शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तिथि तक नवरात्र व्रत होता है। एक समय जनमेजय ने वेदव्यास जी से पूछा- ”हे द्वि जवर! नवरात्र आने पर क्या करना चाहिए? विशेष रूप से शरत्काल के नवरात्र का क्या विधान है? इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
व्यास जी बोले- ”राजन! शरत्काल और वसंत ऋतु के नवरात्र में मां भगवती की प्रेमपूर्वक विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए। संपूर्ण प्राणियों के लिए ये दोनों ऋतुएं महान कष्टकारी हैं। इनके प्रभाव से बहुत से प्राण् ाी अपने प्राण भी गंवा देते हैं। अतएव इन नवरात्रों के आने पर भगवती चंडी की पूजा आराधना अवश्य करें।
राजन! नवरात्र आने पर श्रद्ध ा व भक्तिपूर्वक मां की पूजा होनी चाहिए। अमावस्या के दिन ही पूजा के निमित्त उत्तमोत्तम सामग्री का संचय करना चाहिए। उस दिन एक ही बार हविष्यांन्न का भोजन करें। किसी समतल भूमि पर मंडप बनवाएं। खंभों और ध्वजाओं से मंडप को सजाकर सफेद मिट्टी और गोबर से उसे लिपवा दें। तदनंतर मंडप के मध्य भाग में एक स्वच्छ, दिव्य एवं ऊंची वेदी बनाएं।
मां भगवती का यही उत्तम आसन होता है। वेदी को चहुं ओर से बंदनवार और चांदनी आदि से सुशोभित करें। हो सके तो यह संपूर्ण नवरात्र पूजन देवी के रहस्य को अच्छी प्रकार जानने वाले सदाचारी, संयमशील एवं सतोगुणी वृत्ति वाले ब्राह्मणों से ही संपन्न कराएं। अमावस्या की रात्रि को ही पूजा के निमित्त ब्राह्मण् ाों को आमंत्रित करें।
प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल व्यवस्थानुसार नदी, सरोवर, बावली, कुआं में या घर पर ही सविधि स्नान करें। प्रतिदिन के प्रातःकाल के जो नियम हों, उन्हें पूर्व में ही पूर्ण कर लें। तदुपरांत ब्राह्मणों का वरण करें। पाद्य, अघ्र्य और आचमनीय से ब्राह्मणों की पूजा श्रेयस्कर है। सामथ्र्यानुसार वस्त्राभूषण और द्रव्यादि वरण में अर्पण करें।
घर में संपत्ति हो तो कृपणता करना अनुचित है। संतुष्ट ब्राह्मणों द्वारा ही सम्यक प्रकार से कार्य संपन्न हो सकता है। आठ भुजाओं वाली भगवती सनातनी की भी प्रतिष्ठा करने का विधान है। भगवती की प्रतिमा के अभाव में नवार्ण मंत्र से लिखे हुए यंत्र को पूजा के लिए पीठ पर स्थापित कर लेना चाहिए।
नंदा तिथि अर्थात प्रतिपदा में हस्त नक्षत्र हो तो उस समय का पूजन उत्तम माना जाता है। उपवास व्रत, एकभुक्त व्रत अथवा नक्त व्रत किसी भी एक व्रत का नियम करने के पश्चात पूजा की व्यवस्था करनी चाहिए। हवन करने के लिए त्रिकोण कुंड बनाना चाहिए अथवा उत्तम वेदी भी बनायी जा सकती है, किंतु वह भी त्रिकोण ही हो।
द्रव्यों से प्रातः, संध्या और मध्याह्न तीनों समय में भगवती की पूजा करें। मधुर भोजनादि से कुमारी कन्याओं की पूजा करनी चाहिए। नौवें दिन नौ कन्याओं का पूजन होना चाहिए। पूजा में एक वर्ष की अवस्था वाली कन्या नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि वह गंध और भोग आदि पदार्थों के स्वाद से बिल्कुल अनभिज्ञ रहती है। कुमारी वही कहलाती है, जो कम से कम दो वर्ष की हो चुकी हो। तीन वर्ष की कन्या को त्रिमूर्ति और चार वर्ष की कन्या को कल्याणी कहते हैं।
