भुक्ति व मुक्ति प्रदाता महामृत्युंजय मंत्र रेनु सिंह हर व्यक्ति जीवन में सभी सांसारिक सुखों का अधिकाधिक उपभोग करना चाहता है, जिसके लिए निरोगी काया और लंबी आयु परम आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में शिवजी को भुक्ति और मुक्ति का प्रदाता माना गया है। शिव पुराण के अनुसार वह अनंत और चिदानंद स्वरूप हैं। वह निर्गुण, निरुपाधि, निरंजन और अविनाशी हैं। वही परब्रह्म परमात्मा शिव कहलाते हैं। शिव का अर्थ है कल्याणकर्ता। उन्हें महादेव (देवों के देव) और महाकाल अर्थात काल के भी काल से संबोधित किया जाता है। केवल जल, पुष्प और बेलपत्र चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाने के कारण उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है। उनके अन्य स्वरूप अर्धनारीश्वर, महेश्वर, सदाशिव, अंबिकेश्वर, पंचानन, नीलकंठ, पशुपतिनाथ, दक्षिणमूर्ति आदि हैं। पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण, देवगुरु बृहस्पति तथा अन्य देवी देवताओं द्वारा शिवोपासना का विवरण मिलता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार भगवान शिव कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि के स्वामी हैं। इसीलिए प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते हैं। पुराणों के अनुसार फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को महा शिवरात्रि कहते हैं। महा शिवरात्रि भगवान शिव के प्राकट्य और मतांतर से उनके विवाहोत्सव की रात्रि होती है। शिव पुराण के अनुसार इस दिन भगवान शिव का अभिषेक, पूजा ध्यान, जप एवं कथा श्रवण अनंत फलदायी होता है। श्रावण मास में शिव की आराधना उŸाम मानी गई है। हिंदू धर्म में मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए संबंधित देवता की मंत्रोपासना का विधान है। पुराणों में वर्णित सफल साधकों के जीवन चरित्र इस ओर प्रोत्साहित करते हैं। मंत्र शब्द ‘मन’ धातु के उŸार व ‘त्रे’ धातु एवं ‘घ’ प्रत्यय के योग से बना है। शास्त्रों में मंत्र के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार है- ‘मननात्’ त्रायते यस्मान् तुस्मान मंत्रः उदाहृत।’ अर्थात् जिसके मनन और चिंतन से दुख और कष्ट से मुक्ति तथा परामनंद की प्राप्ति होती है उसका नाम मंत्र है। प्रत्यक्ष रूप से इष्टदेव का अनुग्रह विशेष ही मंत्र है। मंत्र एक अव्यक्त दैवीय शक्ति को अभिव्यक्त करता है। मंत्र को देवता की आत्मा भी कहा गया है। (देवस्य मंत्र स्वरूपस्य।) अपने इष्ट देवता में पूर्ण निष्ठा व विश्वास रखते हुए विधि-विधान से मंत्र का जप करने पर साधक को सिद्धि, भुक्ति और मुक्ति की प्राप्ति होती है। यद्यपि शिव साधना पंचाक्षर, षडाक्षर तथा अन्य मंत्रों से भी की जाती है, परंतु कष्ट और रोग से मुक्ति के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जप का सर्वाधिक प्रचलन है। इस मंत्र के जप से रोग, भय, दुख, दारिद्र्य आदि के शमन के साथ-साथ सभी कामनाओं की सिद्धि भी होती है। मंत्र इस प्रकार है। ¬ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।। अर्थ ‘‘हम तीन नेत्र वाले, सुगंधयुक्त एवं पुष्टि के वर्द्धक शिव शंकर की पूजा करते हैं। वे शंकर हमको दुखों से ऐसे मुक्त कराएं जैसे खरबूजा पक कर बेल से अपने आप अलग हो जाता है। किंतु वे शंकर हमें मोक्ष से न छुडावें।’ उपासना का मूल सिद्धांत है, ‘‘देवो भूत्वा राजदेवम्’’ अर्थात् ‘देवता समान बनकर इष्ट देव की उपासना करना चाहिए।’ साधक के शुद्ध सात्विक रहकर व अहंकार त्यागकर, समर्पण भाव से देवोपासना करने पर उसके शरीर में देवता का वास होता है। शास्त्रोक्त विधान के अनुसार साधना शुद्ध, निश्चित स्थान व समय पर नियमित रूप से करनी चाहिए। जप के समय शुद्ध घी का दीपक जलते रहना चाहिए। जप आरंभ करने से पहले संकल्प, इष्ट की पंचोपचार या षोडशोपचार पूजा, फिर विनियोग, अंगन्यास, करन्यास तथा हृदयादि न्यास के पश्चात ध्यान के बाद निमग्न होकर प्रतिदिन निश्चित संख्या में जप करना चाहिए। उसके लिए मंत्र इस प्रकार है- संकल्प: दाहिने हाथ में एक फूल, अक्षत् और जल लेकर यह मंत्र पढ़कर नीचे छोड़ दें। ‘अमुक नामोऽहं (अपना नाम) अमुकवासारादौ (संवत्, मास, तिथि का उच्चारण) स्वस्य (स्वयं) निखिलारिष्ट निवृŸाये महामृत्युंजय मंत्र जपम् अहं करिष्ये।’ विनियोग: पुनः दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र पढ़कर नीचे छोड़ दें। ‘¬ अस्य श्री महामृत्युंजय मन्त्रस्य वशिष्ठऋषिः अनुष्दुप्छनद - त्रयम्बकरुद्रो देवता श्रीं बीजं ह्रीं शक्तिः ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। फिर न्यास करें। अंगन्यास में निम्नलिखित मंत्र पढ़कर क्रमशः सिर, मुख, हृदय, लिं तथा चरण का स्पर्श करें। (न्यास का अर्थ है मंत्र को शरीर में स्थापित करना।) )ष्यादि न्यासः वशिष्ठ ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप छन्दसे नमः मुखे। श्री त्रयम्बक देवतायै नमः हृदये। श्रीं बीजाय नमः गुह्ये। ह्रीं शक्तये नमः पादयोः। इसके बाद निम्न मंत्रों से पहले अंगूठे आदि का स्पर्श करते हुए करन्यास करके, फिर उन्हीं मंत्रों से हृद्यादिन्यास करना चाहिए। महामृत्युंज्य मंत्र का जप आरंभ करने के पहले मृत्युंजय शिवरूप का ध्यान आवश्यक है। शिव पुराण में यह ध्यान इस प्रकार बताया गया है - चन्द्रार्काग्निविलोचनं स्मितमुखं पùद्वयान्तः स्थितम्। मुद्रापाशमृगाक्षसूत्रविलसत्पाणिं हिमांशुप्रभम्।। क ा ेट ी र ेन् द ुग ल त ्स ुध् ा ा स् न ुत त न ुं हारादिभूषोज्ज्वलम्। कान्त्या विश्वविमोहनं पशुपति मृत्युंजयं भावयेत्। ऊपर वर्णित विधान के पश्चात् निम्नलिखित महामृत्युंजय मंत्र का रुद्राक्ष की माला पर सवा लाख, संपुट युक्त, जप करना चाहिए। यह अति प्रभावी महामृत्युंजय मंत्र है। ¬ हौं जूँ सः, ¬ भूर्भुवः स्वः। ¬ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।। ¬ स्वः भुवः भूः ¬ सः जूँ हौं ¬। निर्धारित संख्या में नियमित रूप से जप करने के बाद उसकी सफलता के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। गुह्याति गुह्यगोप्ता त्वं गृहाणास्मत्कृंत जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वरः।। मृत्यंुजय महारुद्र त्राहि मां शरणागतम्। जन्ममृत्युजेरारोगैः पीड़ितं कर्मबंधनैः।। संकल्पित जप पूरा होने पर उसके दशांश हवन, हवन के दशांश तर्पण और तर्पण के दशांश मार्जन (या उतना अधिक जप) के बाद इष्टदेव से इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए। ¬ आवाहनं न जानामि, न जानामि च पूजनम्। विसर्जनं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वरः।। मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर। सत्पूजितं