तंत्र और उसका तत्व ज्ञान स. रणजीत सिंह सग्गू तंत्र के विषय में समाज में कई तरह की भ्रांतियां फैली हुई हैं। कुछ लोग तंत्र को विशुद्ध तांत्रिकों के लिए बनी चीज मानते हैं तो कुछ भूत-प्रेत आदि को भगाने का साधन। तंत्र के वास्तविक स्वरूप से लोग प्रायः अनभिज्ञ ही रहते हैं। इस आलेख में तंत्र के वास्त¬विक स्वरूप की झांकी प्रस्तुत की गई है...
तंत्र विद्या एक ऐसी विद्या है, जिसे बिना समझे हम इसका उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि तंत्र शरीर की वह क्रिया है, जिसके द्वारा हम ऐसे कार्य करने में सक्षम हो सकते हैं जो अन्य साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता। तंत्र का इतिहास वर्षों पुराना है। तंत्र जागृति के द्वारा हमारे पूर्वजों ने ब्रह्मांड के बारे में जानकारी ली। तंत्र तत्वज्ञान है, जिसके द्वारा हम अपने ऊर्जा स्र¬ोतों को जाग्रत करते हैं।
इस ऊर्जा से मानव अपने अंदर एक ऐसी ऊर्जा उत्पन्न कर लेता है, जिसके द्वारा वह ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्य को भेदकर कई चमत्कारिक प्रयोग सफलतापूर्वक कर सकता है। इस क्रिया को करने में पूर्ण शारीरिक गतिविधियों को केंद्रित करना पड़ता है। जिस प्रकार ऊर्जा एक सर्किट के द्वारा बनती है और यदि ऊर्जा तरंगंे रुक जाएं तो सर्किट पूर्ण नहीं होता उसी प्रकार हम अपनी शारीरिक क्रियाओं द्वारा अपने ऊर्जा क्षेत्र को जगाकर तरंगों द्वारा एक आज्ञा चक्र का निर्माण करते हैं और यदि यह आज्ञातंत्र नहीं जग पाता तो मनुष्य पागल जैसा हो जाता है।
सिद्ध योगी, अघोरी, पूर्ण महात्मा इस बात को अच्छी तरह समझते हैं, तभी तो इस प्रणाली को गुप्त रूप से करते हैं तथा इसे आम या जनसाधारण को नहीं बताते। नहीं तो हर कोई इस क्रिया के द्वारा अपने शरीर की व्यवस्था को अनियंत्रित कर सकता है। तंत्र का अपना एक अलग क्षेत्र है, इसकी विधि अलग है या कहें कि अपना उपास्य है। योग, भक्ति, सिद्धि सारे आत्मदर्शन के विषय तंत्र से संपादित हो जाते हैं। तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कूर्म चक्र को विशेष स्थान दिया गया है।
कुछ लोग कूर्म च क्र के संस्कृत श्लो¬कों के विभिन्न अर्थ लगाकर अपने तंत्र ज्ञान की महत्ता स्थापित करने के लिए प्रत्नशील रहते हंै पर उनमें से आधे भी नहीं जान पाते कि कूर्म चक्र क्या है। कूर्म चक्र प्राकृतिक रूप से किसी इकाई में बनने वाला एक प्रकार का ऊर्जा चक्र है। इस कार्य को करने के लिए एक विशेष आसन क्षेत्र का निर्धारण किया जाता है, निर्धारण होने पर इष्ट देवता एवं गुरु का संकल्प लेकर अभिमंत्रित जल से शुद्ध करके मंत्र द्वारा सुरक्षित किया जाता है।
तंत्र विद्या की उत्पत्ति पृथ्वी के उत्पन्न होते ही हो गई थी। यह सब जीवों में एक समान हो ती है। मानव सभी जीवो ंमें ज्यादा समझदार एवं विवेकशील है, इसलिए वह इस क्रिया को करने में सक्षम है। जब तक कोई इसे पूर्ण रूप से समझ नहीं पाता तब तक उसका पूर्ण विश्वास एवं एकाग्रता जाग्रत नहीं हो सकती। बिना विश्वास एवं एकाग्रता से कोई कार्य सफल नहीं हो सकता क्योंकि इस एकाग्रता और विश्वास को जगाने के लिए मनुष्य को अथक प्रयास करने पड़ते हैं।
