन को पहचानकर कि यह तो राजा का जमाई है, उसके निकट गया। शोभन ने भी ब्राह्मण को पहचानकर प्रणामादि करके कुशल प्रश्न किया। ब्राह्मण ने कहा- ‘राजा मुचुकंुद और आपकी पत्नी चंद्रभागा कुशल से हैं। परंतु हे राजन ! हमें अत्यंत आश्चर्य हो रहा है, आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा न सुना, आपको किस प्रकार प्राप्त हुआ? शोभन बोला- यह सब रमा एकादशी व्रत का प्रभाव है, परंतु यह अस्थिर है। क्योंकि मैंने इस व्रत को श्रद्धा रहित होकर किया था अगर आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है।

ऐसा सुनकर श्रेष्ठ ब्राह्मण ने चंद्रभागा से शोभन के प्राप्त होने का संपूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। और उसे पति के पास भेजने का प्रबंध किया। मंदराचल पर्वत के समीप वामदेव ऋषि के आश्रम में वामदेव ऋषि ने वेदमंत्रों के उच्चारण से चंद्रभागा का अभिषेक किया। तब ऋषि के मंत्र प्रभाव और एकादशी के व्रत से चंद्रभागा का शरीर दिव्य हो गया और वह दिव्य गति को प्राप्त हुई। अपनी प्रिय पत्नी को आते देखकर शोभन अत्यंत प्रसन्न हुआ चंद्रभागा ने कहा- ‘हे प्राण नाथ ! आप मेरे पुण्य को ग्रहण कीजिए। अपने पिता के घर में जब मैं आठ वर्ष की थी, तब से विधिपूर्वक एकादशी के व्रत को श्रद्धापूर्वक करती आ रही हूं। इस पुण्य के प्रताप से आपका राज्य प्रलय के अंत तक रहेगा।’ इस प्रकार चंद्रभागा दिव्यरूप धारण कर तथा दिव्य वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी।



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