आपके विचार प्र श्न: देश के विभिन्न अंचलों में दीपावली का पर्व किस प्रकार मनाया जाता है? अलग-अलग आंचलिक विशिष्टताओं के साथ पर्व मनाने के ढंग में क्या अंतर है?
दीपावली का सामान्य परिचय लक्ष्मी पूजा के उत्सव के रूप में है। समुद्र मंथन के समय 14 रत्न निकले थे, जिनमें पहले रत्न लक्ष्मी अर्थात् ‘श्री’ के प्रकट होने की अंतर्कथा वाला प्रसंग दीपावली का प्रमुख संदर्भ है। पौराणिक महत्व के साथ यह एक व्यावहारिक सच्चाई भी है कि लक्ष्मी की प्रसन्नता सभी के लिए अभीष्ट है। धन वैभव हर किसी को चाहिए।
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इसलिए उसी अधिष्ठात्री शक्ति की पूजा-आराधना के लिए दीपावली का महापर्व व्यापक रूप से प्रचलित है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस महापर्व पर रघुवंशी भगवान श्री राम की रावण पर विजय के बाद अयोध्या आगमन पर नागरिकों ने दीपावली को आलोक पर्व के रूप में मनाया। तभी से यह दीप महोत्सव राष्ट्र के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है।
दीपावली अपने अंदर प्रकाश का ऐसा उजियारा धारण कर आती है, जिसके प्रभाव से अनीति, आतंक और अत्याचार का अंत होता है और मर्यादा, नीति और सत्य की प्रतिष्ठा होती है। भगवान श्री राम की जन्मभूमि व राज्य अयोध्या में था, इसलिए दीपावली का महापर्व उत्तरप्रदेश, विशेषकर अयोध्या में, बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
पौराणिक कथा है कि दीपावली के एक दिन पहले अर्थात चतुर्दशी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। उस राक्षस ने हजारांे कुलीन स्त्रियों को बंदी बना लिया था। वह उनसे दासी की तरह व्यवहार करता था। उसके आतंक से पृथ्वी के समस्त शूर और सम्राट कांपते थे। प्रतीक की दृष्टि से नरकासुर अहं और वासना का उदाहरण है। ये प्रवृत्तियां कितना भी आतंक मचा लें, अंततः पराभूत होती ही हैं।
जब इनका दारुण अंत होता है, तो कोई आंसू बहाने वाला नहीं होता। भगवान श्री कृष्ण के जन्मस्थान मथुरा एवं वृन्दावन की दीपावली लो गबड ़ ेही हर्षो ल्लास क े साथ मनात े है ं।भगवान श्री कृष्ण का राज्य भारत के पश्चिम में स्थित द्वारिका में था जो गुजरात राज्य में पड़ता है। इसलिए गुजरात में भी दीपावली का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। भारतवर्ष के व्यापारी इसी दिन धन की देवी लक्ष्मी जी का आह्वान करते हुए बही खाते की शुरुआत करते हैं।
लक्ष्मी पूजन का समय स्थिर लग्न में निर्धारित किया जाता है। वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ ये चार स्थिर लग्न हैं। दीपावली के समय रात्रि में वृष और सिंह लग्न पड़ता है वृष लग्न संध्या के कुछ उपरांत पड़ता है एवं सिंह लग्न मध्यरात्रि के आस-पास। वृष की अपेक्षा सिंह अधिक प्रभावशाली लग्न है। लेकिन अष्टम और द्वादश भावों की शुद्धि पर ध्यान देना चाहिए अर्थात ग्रहों की स्थिति के अनुसार अष्टम या द्वादश भाव में कोई पापी ग्रह स्थित न रहे। वही लग्न अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त माना जाता है।
यदि दोनों लग्न शुद्ध हांे, तो किसी भी व्यक्ति को सिंह लग्न में लक्ष्मी की पूजा करनी चािहए। यदि वृष लग्न शुद्ध हो एवं सिंह लग्न अशुद्ध, तो वृष लग्न में ही लक्ष्मी पूजन करना ठीक होता है। यदि दोनों लग्न अशुद्ध हों, तो सिंह लग्न में पूजा करनी चाहिए। अधिकांश व्यापारीगण दीपावली की रात्रि में सिंह लग्न के अंतर्गत ही लक्ष्मी पूजा किया करते हैं। पंजाब प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात इत्यादि राज्यों में दीपावली धूमधाम से मनाई जाती है।