इसलिए ऐसी जानकारी कोई किसी को नहीं देता। अधूरे ज्ञान से अज्ञानी अपने प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़ सकता है। तंत्र ज्ञान की महत्ता स्थापित करने के लिए प्रत्नशील रहते हंै पर उनमें से आधे भी नहीं जान पाते कि कूर्म चक्र क्या है। कूर्म चक्र प्राकृतिक रूप से किसी इकाई में बनने वाला एक प्रकार का ऊर्जा चक्र है। इस कार्य को करने के लिए एक विशेष आसन क्षेत्र का निर्धारण किया जाता है, निर्धारण होने पर इष्ट देवता एवं गुरु का संकल्प लेकर अभिमंत्रित जल से शुद्ध करके मंत्र द्वारा सुरक्षित किया जाता है। तंत्र विद्या की उत्पत्ति पृथ्वी के उत्पन्न होते ही हो गई थी।
यह सब जीवों में एक समान हो ती है। मानव सभी जीवो ंमें ज्यादा समझदार एवं विवेकशील है, इसलिए वह इस क्रिया को करने में सक्षम है। जब तक कोई इसे पूर्ण रूप से समझ नहीं पाता तब तक उसका पूर्ण विश्वास एवं एकाग्रता जाग्रत नहीं हो सकती। बिना विश्वास एवं एकाग्रता से कोई कार्य सफल नहीं हो सकता क्योंकि इस एकाग्रता और विश्वास को जगाने के लिए मनुष्य को अथक प्रयास करने पड़ते हैं। इसलिए ऐसी जानकारी कोई किसी को नहीं देता।
अधूरे ज्ञान से अज्ञानी अपने प्राकृतिक स्वरूप को बिगाड़ सकता है। की लाई, हुई वस्तु ही श्रेयस्कर होती है। शरद व हेमन्त में छाल व जड़, शिशिर में फूल व मूल, बसंत में फूल व पत्ते और ग्रीष्म में फल एवं बीज ग्रहण करने चाहिए। तंत्र के द्वारा काम उपासना करने वाले को चाहिए कि वह मन और कर्म से शुद्ध, सात्विक, परोपकारी व निराहार रहे। प्रयोग के समय जो अनुभव करे वह अपने गुरु से ही कहे, दूसरे व्यक्ति को कहने से उसे कार्य पूर्ण करने में बाधा भी आ सकती है।
वशीकरण के प्रयोगों में साध्य की कामना अवश्य करनी चाहिए। किसी भी प्रयोग के लिए विश्वास जरूरी है। श्रद्धा, गुरु पूजन, सबके प्रति सम्मान भाव, परा¬ेपकार, इंद्रियों पर नियंत्रण और अल्प भोजन भी आवश्यक है। तंत्र में विभिन्न जड़ी बूटियों का भी प्रयोग होता है। उनके देवता अलग-अलग हैं। इसलिए देवों के देव योगीराज शंकर को नमस्कार कर लेना चाहिए। तांत्रिक प्रयोगों में इष्ट देवता और यंत्र का पूजन आवश्यक है। षोडशोपचार में अघ्र्य, आचमन, तर्पण, गंध, पुष्प, नैवेद्य, तांबूल, दक्षिण् ाा, स्तोत्र, नमस्कार आदि आवश्यक हैं। पंचमी व पूर्णिमा को अभिचार, द्वि तीय व षष्ठी को उच्चाटन, तृतीय व त्रयोदशी को आकर्षण, चतुर्थी व चैदस को स्तंभन और एकादशी व द्व ादशी को मारण कर्म का विधान है।
तंत्र के लिए अमावस्या, ग्रहण योग, एकांत आदि का भी विशेष महत्व है। ग्रहण काल व अमावस्या को आसन पर बैठकर साधक जो क्रियाएं करता है उनका फल शीघ्र मिलता है क्योंकि उस समय सूर्य या चंद्रमा का बल कमजोर होता है। आसन पर बैठकर वह अपनी ऊर्जा को पृथ्वी के भीतर नहीं जाने देता।
