श्री गिरिराज व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ‘ब्रजवासी’ श्रीगिरिराज व्रत एक ऐसा महान, दिव्य, पावन एवं कल्याणकारी व्रत है, जिसके पालन से मानव असंभव से असंभव कार्य एवं कामना को पूर्ण करने में सफल हो सकता है। वैसे तो इस व्रत का पालन मास की किसी भी पूर्णिमा से प्रारंभ किया जा सकता है, परंतु वैशाख शुक्ल, आषाढ़ शुक्ल या कार्तिक शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से प्रारंभ करने पर विशेष फलों की प्राप्ति सहज ही होती है। यह व्रत जिस पूर्णिमा से शुरू होता है आगे आने वाली उसी पूर्णिमा पर उद्यापन के साथ पूर्ण भी होता है। इस व्रत पूर्णिमा से एक दिन पूर्व चतुर्दशी तिथि को संकल्प लेना होता है कि हे गिरिराज महाराज! मैं (अमुक), गोत्र, वंशादि में उत्पन्न हुआ (अमुक) कामना की सिद्धि के लिए (अमुक) मास की पूर्णिमा से आपकी प्रदक्षिणा एवं पूजा करूंगा। आप सर्वेश्वर पूर्ण परब्रह्म हैं, आप मेरी मनोकामना को पूर्ण करें। पुनः पूर्णिमा को उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपदांतर्गत श्री गोवर्धनधाम में पधारकर श्री गिरिराज महाराज की संकल्प और पूर्ण विधि-विधान के साथ पूजा आरधना कर अपनी आकांक्षा श्री गिरिराज को निवेदन कर सात कोस की प्रदक्षिणा को पूर्ण करें। इसके विशेष नियम इस प्रकार हैं। 1. पूर्णिमा तिथि की संज्ञा प्रातःकाल सूर्योदय से अगले दिन के प्रातःकाल तक की है। यदि प्रातःकाल से मध्याह्न तक पूर्णिमा तिथि हो और तदुपरांत प्रतिपदा का प्रवेश हो, तो उसे पूर्णिमा तिथि के स्वरूप ही जानना चाहिए। इसी प्रकार पूर्णिमा तिथि सूर्योदय काल से ही प्रति मास विचार कर प्रदक्षिणा पूर्ण करें। 2. परिक्रमा से पूर्व स्नानादि कृत्यों से शरीर को पवित्र करें। 3. परिक्रमा से पूर्व गिरिराज जी का पूजन विधि-विधान से करें एवं परिक्रमा समाप्ति पर भी पूजन कर कम से कम एक सद्गृहस्थ ब्राह्मण दम्पति को मिष्टान्नादि का भोजन कराकर द्रव्य दक्षिणा देकर उनके चरणों में प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करें। ऐसा प्रतिमास करें। व्रत की पूर्णता पर ग्यारह ब्राह्मणों को सपत्नीक भोजन कराकर वस्त्र व द्रव्य दक्षिणा से संतुष्ट कर उन्हें प्रणाम कर उनका मंगलमय आशीर्वाद प्राप्त करें। अपनी मनोकामना को मन ही मन श्री गिरिराज महाराज एवं ब्राह्मणों के श्री चरणों में निवेदन करें। याद रहे यदि किसी भी पूर्णिमा को आप व्रत का पालन करने में असमर्थ रहे तो व्रत भंग हो जाएगा। अतः यह विशेष ध्यान रखें कि वर्षभर की प्रत्येक पूर्णिमा को व्रत का पालन हो। 4. परिक्रमा के समय जूते चप्पल न पहनें। पैदल परिक्रमा लगाएं, किसी वाहन से परिक्रमा न करें। 5. परिक्रमा जिस स्थान से प्रारंभ करें, वहीं पूर्ण करें। प्रारंभ और पूर्ण करने के लिए गोवर्धन में मानसी गंगा पर स्थित श्रीगिरिराज मंदिर, दानघाटी मंदिर एवं जतीपुरा में श्री गिरिराजमुखारविंद विशेष प्रषस्त हैं। वैसे किसी भी स्थान से प्रदक्षिणा प्रारंभ की जा सकती है और वहीं उसे पूर्ण भी करना चाहिए। 6. परिक्रमा मार्ग में दाईं तरफ मूल-मूत्रादि का त्याग न करें। करना ही हो तो बाईं ओर करें एवं इंद्रियों का शुद्ध जल से प्रक्षालन करें। दीर्घशंका से निवृत्त होने पर स्नान अवश्य करें। 7. परिक्रमा वाले दिन रात्रि में पृथ्वी पर ही शयन करें। असत्य, अप्रिय भाषण न करें, किसी की निंदा, चुगली न करें। परिक्रमा के समय ‘श्रीकृष्ण शरणम् मम्’ ‘श्रीराधाकृष्ण के लै चरण श्री गिरिराज जी की गह शरण’, ¬ नमो भगवते वासुदेवाय, ¬ नमो नारायण या हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे का जप करें। यथासंभव मौन रहें। अकेले रहकर ही प्रदक्षिण करें। मन को पवित्र रखें। 