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इन राज्यों में दीपावली के अवसर पर लोग दीप तो जलाते ही हैं, साथ ही साथ सामूहिक रूप से नृत्य भी करते हैं- राजस्थान में राजस्थानी नृत्य होता है तो गुजरात में गुजराती नृत्य। सौंदर्य एवं समृद्धि की प्रतीक ‘श्री’ अर्थात् लक्ष्मी का पूजन अपने राष्ट्र की सर्वाधिक श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपरा है। ज्योति पर्व दीपावली तो इसीलिए प्रसिद्ध है। वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक लक्ष्मी का स्वरूप अत्यंत व्यापक रहा है।
ऋग्वेद की ऋचाओं में ‘श्री’ का वर्णन समृद्धि एवं सौंदर्य के रूप में अनेक बार हुआ है। अथर्ववेद में ऋषि, पृथ्वी सूक्त में ‘श्री’ की प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘‘श्रिया मां धेहि’’ अर्थात मुझे ‘‘श्री’’ की संप्राप्ति हो। श्री सूक्त में ‘श्री’ का आवाहन जातवेदस के साथ हुआ है। ‘जातवेदोमआवह’ जातवेदस अग्नि का नाम है। अग्नि की तेजस्विता तथा श्री की तेजस्विता में भी साम्य है।
विष्णु पुराण में लक्ष्मी की अभिव्यक्ति दो रूपों में की गई दीपावली का सामान्य परिचय लक्ष्मी पूजा के उत्सव के रूप में है। समुद्र मंथन के समय 14 रत्न निकले थे, जिनमें पहले रत्न लक्ष्मी अर्थात् ‘श्री’ के प्रकट होने की अंतर्कथा वाला प्रसंग दीपावली का प्रमुख संदर्भ है। पौराणिक महत्व के साथ यह एक व्यावहारिक सच्चाई भी है कि लक्ष्मी की प्रसन्नता सभी के लिए अभीष्ट है।
धन वैभव हर किसी को चाहिए। इसलिए उसी अधिष्ठात्री शक्ति की पूजा-आराधना के लिए दीपावली का महापर्व व्यापक रूप से प्रचलित है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इस महापर्व पर रघुवंशी भगवान श्री राम की रावण पर विजय के बाद अयोध्या आगमन पर नागरिकों ने दीपावली को आलोक पर्व के रूप में मनाया। तभी से यह दीप महोत्सव राष्ट्र के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है। दीपावली अपने अंदर प्रकाश का ऐसा उजियारा धारण कर आती है, जिसके प्रभाव से अनीति, आतंक और अत्याचार का अंत होता है और मर्यादा, नीति और सत्य की प्रतिष्ठा होती है।
भगवान श्री राम की जन्मभूमि व राज्य अयोध्या में था, इसलिए दीपावली का महापर्व उत्तरप्रदेश, विशेषकर अयोध्या में, बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। पौराणिक कथा है कि दीपावली के एक दिन पहले अर्थात चतुर्दशी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। उस राक्षस ने हजारांे कुलीन स्त्रियों को बंदी बना लिया था। वह उनसे दासी की तरह व्यवहार करता था। उसके आतंक से पृथ्वी के समस्त शूर और सम्राट कांपते थे। प्रतीक की दृष्टि से नरकासुर अहं और वासना का उदाहरण है।
ये प्रवृत्तियां कितना भी आतंक मचा लें, अंततः पराभूत होती ही हैं। जब इनका दारुण अंत होता है, तो कोई आंसू बहाने वाला नहीं होता। भगवान श्री कृष्ण के जन्मस्थान मथुरा एवं वृन्दावन की दीपावली लो गबड ़ ेही हर्षो ल्लास क े साथ मनात े है ं।भगवान श्री कृष्ण का राज्य भारत के पश्चिम में स्थित द्वारिका में था जो गुजरात राज्य में पड़ता है। इसलिए गुजरात में भी दीपावली का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। भारतवर्ष के व्यापारी इसी दिन धन की देवी लक्ष्मी जी का आह्वान करते हुए बही खाते की शुरुआत करते हैं।
लक्ष्मी पूजन का समय स्थिर लग्न में निर्धारित किया जाता है। वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ ये चार स्थिर लग्न हैं। दीपावली के समय रात्रि में वृष और सिंह लग्न पड़ता है वृष लग्न संध्या के कुछ उपरांत पड़ता है एवं सिंह लग्न मध्यरात्रि के आस-पास। वृष की अपेक्षा सिंह अधिक प्रभावशाली लग्न है। लेकिन अष्टम और द्वादश भावों की शुद्धि पर ध्यान देना चाहिए अर्थात ग्रहों की स्थिति के अनुसार अष्टम या द्वादश भाव में कोई पापी ग्रह स्थित न रहे। वही लग्न अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त माना जाता है।