सूर्यग्रहण पर सूर्य से निकलने वाली किरणों एवं ऊर्जा का ह्रास होने से तांत्रिक अपने द्वारा उत्पन्न ऊर्जा की सक्रियता को बढ़ा लेता है। इसी तरह अमावस्या को चंद्र की शक्ति का ह्रास होता है। उसके गुरुत्वाकर्षण के अभाव में साधक अपनी ऊर्जा द्वारा जो भी तांत्रिक क्रिया करता है, उसमें शक्ति ज्यादा होती है। इसलिए तांत्रिक क्रियाएं रात में ज्यादा की जाती हैं तथा वे ज्यादा प्रभावशाली होती हैं। ध्यान रहे, तांत्रिक क्रिया कभी भी अकेले और गुरु के बिना नहीं करनी चाहिए क्योंकि तंत्र-मार्ग में गुरु का स्थान सर्वोपरि माना गया है।
तंत्र साधक की अपने गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा होने पर ही उसके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं में कोई गलती रह भी जाए तो उसे गुरुदेव दूर कर देते हैं। गुरु का तप प्रभाव कवच बनकर सदा शिष्य की रक्षा करता रहता है। तांत्रिक प्रयोग द्वारा अपने अंदर अलौकिक ऊर्जा का समावेश सांसारिक बंधनों से मुक्त होने में सहायक होता है। तंत्र विद्या में सात्विकता का आज के युग में अधिक ध्यान रखना चाहिए। तामसिक क्रिया द्वारा जहां जल्दी फल मिलता है वहीं हानि होने की संभावना भी रहती है। तंत्र साधना से पूर्व साधकों को अपने जन्मकालीन ग्रहों का विश्लेषण करवा लेना चाहिए, यह जानने के लिए कि वह साधना में सफल होगा या असफल।
अगर सफल होगा तो किस साधना या उपासना में। बिना सोचे समझे किया गया प्रयास नुकसान पहुंचा सकता है। गुरु व बुध दोनों ग्रह शुभ राशि में स्थित हांे तो व्यक्ति ब्रह्म से साक्षात्कार कर सकने में सफल होता है। दशमेश का शुक्र या चंद्र से संबंध हो तो दूसरों की सहायता से साधना, उपासना में सफलता मिलती है। दशम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो, तो व्यक्ति कैसी भी तांत्रिक क्रिया करे, उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है। दशमेश दो शुभ ग्रहों के बीच हो, तो साधक को साघना के क्षेत्र में सम्मान मिलता है। गुरु श्रेष्ठ हो, तो साकार ब्रह्म उपा¬सना में सफलता मिलती है।
यदि लग्न या चंद्रमा पर शनि की दृष्टि हो, तो सफल साधक हो सकता है। जन्मकालीन कुंडली में सूर्य बली हो, तो शक्ति उपासना करनी चाहिए, यदि चंद्र बली हो तो तामसी उपासना में सफलता मिलती है। यदि लग्नेश पर गुरु की दृष्टि हो, तो तंत्र साधना के साथ मंत्रोच्चारण की भी शक्ति मिलती है। दशमेश शनि के साथ हो, तो व्यक्ति की तामसिक साधना फलदायी होती है। आठवें घर का शनि साधक को मुर्दों की खोपड़ियों को साधना का माध्यम बनाने वाला तांत्रिक बनाता है। यदि केंद्र और त्रिकोण में सभी ग्रह हों, तो जातक प्रयत्न कर साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है।
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