दशाफल का विचित्र नियम
दशाफल का विचित्र नियम

दशाफल का विचित्र नियम  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 13038 | अकतूबर 2007

दशाफल का विचित्र नियम शुक्र में शनि, शनि में शुक्र आभा बंसल कवि कालिदास कृत उत्तर कालामृत के अनुसार शुक्र तथा शनि यदि दोनों उच्च, स्वक्षेत्री, वर्गोत्तम आदि में योगकारक बलवान होकर स्थित हों और एक दूसरे की दशा तथा अंतर्दशा हो तो ऐसे समय में कोई कुबेर समान राजा ही क्यों न हो, भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने वाला (अर्थात निर्धन तथा दुःखी) हो जाता है।

लेकिन यदि उनमें से एक बलवान तथा दूसरा बलहीन हो तो बलवान ग्रह अपने योग का फल देता है। यह सर्वविदित है कि शुक्र व शनि दोनों मित्र हैं। यदि दो मित्र ग्रह उत्तम स्थिति में हों तो अपनी-अपनी दशा व अंतर्दशा में बहुत अच्छा फल देते हैं। यह बात युक्तिसंगत है, किंतु उत्तर कालामृत के अनुसार यदि दोनों ग्रह उच्चस्थ, वर्गोत्तम, स्वक्षेत्री आदि हों तो कुबेर को भी भीख मांगनी पड़ती है। यह सिद्धांत देखने, सुनने में अटपटा लगता है किंतु व्यवहार में काफी खरा उतरता है।

इनकी दशा व अंतर्दशा में किसी एक के निर्बल होने पर ही बली ग्रह अपना शुभ फल देता है। शनि और शुक्र यदि बल रहित हों, लग्न से द्वादश, अष्टम, अथवा षष्ठ स्थान में स्थित हों अथवा इन त्रिक भावों के स्वामी हों या इन त्रिक भावों के स्वामियों से युक्त हों तो दशा अंतर्दशा में शुभ फल, सुख और भोग देने वाले होते हैं। यदि उनमें से एक शुभ भाव का स्वामी हो और दूसरा अशुभ भाव का, तो भी अच्छे योग का फल देते हैं और यदि दोनों महान अशुभ हों तो और भी महान सुख प्रदान करते हैं। यहां इन सभी नियमों की पुष्टि के लिए कुछ कुंडलियों का विश्लेषण प्रस्तुत है।

कुंडली सं. 1 में व्यक्ति को शुक्र की दशा में शनि की अंतर्दशा में भयानक रूप से टाइफाइड हुआ और साढ़े सात माह तक वह रोगग्रस्त रहा जिसके कारण उसे शारीरिक कष्ट के साथ आर्थिक कष्ट भी भोगना पड़ा। इस कुंडली में शनि त्रिकोण भाव में स्थित होकर अपनी अशुभता को खो चुका है। शुक्र द्वादश स्थान में योगकारक बन रहा है। शनि शुक्र की उच्च राशि में बृहस्पति से दृष्ट है। अतः दोनों बली हैं और उन्होंने अपनी दशा अंतर्दशा में जातक को आर्थिक व शारीरिक रूप से कष्ट दिया।

कुंडली सं.2 पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की है। दिसंबर 1976 में उन पर शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा शुरू हुई। शनि केंद्र में बली होकर स्थित है। शुक्र षष्ठ स्थान में चंद्रमा से द्वादश व लग्न से षष्ठ होने के कारण लग्नाधि योग व अनफादि योग कारक है। इसकी दशा अंतर्दशा में इंदिरा जी की चुनावों में जबरदस्त हार, पदच्युति, बदनामी अधिकार हानि, संसद से निष्कासन, मानसिक यातना, गिरफ्तारी व शाह कमीशन का संकट आदि का सामना करना पड़ा। यहां चूंकि शुक्र चंद्र से बारहवें स्थान में है और शुक्र और गुरु के राशि परिवर्तन योग से शुक्र बली हो गया है अतः बल का तारतम्य अधिक होने के कारण अधिक अशुभ फल प्राप्त हुए।

कुंडली सं. 3 के जातक की शुक्र की महादशा तथा शनि की अंतर्दशा नवंबर 1974 से आरंभ होकर दिसंबर 1971 तक चली। इस कुंडली में शनि और शुक्र एक दूसरे से षडाष्टक हैं। शनि कारक होकर अष्टम भाव में अशुभ स्थिति में है और शुक्र षष्ठेश और एकादशेश होकर केंद्र में स्थित है। दोनों ही ग्रहों की स्थिति अकारक है पर इस दशा में जातक जनता द्वारा निर्वाचित होकर प्रथम बार लोक सभा के सदस्य बने अर्थात शनि और शुक्र दोनों के बलहीन होने पर भी शुभ परिणाम मिले।

कुंडली सं. 4 में भाग्येश शुक्र द्वितीय भाव में अपनी उच्च राशि में स्थित है और सूर्य द्वारा अस्त भी नहीं है अर्थात बली है। लग्नेश शनि गुरु के साथ गुरु की राशि में युति बना रहा है। इस जातक को शुक्र की महादशा में शनि की अंतर्दशा में विशेष रूप से कष्टों का सामना करना पड़ा विशेष रूप से इसी अंतर्दशा में पत्नी ने साथ छोड़ दिया।

कुंडली सं. 5 में लग्नेश शनि कारक होकर षष्ठ भाव में प्राकृतिक पाप ग्रह होने के कारण बली होकर बैठा है। शुक्र चतुर्थेश एवं भाग्येश होकर पंचम त्रिकोण स्थान में सूर्य के साथ अत्यंत शुभ स्थिति में है। शुक्र की महादशा एवं शनि की अंतर्दशा में जातका का तलाक हो गया अर्थात् दोनों ग्रहों की शुभ स्थिति ने विपरीत फल दिया।