यदि दोनों लग्न शुद्ध हांे, तो किसी भी व्यक्ति को सिंह लग्न में लक्ष्मी की पूजा करनी चािहए। यदि वृष लग्न शुद्ध हो एवं सिंह लग्न अशुद्ध, तो वृष लग्न में ही लक्ष्मी पूजन करना ठीक होता है। यदि दोनों लग्न अशुद्ध हों, तो सिंह लग्न में पूजा करनी चाहिए। अधिकांश व्यापारीगण दीपावली की रात्रि में सिंह लग्न के अंतर्गत ही लक्ष्मी पूजा किया करते हैं।
पंजाब प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात इत्यादि राज्यों में दीपावली धूमधाम से मनाई जाती है। इन राज्यों में दीपावली के अवसर पर लोग दीप तो जलाते ही हैं, साथ ही साथ सामूहिक रूप से नृत्य भी करते हैं- राजस्थान में राजस्थानी नृत्य होता है तो गुजरात में गुजराती नृत्य। सौंदर्य एवं समृद्धि की प्रतीक ‘श्री’ अर्थात् लक्ष्मी का पूजन अपने राष्ट्र की सर्वाधिक श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपरा है। ज्योति पर्व दीपावली तो इसीलिए प्रसिद्ध है। वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक लक्ष्मी का स्वरूप अत्यंत व्यापक रहा है।
ऋग्वेद की ऋचाओं में ‘श्री’ का वर्णन समृद्धि एवं सौंदर्य के रूप में अनेक बार हुआ है। अथर्ववेद में ऋषि, पृथ्वी सूक्त में ‘श्री’ की प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘‘श्रिया मां धेहि’’ अर्थात मुझे ‘‘श्री’’ की संप्राप्ति हो। श्री सूक्त में ‘श्री’ का आवाहन जातवेदस के साथ हुआ है। ‘जातवेदोमआवह’ जातवेदस अग्नि का नाम है। अग्नि की तेजस्विता तथा श्री की तेजस्विता में भी साम्य है। विष्णु पुराण में लक्ष्मी की अभिव्यक्ति दो रूपों में की गई है- श्री रूप और लक्ष्मी रूप। दोनों स्वरूपों में भिन्नता है। दोनों ही रूपों में ये भगवान विष्णु की पत्नियां हैं।
श्रीदेवी को कहीं-कहीं भू देवी भी कहते हैं। इसी तरह लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं। सच्चिदानंदमयी लक्ष्मी श्री नारायण के हृदय में वास करती हैं। दूसरा रूप है भौतिक या प्राकृतिक संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी का। यही श्रीदेवी या भूदेवी हैं। सब संपत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्वमयी हैं। इनके पास लोभ, मोह, काम, क्रोध और अहंकार आदि दोषों का प्रवेश नहीं है। यह स्वर्ग में स्वर्ग लक्ष्मी, राजाओं के पास राजलक्ष्मी, मनुष्यों के गृह में गृहलक्ष्मी, व्यापारियों के पास वाणिज्यलक्ष्मी तथा युद्ध विजेताओं के पास विजयलक्ष्मी के रूप में रहती हैं।
शास्त्रकारों ने लक्ष्मी के आठ स्वरूपों का वर्णन किया है। ये सभी स्वरूप, आद्यालक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, अमृतलक्ष्मी, कामलक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी, भोगलक्ष्मी एवं योगलक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हैं। पतिप्राणाचिन्मयी लक्ष्मी सभी पतिव¬्रताओं की शिरोमणि हैं। भृगु पुत्री के रूप में अवतार लेने के कारण इन्हें भार्गवी कहते हैं। समुद्र मंथन के समय ये ही क्षीर सागर से प्रकट हुई थीं, इसलिए इनका नाम क्षीरोदतनया हुआ। ये श्री विद्या की अधिष्ठात्री देवी हैं। तंत्रोक्त नील सरस्वती की पीठ शक्तियों में इनका भी उल्लेख हुआ है।
