जब उर्मिला ने साधना की... साधना से व्यक्ति के व्यक्तित्व और शक्ति में निखार आता है। कहते हैं, मन साधे सब सधै। लक्ष्मण-पत्नी उर्मिला ने भी अपने मन को साधा। माता उर्मिला का यह प्रसंग समस्त मानव जाति के लिए प्रेरक है। श्री हनुमानजी ने संजीवनीमय पवर्त-खंड उठाने से पहले अत्यंत उत्साह तथा उमंग से परिपूर्ण होकर उसकी सादर परिक्रमा की। फिर जैसे ही उसे उठाने के लिए कुछ नीचे झुके, वैसे ही धरातल ने उस पर्वत-खंड को अपने बंधन से मुक्त कर दिया। संजीवनी पर्वत हनुमानजी के स्वरूप के अनुसार ही एक सीमित आकार का बनकर उनके बाएं हाथ पर स्थित हो गया। हनुमान जी की उंगलियों ने उसे प्रेमपूर्वक अपनी पकड़ में ले लिया। दाएं हाथ की गदा कंधे पर रखें वे जब ऊपर उठे, तब दिव्य गंधमय पुष्पों की वर्षा होने लगी तथा चारों ओर से मंगल-ध्वनि होने लगी। हनुमानजी पर्वत सहित ऊध्र्वगामी होकर संकल्प मात्र से वायु देव के 48 स्वरूपों को पार करके 49 वें स्वरूप पर पहुंच गये। वायु देव का यह स्वरूप शून्याकाश से ऊपर दिव्याकाश विराजमान है। यहां से सभी दिशाओं की सभी वस्तुएं संकल्प करते दृष्टि गोचर होने लगती हैं। किंतु इसके लिए व्यक्ति का पराशक्ति संपन्न होना नितांत आवश्यक है। सहसा अयोध्यापुरी देखकर उनके मन में इच्छा जागृत हुई कि अपने प्रभु की नगरी और उनके परिवार जनों का दर्शन किया जाए। समस्त सिद्धियों के स्वामी श्री हनुमानजी के मन में कोई इच्छा जगे और वह पूर्ण न हो, ऐसा नहीं हो सकता। उन्होंने कुछ विचार किया, फिर संजीवनी पर्वत को वायु देव के 49वें स्वरूप में स्थापित करके स्वयं अदृश्य रूप में नीचे उतारे। प्रभु श्रीराम की पुरी अयोध्या को ‘रां’ बीज मंत्र द्वारा कीलित (रक्षित) देखकर हनुमानजी को रोमांच हो आया। पुरी की चतुर्दिक सीमा ऐसी दिव्य तरंगों से लिपटी थी, जिन्हें कोई दुष्ट भाव का प्राणी पार नहीं कर सकता था। सबसे पहले हनुमानजी ने हाथ जोड़कर नंदीग्राम सहित पूरी अयोध्या की परिक्रमा की। फिर नंदीग्राम की एक कुटी में खिड़की से झांक कर देखा, तो आश्चर्य में डूब गए। वे सोचने लगे कि मेरे प्रभु लंका से यहां कैसे आ गए और किसका ध्यान कर रहे हैं। किंतु सामने के सिंहासन पर स्थापित चरण पादुकाओं पर जब उनकी दृष्टि गई, तब वे समझ गए कि ध्यान में मग्न श्रीराम के छोटे भाई भरत जी हैं, जो रूप-रंग में उन्हीं के समान हैं। भरत जी के शील-गुण की प्रशंसा श्रीराम से अनेक बार हनुमान जी सुन चुके थे। उन्होंने मन ही मन भक्ति पूर्वक भरत जी को प्रणाम किया और अयोध्या के राज प्रसादों की ओर बढ़ गए। अर्द्धरात्रि का समय था, सभी सो रहे थे। कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकयी माताओं को हनुमानजी ने शयन करते देखा। यद्यपि वे सब सो रहीं थीं, किंतु सोते समय भी उनके मुख-मंडलों पर श्रीराम के वियोग की वेदना स्पष्ट झलकती थी। हनुमान