प्रेम विवाह के कुछ योग
प्रेम विवाह के कुछ योग

प्रेम विवाह के कुछ योग  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 19069 | अकतूबर 2007

प्रेम विवाह के कुछ योग विवाह, स्त्री पुरुष की मर्यादापूण्र् ा कामेच्छा पूर्ति व वंशवृद्धि का माध्यम एवं अनुशासित सामाजिक बंधन है। सामान्य परंपरा के रूप में विवाह पारिवारिक जनों की सहमति से अपनी जाति या समूह में होता है। विवाह के पूर्व संबंधित स्त्री पुरुष में प्रेम संबंध अधिकांश मामले में स्थापित नहीं हो पाते हैं क्योंकि उस समय उनके बीच औपचारिक परिचय मात्र ही हो पाता है।

अस्तु विवाह के बाद ही उनमें प्रेम अंकुरित होकर पल्लवित होता है। विवाह के पूर्व संबंधित स्त्री पुरुष के बीच प्रगाढ़ परिचय हो जाने पर उनमें जब प्रेम उत्पन्न हो जाता है और उसकी परिणति विवाह के रूप में होती है तो उस विवाह को प्रेम विवाह के रूप में जाना जाता है।

जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। अस्तु हृदय की भावनात्मक धरोहर अर्थात प्रेम का प्रतिनिधित्व चतुर्थ से द्वितीय अर्थात पंचम भाव से होता है। नवम भाव जातक के धर्म, आस्था एवं भाग्य का प्रतीक है, वहीं यह सामाजिक परंपराओं की प्रतिबद्धता को भी परिलक्षित करता है।

प्रथम भाव जहां जातक का प्रतिनिधित्व करता है वहीं सप्तम भाव उसके जीवन साथी का। पंचम एवं नवम भाव का कारक ग्रह गुरु है। प्रथम भाव का कारक ग्रह सूर्य है और सप्तम भाव का कारक पुरुष के लिए शुक्र व स्त्री के लिए गुरु है।

चंद्रमा मन का प्रतिनिधित्व करता है और मंगल रक्त का। शुक्र कामेच्छा एवं दाम्पत्य जीवन का कारक है। शनि, राहु व केतु विजातीय स्वभाव के पृथकतावादी प्रभाव वाले ग्रह हैं। अस्तु विजातीय अलगाववादी स्वभाव के ग्रह शनि, राहु के प्रभाव से पंचम, सप्तम, नवम भाव या इनके अधिपतियों के दूषित होने पर प्रेम विवाह की प्रबल संभावना बन जाती है।

पंचम एवं नवम भाव के कारक ग्रह गुरु का वक्री (अस्वाभाविक) होकर लग्न व लग्नेश पर प्रभाव डालना भी प्रेम विवाह में सहयोगी होता है। चंद्र, शुक्र, गुरु और मंगल पर अशुभ प्रभाव भी प्रेम विवाह की संभावना को प्रबल करता है। लग्नेश एवं षष्ठ (शत्रु) भाव के अधिपति की युति या उनके बीच दृष्टि सबंध तथा उन पर शुभ प्रभाव का अभाव भी यह स्थिति उत्पन्न करता है।

सूर्य एवं वृहस्पति सात्विक स्वभाव के हैं और मर्यादानुकूल संयमित आचरण की प्रेरणा देते हैं इसलिए प्रेम विवाह की ऊपर वर्णित परिस्थितियों में सूर्य या गुरु का शुभ प्रभाव जातक को अपनी परंपराओं से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करता है जिससे प्रेम विवाह सजातीय व परिवार जनों की सहमति से होता है।

यहां कुछ जन्मकुंडलियों की सहायता से प्रेम विवाह की स्थिति का विश्लेषण प्रस्तुत है। जन्म कुंडली 1 में सप्तम स्थान में शनि विराजमान है जिसकी तृतीय दृष्टि नवम भाव व उसमें स्थित पंचमेश गुरु पर तथा सप्तम दृष्टि लग्न व उसमें स्थित नवमेश व रक्त कारक मंगल पर है।

ग्रह नक्षत्र नक्षत्र स्वामी लग्न पूर्वाफाल्गुनी शुक्र सूर्य मूल केतु चंद्र मृगशिरा मंगल मंगल पूर्वाफाल्गुनी शुक्र बुध(व) मूल केतु गुरु(व) भरणी शुक्र शुक्र अनुराधा शनि शनि शतभिषा राहु राहु मृगशिरा मंगल केतु ज्येष्ठा बुध जन्म के समय मंगल की शेष महादशा 4 वर्ष 4 माह 10 दिन शनि स्वयं राहु के नक्षत्र शतभिषा में है।

पंचम व नवम भाव का कारक गुरु वक्री होकर शु़क्र के नक्षत्र में है। कामकारक शुक्र व मनकारक चंद्र पर राहु व केतु का प्रबल प्रभाव है शुक्र शनि के नक्षत्र अनुराधा में है और उस पर शनि की दशम दृष्टि है। लग्नेश सूर्य द्वितीयेश व एकादशेश वक्री बुध के साथ पंचम भाव में है जिस पर वक्री गुरु की नवम दृष्टि है। लग्नेश सूर्य स्वयं केतु के नक्षत्र में है। नवमांश में भी लग्न, पंचम, सप्तम, नवम पीड़ित है।

पंचम भाव में केतु, नवम भाव पर केतु की पंचम दृष्टि, नवमेश चंद्र की राहु के साथ युति, लग्न में मंगल व वक्री गुरु की स्थिति व सप्तम भाव पर उनकी और राहु की नवम दृष्टि है।