दीपावली के रूप में विख्यात आधुनिक महापर्व स्वास्थ्य चेतना जगाने के साथ श्ुरू होता है। त्रयोदशी का पहला दिन धन्वंतरि जयंती के रूप में मनाया जाता है। लोग इसे धनतेरस भी कहते हैं और पहले दिन का संबंध धन वैभव से जोड़ते हैं। धन्वंतरि जयंती का संबोधन घिस-पिटकर धनतेरस के रूप में प्रचलित हो गया। वस्तुतः यह आरोग्य के देवता धन्वंतरि का अवतरण दिवस है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय जो 14 रत्न निकले थे उनमें पहला रत्न ‘श्री’ अर्थात लक्ष्मी थीं एवं क्रमानुसार धन्वंतरि आयुर्वेद और अमृत लेकर प्रकट हुए थे।
समुद्र मंथन का प्रयोजन पूरा हुआ मानकर देव और असुर दोनों तेजी से लपके थे। इन दिनों धन्वंतरि जयंती, चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों तक ही सीमित रह गई है। प्रचलित क्रम के अनुसार यम के निमित्त एक दीप जलाकर धनतेरस मनाई जाती है और दरिद्रा को मध्यरात्रि के बाद भोर में सूप बजाकर अर्थात सूप को ठोक-ठोक कर भगाया जाता है। यह प्रथा झारखंड, बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, गुजरात, राजस्थान आदि राज्यों में प्रचलित है।
हिंदी भाषी क्षेत्रों में सभ्यता और सांस्कृतिक साम्य होने के कारण दीपावली मनाने के तरीके में फर्क नही है लेकिन उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत में दीपावली महापर्व मनाने के तौर तरीकों में कुछ फर्क आ जाता है क्योंकि दक्षिण भारत में द्रविड़ जाति की संस्कृति से मिली-जुली सभ्यता है जबकि उत्तर भारत में ऐसी बात नहीं है। मध्यप्रदेश, झारखंड, आसाम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा इत्यादि राज्यों में आदिवासियों की संख्या अधिक है।
इसलिए आदिवासी बहुल क्षेत्रों में दीपदान तो किया जाता है लेकिन आ¬िदवासी लोग- स्त्रियां एवं पुरुष दोनों - मिलकर मंदिर पर नृत्य करते हैं। धनतेरस के समय यम के निमित्त जो दीया जलाया जाता है, वह घर के मुख्य द्वार पर रखा जाता है। कामना की जाती है कि वह दीप अकाल मृत्यु के प्रवेश को रोक सके। ऐसा विवेक जगाए जो स्वास्थ्य, शक्ति और शांति दे। यम की बहन यमुना नदी जिन क्षेत्रों में बहती है, उन क्षेत्रों में यह विशेष पूजा का दिन भी है। उस दिन श्रद्धालु यमुना में यम को मनाने की भावना से स्नान करते हैं।
दीपावली महापर्व का पहला दीप जलाकर शुरू हुए महोत्सव का एक अंग नये बरतन खरीदना भी है ताकि लक्ष्मी पूजन के लिए भोग, प्रसाद अपने घर में ही नये बरतन में बन सकें। चतुदर्शी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध तो किया ही था, इसी दिन हनुमान जी का जन्म भी हुआ था। हिंदी भाषी क्षेत्रों में दीपावली के दिन घरौंदा बनाने की भी परंपरा है। उसमें कई प्रकार के अनाज मिट्टी के बरतनों में रखे जाते हैं। इसके पीछे यही भावना है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना घर हो और वह अनाज से भरा रहे। जब वर्षा काल बीतता है और धरती हरी भरी होती है, नई फसल की शुरुआत सारे दुख दारिद््रय को दूर फटकारने लगती है। लोग इसी खुशी में बड़े ही आनंदपूर्वक दीपावली मनाते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से दीपावली बंधन मुक्ति का दिन है। व्यक्ति के अंदर अज्ञानरूप अंधकार का साम्राज्य है। दीपक को आत्म ज्योति का प्रतीक भी माना जाता है। अतः दीप जलाने का तात्पर्य है- अपने अंतर को ज्ञान के प्रकाश से भर लेना, जिससे हृदय और मन जगमगा उठे। इस दिन चतुर्दिक तमस् में ज्योति की आभा फैलती एवं बिखरती है। अंधकार से सतत् प्रकाश की ओर बढ़ते रहना ही इस महापर्व की प्रेरणा है। वैदिक पुरुष सूक्त से पुराणों तक, लक्ष्मी परमेश्वर को ऐश्वर्य शक्ति के रूप में स्वीकृत हैं।