8. कुंडों, सरोवरों में आचमन लें, वरुण देव एवं देवमंदिरों में देवताओं के दर्शन कर साष्टांग प्रणाम करें। 9. यथाशक्ति अभ्यागतों, अतिथियों को व देव स्थानों में दान करें। 10. किसी से निःशुल्क सेवा का लाभ न लें। 11. दातुन या अन्य प्रयोजन हेतु हरे-भरे वृक्षों को न तोड़ें। 12. ब्रजरज को मस्तक के साथ साथ शरीर के विभिन्न अंगों व मुख में धारण अवश्य करें और ब्रजरज में लोट लगाएं। 13. श्रीगिरिराज महाराज के चरित्रों का श्रवण करें। श्री गिरिराज महाराज अवतरण कथा चरित्रा - प्रथम एक समय ब्रजराज श्री कृष्ण चंद्र के कुल पुरोहित महात्मा गर्गाचार्य जी महाराज अपने आश्रम में भक्तजनों के बीच विराज कर धार्मिक प्रवचन कर रहे थे। उसी समय अनेक भक्तों ने हाथ जोड़कर श्री गर्गाचार्य जी से प्रार्थना की कि हे महाराज! आज हमें आप देवों के देव श्री गोवर्द्धन नाथ के अवतरण, उनकी महिमा और माहात्म्य बताने की कृपा करें, हमारी सुनने की बड़ी इच्छा है। भक्तों की इस विनीत वाणी को सुनकर दया के सागर महात्मा गर्गाचार्य जी गद्गद हो गए, प्रेम और भक्ति के कारण उनके नेत्रों में अश्रु भर आए। बोले- सौभाग्यशाली भक्तगणो! तुमने जो प्रसंग प्रस्तुत किया है उससे मैं अति प्रसन्न हूं। श्री गिरिराज गोवर्द्धन तो देवों के देव हैं, उनके नाम के स्मरण करने से ही अलौकिक आध्यात्मिक शांति मिलती है, वह दीनों के रक्षक और भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाले हैं। आप ध्यान देकर सुनिए। ब्रह्मांड में मुत्यु लोक और मृत्युलोक में केवल भरतखंड अर्थात् भारत वर्ष ही ऐसी पवित्र भूमि है, जिसे कर्मभूमि कहते हैं। यहां पर परब्रह्म परमेश्वर स्वयं अवतार लेकर आते हैं। और ब्रज मंडल तो साक्षात गौलोक धाम है जिसमें भ्रमण करने के लिए देवता भी सदैव इच्छुक रहते हैं। श्री गिरिराज गोवर्द्धन ब्रज मंडल के हृदय हैं जहां श्रीकृष्ण ने बाल लीलाएं करके भक्तों को आनंदित किया था। नंदलाल ने श्री गिरिराज का अपने हाथों से अभिषेक किया और ब्रज वासियों से पुजवाया। इनकी अवतरण कथा इस प्रकार है। भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में शाल्मली द्वीप है, जहां पर्वतराज श्री द्रोणाचल के गृह में उनकी पत्नी के गर्भ से श्री गोवर्द्धन का जन्म हुआ। जन्म के समय देवताओं ने पुष्प वर्षा कर श्री गोवर्द्धन की जय जयकार की। कुछ समय पश्चात् एक दिन मुनि पुलस्त्यजी द्रोणाचल के गृह पधारे, जहां श्री गोवर्द्धन के सुंदर रूप को देखकर मुनि के हृदय में इच्छा हुई कि यदि गोवर्द्धन मुझे मिल जाए, तो इन्हें मैं काशी ले जाऊं और इनकी शांत कंदराओं में बैठकर निर्विघ्न तपस्या करूं। मुनि ने अपने मन की बात जब द्रोणाचल से कही तो वह बड़े दुखी हुए और नेत्रों में अश्रु भरकर बोले- ‘मुनिवर! मेरा पुत्र गोवर्द्धन मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारा है। मैं इसके बिना जीवित नहीं रह सकूंगा।’ किंतु मुनि के हठ और श्राप के भय से उन्होंने दुखित हो गोवर्द्धन को मुनि के साथ भेजना स्वीकार कर लिया। श्री गोवर्द्धन मुनि से बोले - ‘हे मुनिवर! आप मेरी इस विशाल देही को किस प्रकार ले चलेंगे? मुनि बोले- ‘हे पुत्र! तुम मेरे दाएं हाथ की हथेली पर बैठो, मैं योग बल से तुम्हें काशी ले चलूंगा।’ श्री गोवर्द्धन बोले- ‘मुनि राज! आप मुझे जहां भी उतार देंगे मैं वहीं रह जाऊंगा। मेरी इस इच्छा की आप पूर्ति करें तो मैं आपके साथ चलने को तैयार हूं।’ महात्मा पुलस्त्यजी ने बचन दे दिया। गोवर्द्धन माता-पिता के चरणों में नमस्कार कर सूक्ष्म रूप धारण कर मुनि की हथेली पर बैठकर चल दिए, चलते-चलते मार्ग में जब ब्रज मंडल आया तो उसकी अद्भुत छटा पर श्री गिरिराज जी मोहित हो गए, सोचने लगे कि द्वापर में यहां भगवान श्रीकृष्ण के रूप में