पांच वर्ष वाली को रोहिणी, छः वर्ष वाली को कालिका सात वर्षवाली को चंडिका, आठ वर्ष वाली को ‘शांभवी’, नौ वर्ष वाली को दुर्गा और दस वर्ष वाली को सुभद्रा कहा गया है। इससे ऊपर अवस्था वाली कन्या की पूजा नहीं करनी चाहिए। दुख और दारिद्र्य के शमन के लिए कुमारी की पूजा करनी चाहिए। भगवती त्रिमूर्ति की पूजा से त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि मिलती है।
जिस राजा को विद्या, विजय, राज्य एवं सुख पाने की अभिलाषा हो, वह सभी कामनाएं पूर्ण करने वाली भगवती कल्याणी की निरंतर पूजा करे। शत्रु का शमन करने के लिए भगवती कालिका की भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिए। भगवती चंडिका की पूजा से ऐश्वर्य एवं धन की पूर्ति होती है। किसी को मोहित करने, दुख दारिद्र्य को हटाने तथा संग्राम में विजय पाने के लिए भगवती शांभवी की सदा पूजा करनी चाहिए।
किसी कठिन कार्य को सिद्ध करते समय, अथवा यदि दुष्ट शत्रु का संहार करना हो तो भगवती दुर्गा की पूजा करनी चाहिए। मनोरथ की पूर्ति के लिए सुभद्रा की सदा उपासना होनी चाहिए। रोग नाश के लिए रोहिणी की निरंतर पूजा करें।
भक्ति भाव से संपन्न होकर बीज मंत्र से पूजा करने का विधान है। जिसके शरीर में किसी अंग की कमी हो, जिसके अंग में कहीं छिद्र हो तथा जो दुर्गंधयुक्त एवं नीच कुल में उत्पन्न हुई हो, ऐसी कन्या को पूजा में नहीं लेना चाहिए।
जन्म से अंधी, तिरछी नजर से ताकनेवाली, कानी, कुरूपा, बहुत रोमवाली, रोगिणी तथा रजस्वला कन्या का पूजा में परित्याग करें। अपनी माता एवं पिता से उत्पन्न कन्या का ही सम्यक प्रकार से पूजन करना चाहिए।
सभी कार्यों की सिद्धि के लिए ब्राह्मण की कन्या, युद्ध में विजय पाने के लिए क्षत्रिय की कन्या तथा व्यापार में लाभ के लिए वैश्य अथवा शूद्र की कन्या का पूजन करना चाहिए। ब्राह्मण और क्षत्रिय ब्राह्मण की कन्या की पूजा करें। वैश्य के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों की कन्या की पूजा का विधान है।
शूद्र के लिए चारों वर्णों की कन्याएं पूजनीय हैं। शिल्प कर्म करने वाले लोग यथायोग्य अपने-अपने वंश की कन्याओं का पूजन करें। नवरात्र में प्रतिदिन पूजा करने में असमर्थ हों तो अष्टमी के दिन विशेष रूप से पूजन करना परम आवश्यक है। दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करनेवाली भगवती भद्रकाली का अवतार अष्टमी को हुआ था।
उनकी आकृति बड़ी भयंकर थी। उनके साथ करोड़ों योगिनियां थीं। अतएव भांति-भांति के उपहारों, गंध एवं मालाओं द्वारा अष्टमी को विशेष विधान के साथ भगवती की निरंतर पूजा करनी चाहिए। उस दिन हविष्य-हवन, ब्राह्मण भोजन तथा फल-पुष्प का उपहार दान आदि कार्यों से भगवती जगदंबा को प्रसन्न करें। यदि कोई पूरे नवरात्र उपवास व्रत न कर सकता हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी इन तीन रातों में उपवास करके देवी की पूजा करने से सभी फल प्राप्त हो जाते हैं।
