जानें किन योगों व कैसी दशाओं में हार्ट अटैक संभावित होता है
जानें किन योगों व कैसी दशाओं में हार्ट अटैक संभावित होता है

जानें किन योगों व कैसी दशाओं में हार्ट अटैक संभावित होता है  

अमित कुमार राम
व्यूस : 4983 | जुलाई 2017

हृदय मानव शरीर के सीने के बायें भाग के अंदर एक मांसपेशी है। इसकी कार्यप्रणाली के अंतर्गत हृदय शरीर में एक पंप की तरह से कार्य करता है, जो शरीर में एक ओर से रक्त खींचकर दूसरी ओर से शरीर के प्रमुख तथा सभी अंगों जैसे- मस्तिष्क, यकृत, गुर्दे इत्यादि को रक्त पहुंचाता है। यह रक्त हृदय के दायें भाग में प्रवेश करता है और दायें परिकोष्ठ से होकर गुजरता है। यहां से रक्त दायें निलय (त्पहीज टमदजतपबसम) में प्रवेश करता है। फिर पहले के मुकाबले कुछ धीमी गति से और हल्के प्रेशर से फेफड़ों में पम्प होता है जहां रक्त को ऑक्सीजन प्राप्त होती है।

फेफड़ों से यह रक्त हृदय के बायें परिकोष्ठ में प्रवेश करता है और फिर यही रक्त बायें निलय में बहता है। बायें निलय से यह रक्त पहले की तुलना में अधिक प्रेशर के साथ हृदय की प्रमुख धमनी;ंवतजंद्ध से गुजरता हुआ पूरे शरीर में पहुँचता है। हृदय की बनावट को देखें तो इसमें चार वाल्व(अंसअम) होते हैं। ये चारों वाल्व बारी-बारी से कुछ क्षणों के अंतर पर लगातार खुलते और बंद होते हैं जिससे कि रक्त एक ही दिशा में बहता रहंे।


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हृदय रोग का प्रमुख कारण हृदय की नाड़ियों का सिकुड़ जाना या पतली पड़ जाना है, जिससे रक्त का प्रवाह कम हो जाता है या रूक भी जाता है। इन रक्त नलिकाओं का सिकुड़ना और रक्त प्रवाह का कम होने का मुख्य कारण है वसा या चर्बी जो नसों के अंदर में तह के रूप में जमती चली जाती है। इसी कारण ये नाड़ियां सख्त हो जाती हैं। हृदय धमनियों के इस प्रकार सिकुड़ने से ही रक्त का प्रवाह सरलता से नहीं हो पाता। इसी के नतीजन सीने में दर्द अथवा हार्ट अटैक होता है। हृदय की क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए हृदय को पोषित किया जाना आवश्यक है।

हम ज्योतिष के माध्यम से भी हृदय रोग की संभावनाओं का पता लगा सकते हंै और समय से पहले उसके प्रति जातक को सावधान करके उसके हृदय की रक्षा की जा सकती है या यूँ कहें कि अचानक आने वाले संकट को पहले ही पहचान कर दूर अथवा नियंत्रित अवश्य ही किया जा सकता है।</p

साधेहिते हितपतौ कलुपान्तरेऽघैर्युक्तेऽथ सान्तगृहपे मरणे कपे वा ।

मूढ़ारिनिम्नभवनेऽथहिते सुतेऽपि क्रूरग्रहेऽशुभ खतर्कलवोपयाते ।।

सधोगद्दग्विरहितेऽथ हृदीज्यमन्दारा हृद्रदोऽहनि जनौ खलवीक्ष्यमाणैः ।

हृद्रैः कुजार्किधिपणै रिपुनीचभस्यैः स्यात्कृष्णपित्तविकृतेहृर्दये व्रणो नुः ।।

(गदावलीः23-24)

1.) जन्म समय की लग्न कुंडली में चतुर्थ सुख स्थान पापयुक्त हो और सुखेश पापग्रहों के अन्तराल में हो या पाप ग्रहों से युक्त हो तो, ऐसे योग में जातक हृदय रोग का शिकार होता है। होकर चतुर्थ में हो और वह अस्तगत, शत्रुराशि व नीच राशि में हो तो भी हृदय रोग होता है।

3.) चतुर्थ में गुरु, शनि और मंगल हो तो भी हृदय रोग होता है। मंगल, शनि और गुरु यदि शत्रुराशि में व नीच राशि में हो तो कृष्णपित्त विकार से जातक के हृदय में व्रण होता है।

4.) सुखभाव में पाप दृष्ट राहु हो और लग्नेश निर्बल हो तो, ऐसा योग होने पर हृदय रोग होता है।

