मृत्यु भय से मुक्ति दिलाए महामृत्यंुजय मंत्र पं. नरेंद्र रुद्र महामृत्युंजय मंत्र के जप से मृत्यु पर विजय पाई जा सकती है। यह बात सुनने में कुछ अचरज भरी मालूम पड़ती है, पर ऐसे सैकड़ों वृत्तांत हैं जिनसे इस मंत्र की क्षमता सिद्ध होती है। अत्र शास्त्र में गुरु से दीक्षा लेकर ही मंत्र जप करने का विधान है। दीक्षा के बिना सफल होने में अत्यधिक समय लगता है या सफलता मिलने में संदेह होता है। इस अति भौतिकतावादी युग में धैर्यपूर्वक दीक्षा लेने वाले एवं मंत्र साधना करने वाले लोग कम हैं। यदि विधिपूर्वक मंत्र का जप किया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। यदि उचित गुरु से मंत्र दीक्षा संभव न हो, तो जप से पूर्व एक कागज पर शुद्ध मंत्र लिखकर अपने इष्टदेव को समर्पित करें और उन्हें प्रणाम कर पूर्ण श्रद्धा से ग्यारह बार इस तरह पाठ करें मानो साक्षात सामने गुरुजी को सुना रहे हों। इससे मंत्र दीक्षा पूर्ण होती है। उसके बाद जप आरंभ करना चाहिए। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु अनेक देवी-देवताओं के मंत्रों की आराधना की जा सकती है। गंभीर रोगों एवं मृत्यु तुल्य कष्टों के निवारणार्थ या ईश्वर प्राप्ति हेतु महामृत्युंजय मंत्र का विधिपूर्वक जप करना चाहिए। महामृत्यंुजय मंत्र मंत्रों में राजा है। यह मृतसंजीवनी मंत्र है। इसे रोगनाशक व शांतिदायक मंत्र भी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि मृत्युंजय मंत्र जप से रोगशय्या पर पड़ा रोगी शीघ्र रोगमुक्त हो जाता है। रोग या अनिष्ट की आशंका होने पर इस मंत्र का जप स्वयं भी किया जा सकता है। महामृत्युंजय यंत्र का चित्र लगाकर इस मंत्र का जप सवा लाख की संख्या में पैंतालीस दिन में पूरी निष्ठा एवं पवित्रता से किया जाए, तो रोगी को निश्चित रूप से लाभ मिलता है। शिव पुराण में इस मंत्र का बहुत ही सुंदर वर्णन मिलता है। प्राचीन काल में क्षुव नामक एक महातेजस्वी राजा हुए, जो च्यवन ऋषि के पुत्र दधीचि के मित्र थे। इन दोनों में किसी प्रसंग पर विवाद हुआ जो तीनों लोकों में महा अनर्थकारी सिद्ध हुआ। उस विवाद में वेद के विद्वान शिवभक्त दधीचि ने चारों वर्णों में ब्राह्मण को श्रेष्ठ बताया। इस पर धन-वैभव के मद से मोहित राजा क्षुव ने प्रतिवाद कर कहा, ‘‘क्षत्रिय (राजा) समस्त वर्णों और आश्रमों के पालक एवं प्रभु हैं। इसलिए राजा ही श्रेष्ठ है। इसलिए मैं सर्वथा आपके लिए पूजनीय हूं।’’ राजा क्षुव का यह मत श्रुतियों और स्मृतियों के विरुद्ध था। इसे सुनकर भृगुकुलभूषण मुनिश्रेष्ठ दधीचि को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने क्षुव के मस्तक पर बाऐं मुक्के से प्रहार किया। इस पर राजा क्षुव ने क्रोधातुर होकर वज्र से दधीचि को काट डाला। दधीचि ने उस मरणासन्न अवस्था में शुक्राचार्य का स्मरण किया। उन्होंने आकर दधीचि के अंगों को पूर्ववत् जोड़ दिया। शिवभक्त शिरोमणि तथा मृत्युंजय विद्या के प्रवर्तक शुक्राचार्य ने शिवपूजन कर महामृत्यंुजय मंत्र का उपदेश दिया। ¬ त्र्यम्बंक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। लघुरूप ¬ हौं जूँ सः ¬ भूर्भुवः स्वः ¬ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वः भुवः ¬ सः जूँ हौं ¬।। महामृत्यंुजय मंत्र की व्याख्या ‘त्र्यम्बकं यजामहे’ हम भगवान त्र्यंबक का यजन करते हैं। त्रयंबक का अर्थ है तीनों के जनक शिव। वह भगवान सूर्य, सोम और अग्नि-तीनों मंडलों के जनक हैं। सत्व, रज और तम तीनों गुणों के महेश्वर हैं। आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिव तत्व-इन तीनों तत्वों के; आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि इन तीनों अग्नियों; सर्वत्र उपलब्ध होने वाले पृथ्वी, जल एवं तेज इन तीनों मूर्त भूतों के (अथवा सात्विक आदि भेद से त्रिविध भूतों के), त्रिदिव (स्वर्ग) के, त्रिभुज के, त्रिधाभूत के, ब्रह्मा, विष्णु और शिव-तीनों देवताओं के ईश्वर महादेव ही हैं। ‘सुगन्ध्ंिा पुष्टिवर्धनम्’। जैसे फूलों में उत्तम गंध होती है, उसी प्रकार सभी भूतों में, तीनों गुणों में, समस्त कृत्यों में, इंद्रियों में, अन्यान्य देवों में और गणों में शिव ही सारभूत आत्मा के रूप में व्याप्त हैं। अतः सुगंधयुक्त एवं संपूर्ण देवताओं के ईश्वर हैं। उन अंतर्यामी पुरुष शिव से प्रकृति, ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों और इंद्रियों सहित देवताओं का पोषण होता है, इसलिए वह ‘पुष्टिवर्धक’ हैं। ‘उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’, अर्थात ‘प्रभो! जैसे खरबूजा पक जाने पर लता के बंधन से छूट जाता है, उसी प्रकार मैं मृत्युरूप बंधन से मुक्त हो जाऊं, किंतु अमृतपद (मोक्ष) से पृथक न होऊं।’ वह रुद्रदेव अमृतस्वरूप हैं। जो पुण्यकर्म से, तपस्या से, स्वाध्याय से, योग से अथवा ध्यान से उनकी आराधना करता है, उसे नूतन जीवन प्राप्त होता है। भगवान शिव स्वयं ही अपने भक्त को मृत्यु के सूक्ष्म बंधन से मुक्त कर देते हैं, क्योंकि वही बंधन और मोक्ष देने वाले हैं ठीक उसी तरह, जैसे उर्वारुक अर्थात खरबूजे का पौधा अपने फल को स्वयं ही लता के बंधन में बांधे रखता है और पक जाने पर स्वयं ही उसे बंधन से मुक्त कर देता है। यह मृत संजीवनी मंत्र सर्वोत्तम है। भगवान शिव का स्मरण करते हुए इस मंत्र का जप करंे। जप और हवन के पश्चात अभिमंत्रित किया हुआ जल पीएं तथा शिव का ध्यान करते रहें। इससे मृत्यु का भय नहीं रहता है। इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ दधीचि को उपदेश देकर शुक्राचार्य भगवान शंकर का स्मरण करते हुए अपने स्थान को लौट गए। उनकी बात सुनकर उनके निर्देश के अनुसार दधीचि ने वन में विधिपूर्वक महामृत्युंजय मंत्र का जप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया। भगवान शिव के वर मांगने हेतु कहने पर मुनिश्रेष्ठ दधीचि ने तीन वर मांगे। मेरी हड्डियां वज्र हो जाएं कोई मेरा वध न कर सके मैं सर्वत्र अदीन रहूं-कभी मुझमें दीनता न आए। इस प्रकार महामृत्युंजय मंत्र मृत्यु पर विजय दिलाने वाला अमरत्व प्रदान करने वाला है।