इस संबंध में महत्वपूणर्् ा तथ्य यह है कि लक्ष्मी केवल बाहरी वस्तु नहीं है, यह वस्तुतः आत्मविभूति है जो इस रूप में सारे प्राणियों के अंदर विद्यमान है, परंतु जो अपनी आत्म ज्योति को प्रकाशित कर पाता है, वही इससे यथार्थ रूप में लाभान्वित हो पाता है पंजाब एवं अन्य राज्यों में भी दिन में लोग खरीददारी करते हैं। मकानों की पुताई की जाती है। दीपमाला सजाई जाती है। लक्ष्मी पूजा की जाती है। घर में सभी लोग बैठकर लक्ष्मी की पूजा करते हैं। लोग बाजारों से तरह-तरह की मिठाइयां व पटाखे खरीदते हैं।
दीपावली के पर्व को बच्चे, बड़े, बूढ़े सभी मिल कर मनाते हैं। इस दिन लोग एक दूसरे के घर मिठाइयां बांटते हैं। लोग नए-नए कपड़े पहनते हैं। रात के समय चारों ओर सिर्फ पटाखों की ही गंूज सुनाई देती है। आकाश भी दिखाई नहीं देता। चारों तरफ रंग बिरंगी रोशनियां देखने को मिलती हैं। बाजार में कई-कई तरह के पटाखे देखने को मिलते हैं। गांवों के लोग भी दीपावली धूम धाम से मनाते हैं।
इस दिन कई लोग दुआ भी करते हैं। हरियाणा: हरियाणा के गांव में लोग दीपावली कुछ अलग ही ढंग से मनाते हैं। दीपावली के कुछ दिन पहले लोग अपनी घरों की पुताई करवाते हैं। दीपावली के दिन घर की एक दीवार पर अहोई माता की प्रतिमा बनाई जाती है, जिस पर घर के प्रत्येक आदमी का नाम लिखा जाता है। पूजन से पहले लक्ष्मी माता का चित्र रखा जाता है। उसके आगे खील, बतासे, खिलौने रखे जाते हैं व उनके ऊपर घी डाला जाता है।
उसके बाद उसे जलाया जाता है ताकि लक्ष्मी प्रसन्न हों। तत्पश्चात सारे आंगन में मोमबत्तियों व दीपकों की रोशनी की जाती है। प्रत्येक घर से चार दीपक हरेक चैराहे पर रखे जाते हैं, जिसे टोना माना जाता है। फिर एक दूसरे के घर मिठाइयां बांटी जाती हैं व उसके बाद पटाखे चलाए जाते हैं। हरियाणा के शहरों की दीपावली में एक अनोखा रिवाज आज भी प्रचलित है। उस दिन औरतें किसी भी छोटे अकेले बच्चे को देखकर उसकी गुद्दी से बाल उखाड़ लेती हैं। यह भी जादू-टोने का एक रूप है।
कोलकाता: यही एक मात्र ऐसी जगह है जहां दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन नहीं होता। यहां दूर्गा पूजन से दो दिन बाद लक्ष्मीपूजा होती है व दीपावली की रात्रि में काली पूजा होती है। घर की सजावट, व पुताई की जाती है। दीपावली तो अन्य राज्यों के समान ही मनाई जाती है, परंतु लक्ष्मी पूजा नहीं होती। घर के आंगन में विशेष रंगोली बनाई जाती है। आंगन में ही तुलसी की पूजा भी की जाती है। शेष सभी कार्य एक जैसे ही होते हंै।
बिहार: बिहार की दीपावली भी एक समान ही है। यहां लक्ष्मी पूजा का खास महत्व है। सभी घर के लोग इकðे बैठकर करते हैं। घर की सजावट व मिठाइयां बांटी जाती हैं, दीपक जलाएं जाते हैं और पटाखे चलाए जाते हैं साथ ही नए कपड़े पहनने का रिवाज भी है। इस दिन घर का बड़ा अपने से छोटे को कोई चीज धन स्वरूप देता है जैसे गाय, भैंस, बछड़ा आदि। आंगन में रंगोली भी होती है।
नेपाल: नेपाल की दीपावली अपने आप में एक अनोखी दीपावली है। पहले घर में सफेदी की पुताई की जाती है, फिर उसे सजाया जाता है। आंगन में रंगोली बनाई जाती है। सभी परिवार के लोग नए कपड़े पहनते हैं। वे अपने रिश्तेदारों को भोजन पर बुलाते हैं। घर में विशेष प्रकार के भोजन बनाए जाते हैं। पूजन में लक्ष्मी, कौए, कुत्ते व अन्य देवी देवताओं की पूजा होती है। घर में चारों तरफ दीपमाला जलाई जाती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे पूरे आकाश के तारे धरती पर उतर आए हों।
विशेष: उत्तर प्रदेश के जिला लखनपुर में दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन हवन करके किया जाता है जिमसें लक्ष्मी जी के मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। इसे लक्ष्मी हवन कहा जाता है।
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