5.) सप्तम भाव में राहु युक्त चंद्रमा हो और केंद्रगत शनि यदि सूर्य, गुरु व चंद्रमा को देखता हो तो हृदय रोग अवश्य पीड़ित करता है।

6.) वृश्चिक राशिगत सूर्य यदि पाप व शुभ ग्रहों से युक्त हो तो ऐसा योग होने पर हृदय रोग की संभावना अधिक रहती है।

7) सूर्य षष्ठेश होकर यदि पापाक्रान्त हो और पतित होकर 6 या 12 स्थान में शुभ ग्रहों के साथ भी हो तो हृदय रोग व उदर रोग होता है।

8.) दिन में जन्म हो, नष्ट मंगल यदि गुरु को देखे अथवा शुभग्रह क्रूराक्रान्त हो, षष्ठेश पापयुक्त हो अथवा सूर्य वृश्चिक राशि में हो तो हृदय रोग होता है।


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ज्योतिषीय विचार अनुसार कालपुरूष के हृदय का स्थान चतुर्थ स्थान है तथा हृदय का कारक ग्रह सूर्य है। इसलिए चतुर्थ स्थान, चतुर्थ स्थान का स्वामी तथा हृदय का कारक ग्रह सूर्य है। इसलिए चतुर्थ स्थान, चतुर्थ स्थान का स्वामी तथा हृदय के कारक सूर्य पर लग्न कुंडली में कौन से क्रूर प्रभाव हैं, यह देखना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त मंगल की राशि वृश्चिक का भी विशेष रूप से जिक्र आया है

जो कि एक क्रूर राशि है। इस राशि में सूर्य का होना अर्थात हृदय के कारक पर एक क्रूर राशि का प्रभाव भी हृदय रोग का प्रमुख कारण बताया गया है। एक अन्य विचार के अनुसार हृदय रोग के लिए गुरु ग्रह की क्या स्थिति है, यह भी अवश्य देखना चाहिए, क्योंकि गुरु ग्रह अतिरिक्त चर्बी जो कि नसों में एकत्रित होकर रक्त के प्रवाह को अवरुद्ध करती है का कारक ग्रह भी है और इसीलिए योग संख्या तीन में गुरु को भी चतुर्थ भाव में हृदय रोग का एक कारण माना है। इसी प्रकार योग पांच तथा आठ में भी हृदय रोग के लिए गुरु को महत्वपूर्ण माना है। उदाहरण कुंडली 1 के जातक को 22-03-2010 को हार्ट अटैक हुआ। दशा थी- शनि/बुध/बृहस्पति/ चंद्र। यदि हम षष्ठ्यांश कुंडली में देखें तो शनि अष्टमेश होकर 12 वें भाव(अस्पताल) में बैठे हैं व षष्ठ्यांश कुंडली के लग्नेश और लग्न कुंडली के लग्नेश बुध को देख रहे हैं।

अन्तर्दशानाथ बुध स्वयं लग्नेश हैं। प्रत्यंतर दशा नाथ बृहस्पति भी मारकेश होकर 12 वें भाव में स्थित हैं। सूक्ष्म दशा नाथ चंद्रमा भी मारकेश होकर षष्ठेश मंगल के साथ हैं। षष्ठ्यांश कुंडली में षष्ठेश मंगल की अष्टमेश शनि पर दृष्टि है। अष्टमेश शनि की रोग भाव षष्ठ पर दृष्टि है। अष्टमेश तथा द्वादश स्वामी का राशि परिवर्तन योग भी दिल के दौरे की पुष्टि करते हैं। उदाहरण कुंडली 2 के जातक को राहु/शनि/शुक्र/मंगल की दशा के दौरान हार्ट अटैक हुआ।

मुख्य बात यह रही कि जातक को कई दिनों से हृदय में शूल हो रही थी और एक दिन हृदय की शूल से ये काफी असहाय हो गये तो ये चिकित्सक के पास गए तो उन्होंने बताया कि इन्हें हार्ट अटैक हो चुका है। इनकी षष्ठ्यांश कुंडली में महादशा स्वामी राहु शनि की राशि में केतु के साथ है, अतः इन्हें शुरू में पता ही नहीं चला कि इन्हें हार्ट अटैक हो चुका है। शनि राहु के राशिपति होकर लग्न में स्थित हैं। प्रत्यंतर दशा नाथ शुक्र षष्ठेश होकर 12 वें भाव में स्थित हैं। मंगल सप्तमेश व द्वादशेश होकर अष्टम भाव में स्थित हैं। अतः बीमारी के लिए 1, 6, 8, 12 सभी भाव क्रियाशील हैं।



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