इस प्रकार जातका के लग्न, पंचम, सप्तम, नवम एवं उनके अधिपतियों तथा चंद्र, शुक्र, गुरु और मंगल पर शनि, राहु व केतु के अशुभ प्रभाव से प्रेम विवाह की स्थिति उत्पन्न हुई। गुरु व सूर्य स्वयं अशुभ प्रभाव में हैं और उनका शुभ प्रभाव भी संबंधित भावों पर नहीं है जिससे अंतर्जातीय प्रेम विवाह के हालात बने।

फलस्वरूप शनि की महादशा प्रारंभ होने पर इस बंगाली जातका ने एक पंजाबी युवक से प्रेम विवाह किया। जन्मकुंडली 2 में लग्नेश एवं चतुर्थेश गुरु वक्री होकर सप्तम स्थान में और राहु के नक्षत्र आद्र्रा में है। लग्न केतु के मूल नक्षत्र में है। मनकारक चंद्र भी राहु व केतु के प्रबल प्रभाव में है।

जन्म के समय सूर्य की शेष महादशा 2 वर्ष 6 दिन यहां पंचमेश मंगल अष्टम स्थान में नीच का है और शनि के नक्षत्र पुष्य में है। नवम भाव में शनि स्वयं विराजमान है और केतु के नक्षत्र मघा में है। केतु स्वयं चतुर्थ भाव में होकर गृहस्थ जीवन के विजातीय होने का संकेत दे रहा है।

नवमेश सूर्य नीच राशि का होकर एकादश भाव में शुक्र के साथ वक्री गुरु के नक्षत्र विशाखा में है और इन पर शनि की तृतीय दृष्टि है। सप्तमेश बुध द्वादश भाव में शनि के नक्षत्र अनुराधा में है। नवमांश में भी सप्तमेश वक्री गुरु अष्टम भाव में केतु के साथ है, चंद्र पर राहु की नवम दृष्टि है, नवम भाव पर शनि की दशम दृष्टि हैं इस प्रकार सभी संबंधित भाव एवं ग्रह शनि, राहु और केतु के प्रभाव में इस जन्म कुंडली में है।

फलस्वरूप इस तमिल जातका ने एक मुस्लिम युवक से प्रेम विवाह किया और यह राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा में संपन्न हुआ। जन्म कुंडली 3 एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने प्रेम विवाह तो किया किंतु वह सजातीय एवं जन्म के समय केतु की शेष महादशा 6 वर्ष 6 माह 7 दिन यहां लग्न भाव (सप्तम से सप्तम) में गुरु शनि के नक्षत्र शतभिषा और उसी की राशि मकर में स्थित होकर पाप ग्रहों मंगल, केतु, व शनि के बीच में होने से पापकर्तरी योग से पीड़ित है।

मनकारक चंद्र केतु के अश्विनी नक्षत्र में है तथा तृतीय भाव में सूर्य के साथ होने से अस्त है और उसकी राशि कर्क राहु, केतु व शनि से पीड़ित है। कामकारक एवं नवमेश शुक्र व बुद्धिकारक पंचमेश बुध, जो कि सुख (चतुर्थ) भाव में स्थित है, पर केतु की पंचम दृष्टि है। पंचम भाव पर मंगल की चतुर्थ दृष्टि व नवम भाव पर उसकी अष्टम दृष्टि है। नवमांश में भी शनि लग्न में स्थित होकर सप्तम भाव को देख रहा है जहां मंगल भी विराजमान है।

इस प्रकार इस जन्म कुंडली में लग्न, पंचम, सप्तम व नवम भाव एवं उनके अधिपतियों पर विजातीय ग्रह राहु, केतु व शनि का प्रभाव होने से प्रेम विवाह की स्थिति बनी। सूर्य के उच्च राशि मेष में स्थित होने तथा देवगुरु बृहस्पति की पंचम, सप्तम व नवम पर दृष्टि पड़ने से यह प्रेम विवाह मर्यादित रहा अर्थात सजातीय एवं परिवार जनों की सहमति से संपन्न हुआ।

जन्म कुंडली 4 एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने अंतर्जातीय प्रेम विवाह किया किंतु वह असफल रहा और उसकी परिणति तलाक में हुईं। ग्रह नक्षत्र नक्षत्र स्वामी लग्न चित्रा मंगल सूर्य भरणी शुक्र चंद्र पूर्वाफाल्गुनी शुक्र मंगल कृत्तिका सूर्य बुध कृत्तिका सूर्य गुरु मघा केतु शुक्र अश्विनी केतु शनि रेवती बुध राहु रेवती बुध केतु चित्रा मंगल जन्म के समय शुक्र की शेष महादशा 11 वर्ष 11 माह 17 दिन।

यहां पंचमेश शनि सप्तम भाव में राहु व केतु के प्रबल प्रभाव में है। पंचम और नवम भाव के कारक तथा सप्तमेश गुरु स्वयं केतु के नक्षत्र में होकर द्वादश भाव में चंद्र के साथ स्थित है जिन पर मंगल की चतुर्थ दृष्टि है। मंगल अष्टमेश व तृतीयेश होकर लग्नेश बुध के साथ नवम भाव में है और उन पर केतु की नवम दृष्टि है।

नवांश में भी सप्तम भाव में नीच का बुध है, पंचमेश शनि षष्टम भाव में मंगल राहु के साथ है, सप्तमेश गुरु अष्टम भाव में है और चंद्र केतु के साथ है। इस प्रकार मंगल, शनि, राहु व केतु की यह स्थिति अंतर्जातीय प्रेम विवाह की द्योतक है।

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