देवी पूजन, हवन, कुमारी पूजन और ब्राह्मण भोजन इन चार कार्यों के संपन्न होने से सांगोपांग नवरात्र व्रत पूरा होता है। यह व्रत धन एवं धान्य प्रदान करने वाला, सुख और संतान बढ़ानेवाला, आयु और आरोग्यवर्धक तथा स्वर्ग और मोक्ष तक देने में समर्थ है।
अतएव जिसे विद्या, धन या पुत्र पाने की इच्छा हो, वह मनुष्य इस सौभाग्यदायी मंगलमय व्रत का विधिवत अनुष्ठान करे। विद्या की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को इस व्रत के प्रभाव से सभी विद्याएं सुलभ हो जाती हैं।
जिसका राज्य छिन गया हो, ऐसे नरेश को पुनः गद्दी पर बैठाने की क्षमता इस व्रत में है। भगवती कल्याणस्वरूपिणी हैं। इनका कभी जन्म-मरण नहीं होता। दुख दूर करने में ये सदा तत्पर रहती हैं। सिद्धि प्रदान करनेवाली ये देवी जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।
भगवती चंडिका को मानव क्यों नहीं भजते ? मनु ने कहा है कि इनके ‘स्वाहा’ और ‘स्वधा’ इन नामों का उच्चारण करने से देवता और पितर तृप्त हो जाते हैं। महान से महान पापी भी यदि नवरात्र व्रत कर ले तो उसका उद्धार हो जाता है। एक समय की बात है एक निर्धन वैश्य अत्यंत दुखी था।
कोसल देश के किसी सज्जन ने उसका विवाह भी कर दिया था। उसके बहुत से बाल बच्चे हो गये थे, पर उनकी क्षुधा कभी शांत नहीं होती थी। बड़ी कठिनता से कुटुंब का भरण-पोषण चलता था। परंतु वह सदा धर्म में तत्पर रहता था। उसकी इन्द्रियां शांत थीं। वह बड़ा सदाचारी था। देवताओं, पितरों और अतिथियों की पूजा करने के पश्चात अपने आश्रित जनों को खिलाकर स्वयं कुछ भोजन करता था।
उत्तम गुणों के कारण उसका नाम भी ‘सुशील’ रख दिया गया था। दरिद्रता से अत्यंत घबराकर उस भूखे वैश्य ने एक शांत स्वभाव मुनि से पूछा- ”ब्राह्मणदेवता! तुम्हारी बुद्धि बड़ी विलक्षण है। मेरी दरिद्रता निश्चयपूर्वक कैसे दूर हो सकती है। मुझे धन की इच्छा नहीं है। कुटुंब का भरण-पोषण करने की शक्ति मुझ में आ जाए।
मेरी लड़की विवाह के योग्य हो गई है।“ उस ब्राह्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने वैश्य से कहा - ”वैश्यवर! तुम अब श्रेष्ठ नवरात्र व्रत करो। इसमें भगवती जगदंबा की पूजा, हवन और ब्राह्मण भोजन कराना होगा। भगवान राम राज्य से च्युत हो गए थे। उन्हें सीता का वियोग हो गया था। तब उन्होंने भगवती जगदंबा की विधिवत उपासना की। तब उन्हें जनक नंदिनी सीता प्राप्त हुईं।
भगवान श्रीराम को धरातल पर इस प्रकार की सुख सुविधा इस नवरात्र के प्रभाव से ही सुलभ हुई थी। वैश्य ने उन्हे अपना गुरु बना लिया। नवरात्र में भगवती के मायाबीज मंत्र का वह जप करता रहा।
नौवें वर्ष के नवरात्र में अंतिम अष्टमी के दिन आधी रात के समय भगवती प्रकट हुईं और उन्होंने उस वैश्य को अपने दर्शन दिए। साथ ही विविध प्रकार के वर देकर उसे कृतकृत्य कृत्य कर दिया।
मां भगवती के विशेष मंत्र: ऐं - वाग्बीज मंत्र क्लीं - कामबीज मंत्र ह्रीं -
माया बीज मंत्र शापोद्धार मंत्र: ¬ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा।
उत्कीलन मंत्र: ¬ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु
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