मया देव। परिपूर्णं तदस्तु मे।। यदक्षर पद भ्रष्टं मात्राहीनं च यद् भवते। तत्सर्वं क्षमयतां देव। प्रसीद परमेश्वर।। यस्य स्मृत्या च नामोक्तया तपोयज्ञ क्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वंदे त म च् य ुत म ्। । अंत में आरती के बाद 1, 3 या 5 ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा सहित विदा करके स्वयं सपरिवार प्रसाद व भोजन ग्रहण करना चाहिए। महामृत्युंजय मंत्र का जप अनुष्ठान रोग से मुक्ति का अमोघ उपाय है। इसके निष्ठापूर्वक जप से मरणासन्न व्यक्ति भी स्वस्थ हो सकता है। कुछ व्यक्ति महामृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान किसी पंडित या पूजा-पाठ करने वाले व्यक्ति से भी करवाते हैं, परंतु वह स्वयं किए गए जप के समान फलदायी नहीं होता । इसके कई कारण हैं। सर्वप्रथम शुद्ध सात्विक आचार वाले योग्य संस्कारी व्यक्तियों का अभाव। दूसरे उनके जप में प्रार्थना भाव की कमी। किसी के भोजन करने से किसी दूसरे का पेट नहीं भरता। स्वयं जप करने की स्थिति में उसमें रह गई कोई कमी क्षमा प्रार्थना से दूर हो जाती है। अनुष्ठान के लिए श्रावण मास तथा शिव मंदिर उŸाम माना गया है। परंतु घर के शांत वातावरण में शुद्ध स्थान पर किसी शुक्ल पक्ष के सोमवार से महामृत्युंजय अनुष्ठान मनोयोग से किया जा सकता है। शुद्ध सात्विक भाव से किया गया अनुष्ठान निश्चय फलदायी होता है। मंत्रा करन्यास हृद्यादि न्यास ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भूवः स्वः त्र्यम्बकं, ¬ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यां नमः। मंत्रा करन्यास हृद्यादि न्यास ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भूवः स्वः यजामहे, ¬ नमो भगवते रुद्राय अमृत मूर्तये मां जीवय। जीवय तर्जनीभ्यां नमः ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भूवः स्वः भूर्भूवः स्वः उर्वारुकमिव बंधनात्, ¬ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ”ां ”ीं। अनामिकाभ्यां हुँ। ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भूवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय, ¬ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याम वौषट् ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भूवः स्वः सुगन्धि पुष्टिवर्धनम ¬ नमो भगवते रुद्राय चंद्र शिरसे जटिने स्वाहा मध्यमाभ्यां वषट् ¬ हौं ¬ जूँ सः भूर्भूवः स्वः मामृतात्, ¬ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल-ज्वल मां रक्ष रक्ष अधोरास्त्राय। करतलकर पृष्ठाभ्यां फट् (दोनों तर्जनियों से हाथ के अंगूठों को छूएं) (दोनों तर्जनी उंगलियों को अंगूठे से मिलाएं।) अनामिकाओं को अंगूठों से मिलाएं (दोनों बीच की अंगुलियों को अंगूठों से मिलाएं।) (कनिष्ठिकाओं को अंगूठों से मिलाएं।) (हथेलियों के पिछले भाग को आपस में रगड़ें।) हृदयाय नमः। (दाईं पांच उंगलियों से हृदय का स्पर्श करें।) शिर से स्वाहा। (सिर का स्पर्श) कवचाय हुँ (दाएं हाथ से बायां कंधा तथा बाएं हाथ से दायां कंध छूएं) शिखायै वषट्। (शिखा छूएं।) नेत्रत्रयाय वौषट्। तर्जनी तथा अनामिका से दोनों आंखों को छूएं। अस्त्राय फ्ट। (दाएं हाथ की तर्जनी और मध्यमा को सिर पर से घुमा कर बाएं हथेली पर मार कर आवाज करें।)