जी को अपनी माता अंजना का स्मरण हो आया और उनके नेत्र कुछ सजल हो गए। भिन्न-भिन्न भवनों में जाने पर उनका ध्यान एक विशेष बात की ओर गया। उन्होंने देखा कि बड़ी माता कौशल्या के पलंग पर ही, पैरों की ओर भरत पत्नी मांडवि इस प्रकार लेटी थी, मानो चरण-सेवा करते-करते सो गयी हों। ठीक यही स्थिति शत्रुघ्न-पत्नी श्रुतकीर्ति की माता सुमित्रा के पलंग पर थी। केवल माता कैकयी अपने पलंग पर अकेली थीं। हनुमानजी विचार करने लगे कि घर में एक राजबहू उर्मिला और भी हैं, फिर माता कैकयी अकेली क्यों? क्या उनकी उपेक्षा की जा रही है? ऐसी जिज्ञासा होने पर हनुमान जी ने नेत्र बंद करके ध्यान लगाया तो पूर्व-घटित सारा दृश्य संवाद-सहित उनके सामने प्रत्यक्ष हो गया। भरत जी मांडवी से कह रहे थे, ‘‘प्रिये! मेरी बात पर गंभीरता से विचार करना कुछ अन्यथा नहीं समझना। मैंने यह निश्चय किया है कि रघुकुल भूषण प्रभु श्रीराम के आने तक मैं नंदीग्राम में कुटी बनवाकर तपस्वी-जीवन व्यतीत करूंगा। यदि आवश्यकता हुई, तो राज-कार्य भी वहीं रह कर करूंगा। तुम्हारा वहां आना मुझे स्वीकार नहीं होगा। यदि तुम मेरी साधना की सफलता चाहती हो, तो वहां कभी मत आना।’’ मांडली बोली, ‘‘आप निश्चित रहें नाथ! मैं आपकी आज्ञा का पूर्णतः पालन करूंगी। पत्नी वही जो पति के अनुकूल चले। मैं अपना सारा समय आपकी माता जी की सेवा में व्यतीत करूंगी। वैसे भी, सास-ससुर की सेवा पति-सेवा की अपेक्षा अधिक पुनीत कही गई है।’’ भरत जी मांडवी के उŸार से बहुत संतुष्ठ तथा प्रसन्न हुए। मांडवी ने छोटी रानी कैकयी के पास जाकर सब कुछ निवेदन कर दिया। कैकयी एक लंबी सांस खींचकर बोलीं, ‘‘बहूरानी! सदा सुखी रहो, तुम्हारा सुहाग अटल रहे। तुम्हारी सेवा को मैंने मन से स्वीकार कर लिया। किंतु भरत की तरह मैंने निश्चय किया है कि जब तक मेरा प्यारा बेटा राम वापस नहीं आ जाएगा, तब तक मैं किसी की सेवा न लेकर अकेले ही आत्मग्लानि में झुलसती रहूंगी। मेरी आज्ञा है कि तुम दŸाचिŸा होकर अपनी बड़ी माता महारानी कौशल्या की सेवा करो।’’ कुछ दुखी होते हुए मांडवी बोली, ‘‘माताजी! यह मेरा दुर्भाग्य है कि आपकी सेवा का अवसर मुझे नहीं मिल रहा है। किंतु आपकी आज्ञा का पालन करना मेरे लिए संतोष का विषय होगा। अब मैं बड़ी माता जी की सेवा में ही रहूंगी।’’ मांडवी महारानी कौशल्या के भवन की ओर चली गई। पुत्र-वियोग के कारण जीवन के प्रति कौशल्या की कोई रुचि या ममता नहीं रह गई थी। वे एक वीतराग का सा जीवन जी रही थीं। उनके पास आकर कोई कुछ कहता, तो वे ‘हां’ ठीक है कह देती थीं। जब मांडवी ने जाकर सभी बातें क्रम से कहीं, तब भी कौशल्या ने कह दिया, हां ठीक है।’ बस, तभी से मांडवी रात-दिन उनके पास रहने लगी। इन सारी बातों का पता जब शत्रुघ्न और श्रुतिकीर्ति को लगा, तब वे परस्पर एक-दूसरे की ओर दो क्षण देखते रहे। फिर शत्रुघ्न ने कहा, ‘‘प्रिये! तुम विवेकशील हो। बताओ, ऐसी परिस्थित में हमें क्या करना चाहिए?’’ श्रुतकीर्ति ने उŸार दिया, ‘‘हमें किसी को यह कहने का अवसर नहीं देना चाहिए कि आपके दो बड़े भाई पत्नी-सुख त्याग कर सेवा-साधना में लगे हैं और आप पत्नी-सुख भोग रहे हैं। इसलिए आप मुझे आज्ञा दीजिए नाथ कि मैं अब सदैव माताजी की सेवा में संलग्न रहूं। किसी आवश्यक कार्य से आप जब भी दासी को स्मरण करेंगे, मैं उपस्थित हो जाऊंगी।’’ शत्रुघ्न ने प्रसन्न होकर कहा, ‘‘प्रिये! मुझे तुमसे यही आशा थी। परम विवेक महाराज जनक के कुल के अनुरूप ही तुमने समस्या का समाधान उपस्थित कर दिया। ‘‘और उसी दिन से श्रुतिकीर्ति सुमित्रा देवी की सेवा में लीन रहने लगी। इन नई व्यवस्थाओं के संबंध में जब श्रुतिकीर्ति ने लक्ष्मण-पत्नी उर्मिला को सब कुछ बताया, तब उर्मिला कुछ मुदित भाव से बोली, ‘‘भगवान जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं। मैंने विचार किया था कि 14 वर्षों की अवधि में व्यक्तिगत कुछ विशेष साधना करूं। फिर सोचा, माताओं की सेवा मेरा प्रथम कर्तव्य है। किंतु भगवान की दया से समस्या अपने आप सुलझ गई। बड़ी माताजी की सेवा का भार मांडवी जीजी ने ले लिया है, मंझली माता की सेवा तुम कर रही हो और छोटी माताजी ने किसी की सेवा लेना अस्वीकार कर दिया। तब तो मुझे अवकाश ही अवकाश हैं फिर मैं अपनी साधना की अभिलाषा क्यों न पूरी करूं?’’ और उर्मिला अपनी विशिष्ट साधना में पूरे मनोयोग से जुट गई। दृश्य समाप्त हो गया। हनुमान जी ने मन ही मन कहा कि प्रभु श्री राम के वियोग में उनका पूरा परिवार योगी-तपस्वी हो गया। फिर उन्होंने सोचा कि चलकर देखना चाहिए, देवी उर्मिला की साधना कहां तक पहुंची। अतः वे उर्मिला के भवन की ओर चल पड़े। यद्यपि भवन का द्वार बंद था और बाहर दो दासियां पहले पर बैठी थीं, किंतु इन अवरोधों का हनुमान जी पर क्या प्रभाव पड़ता। वे सूक्ष्म रूप से भीतर प्रवेश कर गए। कई कक्षों से होकर जब वे गर्भगृह में पहुंचे, तो वहां का दृश्य देखकर चकित रह गए। एक उच्च पीठासन पर मनोहर दीपक प्रज्वलित है, जिसके दिव्य प्रकाश से साराकक्ष आलोकित हो रहा है। उसी दीपक के नीचे ललित चुनरी कलात्मक ढंग से तह की हुई रखी है। संजीवनी पर्वत पर दिव्य पुष्पों की जो सुगंध थी, वही सुगंध पूरे गर्भगृह को सुवासित किये हुए थी। हनुमान जी अभी विस्मय से उबर भी नहीं पाए थे कि उन्हें नारी-कंठ की ध्वनि में सुनाई पड़ा, ‘‘आइए हनुमानजी! आपका स्वागत है। तब उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि यह ध्वनि देवी उर्मिला की है। हनुमानजी अत्यंत विनम्र होकर बोले, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है देवी कि आपकी