कुंडली सं. 6 में शुक्र षष्ठेश होकर अपने घर में बलवान होकर बैठा है और शनि तृतीयेश और द्वि तीयेश होकर केंद्र में वक्री होकर स्थित है अर्थात् दोनो ग्रह एक दूसरे से त्रिकोण में हैं और अत्यंत शुभ स्थिति में हंै। शुक्र की महादशा व शनि की अंतर्दशा में जबरदस्त दुर्घटना में जातक विकलांग जैसी स्थिति बन गई।

कुंडली सं. 7 में में नवम, दशम और एकादश भाव अत्यंत बलवान हैं। गुरु और शनि का नवम एकादश का परिवर्तन योग है जिससे शनि अति बलवान हो गया है। शुक्र लग्नेश और षष्ठेश होकर दशम केंद्र में सूय के साथ बली हैं। शनि और शुक्र की अंतर्दशा में जातका को भयंकर लकवा हो गया और वह मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई।

कुंडली सं. 8 में शुक्र तृतीयेश एवं दशमेश और केंद्राधिपति दोष से ग्रस्त होकर तृतीय भाव में स्थित है। शनि षष्ठेश, सप्तमेश और अकारक होकर चतुर्थ भाव में सूर्य व राहु के साथ स्थित है। दोनों ग्रह अशुभ स्थिति बना रहे हैं। परंतु शुक्र की महादशा और शनि की अंतर्दशा में जातक को शुभ फल प्राप्त हुए और अपने क्षेत्र में प्रगति की।

कुंडली सं. 9 में शुक्र पंचमेश एवं द्वादेश होकर लग्न में अत्यंत बलवान होकर शुभ स्थिति में है। शनि पंचम भाव में अपनी उच्च राशि में है अर्थात दोनांे ग्रह अत्यंत शुभ स्थिति में हैं और गुरु द्वारा दृष्ट होने के कारण और बलवान हो गए हैं। इस जातक को शुक्र की दशा एवं शनि की अंतर्दशा में विपरीत फल प्राप्त हुआ। अपने मंत्रालय से जहां एक ओर पदच्युत हुए वहीं केंद्रीय जांच ब्यूरो के छापे के कारण अपयश के भागी भी हुए। किंतु एक अन्य ज्योतिषी राधा अग्रवाल के अनुसार शनि में शुक्र की प्रत्यंतर्दशा ने बली होने पर भी अपेक्षाकृत अच्छे परिण् ााम दिए।

निष्कर्ष: इन सभी जन्मपत्रियों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उत्तर कालामृत का यह सिद्धांत इन पर पूर्ण रूप से लागू हो रहा है। लेकिन फिर भी यह शोध का विषय है कि हमें इस सिद्धांत को जस का तस लागू कर देना चाहिए या नहीं?

विश्लेषण हमेशा ही आवश्यक होता है। ज्योतिष अपने गौरव को तभी प्राप्त करेगा जब ज्योतिषी अपने दृष्टिकोण में वैज्ञानिक आधार को अपनाएंगे। किसी भी सिद्धांत को शत प्रतिशत सही खरा मान लेने की अपेक्षा शोध कार्य भी चलना चाहिए। तभी हम पूरे सिद्धांतों में जरूरी संशोधन कर सकेंगे। इस सिद्धांत के संदर्भ में भी हम वरिष्ठ ज्योतिषी राधा अग्रवाल द्वारा दी गई कुंडली सं. 10 पर विचार करेंगे।

कुंडली सं. 10 के जातक जुलाई 2007 में सेवानिवृत्त हुआ। उसकी सेवा की अवधि तीन वर्ष के लिए बढ़ाई जा सकती थी लेकिन शनि व शुक्र दशा के कारण यह संदेहास्पद भी लग रहा था। शनि इस कुंडली में योगकारक होकर भाग्य स्थान में बली होकर बैठा है। लग्नेश शुक्र भी सप्तम भाव में भाग्येश बुध के साथ बैठकर लग्नेश भाग्येश का राजयोग बना रहा है। गोचर के अनुसार बृहस्पति शुभ स्थान पर स्थित था और व्यवसाय भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा था और शनि भी व्यवसाय भाव में ही स्थित था।

दोनों ग्रहों की स्थिति अत्यंत बली होने के कारण स्थिती काफी डावांडोल लग रही थी परंतु मार्च 2007 में सरकार द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष कर दी गई और जातक को तीन वर्ष की सेवा अवधि के विस्तार का लाभ मिल गया। उनके अनुसार यहां पर उत्तर कालामृत का सिद्धांत लागू नहीं हो सका परंतु इस केस में शनि शुक्र की दशा आरंभ ही हुई है जो अगले तीन वर्ष तक चलेगी। इसलिए इसका निष्कर्ष हमें पूरी दशा बीतने के बाद ही देना चाहिए।

इसके अतिरिक्त यह उस व्यक्ति का व्यक्तिगत भाग्य नहीं था जिसके कारण उसे सेवा अवधि के विस्तार का लाभ मिला बल्कि यह सरकार का निर्णय था और इसका लाभ सभी को मिला। अंत में यही कहना चाहूंगी की उत्तर कालामृत का यह विचित्र सिद्धांत अनेक जन्म पत्रियांे पर खरा उतरता है और शुक्र और शनि की स्थिति (अर्थात् शुभ अथवा अशुभ) विपरीत परिणाम देने में सक्षम होती है।

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