। साधना पूर्ण रूपेण सफल हो गई, तभी आपने मुझ अदृश्य को देख लिया और पहचान भी लिया। अब आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे आदर सूचक शब्दों से संबोधित न करें, पुत्र या वत्स कहें। माता सीताजी ने मुझे अनेक बार सुत ओर वत्स कहा है। आप उनकी लघु भगिनी हैं। अतः आप भी मेरी माता तुल्य हैं। मेरी दूसरी प्रार्थना यह भी है कि आप अपना दर्शन देकर मुझ दास को कृतार्थ करने की कृपा करें। उŸार में फिर ध्वनि सुनाई पड़ी, ‘‘अच्छी बात है वत्स पवन कुमार! तुम्हारे सामने आने में मुझे कोई आपŸिा नहीं है।’’ और फिर बगल के कक्ष का द्वार खुला। उसी समय एक अद्भुत घटना हुई। प्रज्वलित दीपक की शिखा (लौ) बढ़कर द्वार तक गई और गर्भगृह में पदार्पण करती हुई उर्मिला के मुख मंडल को आलोकित करती हुई उसी के साथ-साथ चलती रही। उर्मिला जब दीपक के पास आकर खड़ी हो गई, तब शिखा भी अपनी सामान्य शिखा में समाहित हो गई। यह सब देखकर हनुमान जी भाव-विभोर हो गए। वे हाथ जोड़कर बोले, ‘‘माता! आप-जैसी तपस्विनी का दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। अयोध्या में मेरा आना पूर्णतः सार्थक हुआ। अब आप मुझे आज्ञा और आशीर्वाद दें। मुझे शीघ्र लंका पहुंचना है।’’ उर्मिला ने गंभीरता पूर्वक कहा, ‘‘मुझे सब पता है हनुमान! मेरे पति देव, मेघनाद द्वारा प्रहार की गई वीरघातिनी शक्ति से मूर्छित हो गए हैं। उन्होंने शबरी के जूठे बेरों की अपेक्षा की थी, जो अत्यंत भक्ति-भाव से अर्पित किए गए थे। अब उन्हीं बेरों के परिवर्तित रूप से आपके द्वारा सिंचित संजीवनी उनकी मूच्र्छा दूर करेगी। यही उनका प्रायश्चित होगा। तुम्हारे इस महान कार्य का एक दूसरा परिणाम यह भी हुआ है कि तुम ने बेर की पŸिायों का जो 84$33=117 तांत्रिक प्रयोग किया है, उसने रावण के तांत्रिक प्रयोगों का निराकरण कर दिया है। यह कार्य तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता था।’’ हनुमानजी हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक बोले, ‘‘मैंने कुछ नहीं किया माता जी, सब कुछ प्रभु श्रीराम की कृपा से हुआ है। उर्मिला ने कहा, ‘‘यह सत्य है कि सब कुछ उन्हीं की कृपा से होता है, किंतु तुम भी साधारण व्यक्ति नहीं हो। मैं जानती हूं, तुम भगवान शंकर के ग्यारहवें रुद्र के अवतार हो। अतः तुम साक्षात शंकर ही हो। भविष्य में भी तुम इसी हनुमान रूप में भक्तों की सभी कामनाएं पूर्ण करते रहोगे। अब जाओ वत्स! आगे का कार्य भी निर्विघ्न रूप से संपन्न्ा करो, यही मेरा आशीर्वाद है।’’ हनुमानजी प्रसन्न्ा होकर बोले, ‘‘आपका आशीर्वाद अवश्य फलीभूत होगा। आपकी साधना महान है। आपने सर्वज्ञता की सिद्धि भी प्राप्त कर ली है। अच्छा माताजी! दास का प्रणाम स्वीकार करें।’’ उर्मिला ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में अपना दाहिना हाथ उठाया और हनुमानजी ‘जय श्रीराम’ कहकर अदृश्य हो गए। भवन के बाहर आकर वे ऊपर की ओर उछले और पलक झपकते ही आकाश में बहुत ऊपर हो गए।